केंद्र सरकार महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार यानी मनरेगा को इसलिए बदल रही है क्योंकि सरकार का कहना है कि इसमें बहुत गड़बड़ी हो रही है। पश्चिम बंगाल के 19 जिलों की गड़बड़ी का हवाला दिया गया तो बाद में 23 राज्यों में कराए गए सर्वेक्षण का भी हवाला दिया गया। हालांकि करीब एक लाख करोड़ रुपए सालाना की इस योजना में दो फीसदी से भी कम यानी दो हजार करोड़ रुपए से भी कम की गड़बड़ी का आकलन है। फिर भी इस आधार पर सरकार इसे बदल कर इसको तकनीक के जाल में ऐसा उलझाना चाहती है कि योजना खत्म हो जाए। लेकिन उसी सरकार ने पिछले 10 साल में 16.35 लाख करोड़ रुपए का कर्ज राइट ऑफ किया है यानी बट्टे खाते में डाला है।
सोचें, 10 साल में साढ़े 16 लाख करोड़ रुपए का मतलब है कि हर साल डेढ़ लाख करोड़ रुपए से ज्यादा की रकम बट्टे खाते में गई है। सरकार के समर्थक समझाते हैं कि राइट ऑफ करने का मतलब इसे माफ करना नहीं होता है। सही है कि माफ करना नहीं होता है लेकिन राइट ऑफ किए गए कर्ज की वसूली 25 फीसदी से ज्यादा नहीं हो पाती है। यानी अगर 25 फीसदी रकम भी वसूल हुई तो 12 लाख करोड रुपए डूबेंगे। इस राइट ऑफ करने के लिए इन्साल्वेंसी और बैंकरप्सी कोड के जरिए लाख करोड़ के लोन को 11 हजार करोड़ रुपए में सेटल किया जा रहा है। वह अलग मामला है। लेकिन उस सरकार को यह चिंता सता रही है कि मनरेगा में हर साल दो हजार करोड़ रुपए की गड़बड़ी हो रही है। असल में यह गड़बड़ी से ज्यादा राजनीति से जुड़ा हुआ फैसला है।
