बिहार में शुरू हुआ हिजाब विवाद थम नहीं रहा है। इस विवाद के केंद्र में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और आयुष की एक चिकित्सक नुसरत परवीन हैं। मुख्यमंत्री ने नियुक्ति पत्र देते हुए नुसरत के चेहरे से हिजाब नीचे खींच दिया था। सार्वजनिक मंच पर नीतीश कुमार ने जो किया उसे किसी भी तर्क से जस्टिफाई नहीं किया जा सकता है। हालांकि करने की कोशिशें हो रही हैं। उनकी सरकार के इकलौते मुस्लिम मंत्री जमा खान ने नुख्यमंत्री का बचाव किया तो विपक्ष के सांसद पप्पू यादव ने भी बचाव किया। उनकी पार्टी ने विवाद को अनावश्यक बताते हुए कहा कि नीतीश कुमार की मंशा गलत नहीं थी। हालांकि खुद नीतीश कुमार ने इस पर कुछ नहीं कहा है। अब यह भी पता नहीं है कि उनको अंदाजा भी है या नहीं कि उनके कृत्य पर कितना बड़ा विवाद खड़ा हुआ है।
सबसे दिलचस्प यह है कि नीतीश कुमार का बचाव जिस एक आधार पर किया जा सकता है उसका जिक्र कोई नहीं करना चाहता है क्योंकि उसके अलग खतरे हैं। विधानसभा चुनाव से पहले विपक्षी पार्टियां खास कर राष्ट्रीय जनता दल के तेजस्वी यादव और जन सुराज पार्टी के प्रशांत किशोर आरोप लगाते थे कि नीतीश की मानसिक अवस्था बिगड़ गई है। उनको बातें याद नही रहती हैं। वे अपने मंत्रियों को भी नहीं पहचानते हैं। तेजस्वी बार बार कहते थे कि नीतीश अचेतावस्था में हैं। इसे साबित करने के लिए कई तरह की मिसाल दी जाती थी। कैसे नीतीश कुमार ने किसी मृतात्मा को श्रद्धांजलि देने के लिए रखा गया फूल अपने एक मंत्री के ऊपर फेंक दिया था या कैसे पौधे का एक गमला वरिष्ठ आईएएस के सर पर रख दिया था या कैसे एक महिला के गले में माला डाल दी थी या कैसे एक महिला के गले में पटका पहनाने का प्रयास किया या महिलाओं के रिप्रोडक्टिव प्रोसेस और परिवार नियोजन की प्रक्रिया को ग्राफिक्स डिटेल के साथ विधानसभा में समझाया था।
लेकिन हिजाब की घटना में विपक्ष इन बातों का जिक्र नहीं कर रहा है। उनको लग रहा है कि अगर नीतीश के मानसिक स्वास्थ्य का मुद्दा बनाएंगे तो हिजाब के नाम पर जो वितंडा खड़ा किया गया है वह फेल हो जाएगा। जनता दल यू के लोग अपने नेता के बारे में ऐसी बातें कर ही नहीं सकते हैं। भाजपा के लोग जरूर चाहते हैं कि इस पहलू से घटना की व्याख्या हो। क्योंकि वे ऐसी कुछ और घटनाओं का इंतजार कर रहे हैं ताकि सत्ता बदल के अभियान को आगे बढ़ाया जाए।
नीतीश कुमार के मानसिक स्वास्थ्य को छोड़ दें तो इस प्रकरण में मुख्य रूप से एक महिला की अस्मिता और सम्मान का मामला जुड़ा है। लेकिन अफसोस की बात है कि उसका जिक्र कोई नहीं कर रहा है। जिस महिला के सम्मान पर मुख्यमंत्री ने हाथ डाला है वह चुप है। कायदे से उस महिला की ओर से शिकायत दर्ज कराई जानी चाहिए। एक महिला के चेहरे से अगर किसी ने नकाब खींचा चाहे वह मुख्यमंत्री क्यों न हों तो उस महिला को अधिकार है कि वह इसकी शिकायत दर्ज कराए। यह एक महिला की मर्यादा भंग करने का मामला है। पहली नजर में दिख रहा है कि इसमें दूसरे किसी भी व्यक्ति को शिकायत दर्ज करने का अधिकार नहीं है। नीतीश कुमार ने अगर नकाब को लेकर कोई सार्वजनिक बयान दिया होता है या उस मान्यता और परंपरा पर सवाल उठाया होता तो फिर वह एक सार्वजनिक विमर्श का मामला बनता। लेकिन यह एक महिला से जुड़ा मामला है।
फिर भी हैरानी की बात है कि नीतीश कुमार के इस कृत्य के खिलाफ देश भर में मुकदमे दर्ज हो रहे हैं। श्रीनगर में महबूबा मुफ्ती की बेटी इल्तिजा मुफ्ती ने शिकायत दर्ज कराई तो लखनऊ में दिवंगत शायर मुनव्वर राणा की बेटी सुमैया राणा ने शिकायत दर्ज कराई। रांची में भी नीतीश के खिलाफ शिकायत दर्ज की गई है। बिहार छोड़ कर हर जगह यह एक बड़ा मुद्दा बना है। बिहार में न महिला बोल रही है, न उसके परिजन बोल रहे हैं और न पार्टियां व सामाजिक संगठन आगे आकर शिकायत दर्ज करा रहे हैं। लेकिन बिहार से बाहर महाराष्ट्र में एमआईएम के पूर्व सांसद इम्तियाज जलील और वारिस पठान के लिए यह बड़ा मुद्दा है तो हैदराबाद में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी के लिए भी बड़ा मुद्दा है। इल्तिजा मुफ्ती ने नीतीश को सबक सीखा देने की चेतावनी दी तो इम्तियाज जलील ने धमकाया कि सामने होता था नीतीश का हाथ तोड़ कर दूसरे हाथ में दे देता। झारखंड में स्वास्थ्य मंत्री इरफान अंसारी ने नुसरत को तीन लाख रुपए महीने की नौकरी का प्रस्ताव दे दिया।
अब सोचें इन पार्टियों और व्यक्तियों का इस मामले में क्या कानूनी अधिकार बनता है? वे कैसे इस मामले में पार्टी बन सकते हैं। जिस महिला का सम्मान आहत हुआ है उसने कुछ नहीं कहा है। लेकिन बाकी सबको राजनीति करनी है। खास कर ऐसी पार्टियां या नेता, जिनकी प्रासंगिकता कम हुई है या पैरों के नीचे की जमीन खिसकी है उनको इस मामले में ज्यादा से ज्यादा भड़काऊ औऱ कट्टरपंथी बयान देकर अपने को प्रासंगिक बनाना है। जलील हों या इरफान हों, सुमैया हों या मुफ्ती सबको अपनी राजनीति चमकानी है। इनमें से किसी को पूरे विवाद में महिला के सम्मान का मामला नहीं दिख रहा है। सब धर्म का मामला देख रहे हैं। जबकि यह हिंदू और मुस्लिम बाइनरी में देखने का मुद्दा ही नहीं है। नीतीश कुमार को जानने वाले जानते हें कि वे कतई सांप्रदायिक राजनीति नहीं करते हैं। उन्होंने भाजपा के साथ तालमेल के बावजूद लोकसभा हो या विधानसभा चुनाव मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया है और उनको मंत्री बनाया है। अपने लंबे शासन में उन्होंने धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होने दिया।
दूसरी बात यह है कि महिला सम्मान को लेकर उतना सजग नेता देश में शायद ही कोई हो। उन्होंने बिहार में महिलाओं के सशक्तिकरण की जो योजनाएं लागू कीं उनकी चर्चा दुनिया के स्तर पर हुई। इसलिए उनको न तो सांप्रदायिक कहा जा सकता है और महिला द्वेषी कहा जा सकता है। फिर भी उनके एक कृत्य को हिंदू और मुस्लिम की बाइनरी में देख कर उसके आधार पर कई लोग अपनी राजनीति चमकाने का प्रयास कर रहे हैं। नीतीश का काम अगर आलोचना के योग्य है तो इन सबका काम भी आलोचना के लायक है। पहली बात तो ये है कि वे एक महिला के सम्मान से जुड़े मामले को अपनी राजनीति चमकाने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं और दूसरी बात यह है कि वे किसी न किसी तरह से महिला को परदे में रखने की प्रथा को जस्टिफाई कर रहे हैं।
हैरान करने वाली बात है कि नीतीश की आलोचना करने वाले सारे लोग डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की तारीफ करते हैं लेकिन हिजाब पर उनकी बात नहीं मानते। डॉक्टर अंबेडकर ने लिखा है, ‘सड़कों पर चलती हुई ये बुर्का पहनी महिलाएं भारत में देखे जा सकने वाले सबसे भयावह दृश्यों में से एक है। ….. खासकर पर्दा करने वाली महिलाएं असहाय, डरपोक और जीवन की किसी भी लड़ाई के लिए अयोग्य हो जाती हैं’। नीतीश कुमार के राजनीतिक गुरू कर्पूरी ठाकुर के गुरू रहे डॉक्टर राममनोहर लोहिया भी अपने सामने हिजाब में आने वाली महिलाओं का परदा उठा देते थे। वे घुंघट और हिजाब दोनों के घनघोर विरोधी थे और इसे औरतों की गुलामी मानते थे।
