फिर भी चक्का जाम!

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मंत्रियों और सरकार समर्थक विश्लेषकों के मुताबिक यह नए निवेश के लिए आदर्श समय है। मगर हकीकत यह है कि अब तक निवेश- उत्पादन- रोजगार सृजन- उपभोग एवं वृद्धि और उससे प्रेरित नए निवेश का चक्का हिला तक नहीं है।

संभव है कि नरेंद्र मोदी सरकार के अंदर सचमुच यह समझ हो कि अर्थव्यवस्था में गति भरने के लिए वह जो कर सकती थी, कर दिया है। केंद्रीय मंत्री यह कहते सुने गए हैं कि अब यह निजी क्षेत्र पर है कि सरकार की बनाई अनुकूल स्थितियों के अनुरूप आचरण वह करे। निजी क्षेत्र से उम्मीद जोड़ी गई है कि वह बड़ा निवेश करेगा, जिससे अर्थव्यवस्था गतिमान हो जाएगी। सरकार समर्थक विश्लेषक ध्यान दिलाते हैं कि 2019 में कॉरपोरेट टैक्स में भारी कटौती की गई। इस वर्ष के बजट में आय कर सीमा बढ़ा कर 12 लाख रुपए की गई, जिससे एक करोड़ लोग इस कर दायरे से बाहर हो गए।

सरकार ने इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण के लिए कोरोना काल के बाद की अवधि में पूंजीगत निवेश लगातार ऊंचा बनाए रखा है। फिर कई उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए प्रोडक्शन लिंक्ड इन्सेंटिव योजना चलाई जा रही है। सरकार ने बैंकों को डूबे कर्ज के बोझ से काफी हद तक मुक्ति दिला दी है, जिससे नया ऋण मिलना आसान हो गया है। और इन सबके ऊपर अब जीएसटी ढांचे में हुआ बदलाव है, जिस कारण 22 सितंबर से इसकी दरों में कटौती लागू हो जाएगी। यह भी ध्यान दिलाया जाता है कि भारतीय रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों में हाल में कई कटौतियां की हैं। फिर भी मुद्रास्फीति की दर नीचे बनी हुई है।

नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था में ऐसी परिस्थितियों नए निवेश के लिए आदर्श समय माना जाता है। मगर हकीकत यह है कि अब तक निवेश- उत्पादन- रोजगार सृजन- उपभोग एवं वृद्धि और उससे प्रेरित नए निवेश का चक्का हिला तक नहीं है। क्या जीएसटी की नई दरों के साथ इसमें हरकत आएगी? मेनस्ट्रीम मीडिया ने सकारात्मक माहौल बनाने में अपनी पूरी ताकत झोंकी हुई है। मगर हेडलाइन्स से अर्थव्यवस्था को संभालना संभव होता, तो ऐसा बहुत पहले हो चुका होता। समस्या यह है कि सरकारी और मीडिया नैरेटिव्स में घरेलू बचत में भारी गिरावट और परिवारों पर बढ़े ऋण के बोझ से बनी नकारात्मक स्थितियों को सिरे से नजरअंदाज किया गया है। उन हालात के रहते आर्थिक चक्र का गतिमान होना संभव नहीं है।


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