नाकामियों ने उपजी हताशा

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कांग्रेस की मुश्किल यह है कि गुजरे 12 साल में वह नरेंद्र मोदी के उछाले मुद्दों पर प्रतिक्रिया जताने से आगे का कोई कार्यक्रम तय नहीं कर पाई है। उधर बार-बार चुनावी हार से संगठन में हताशा गहरा गई है।

दिग्विजय सिंह ने कांग्रेस की संगठन संबंधी मूलभूत समस्या की ओर इशारा किया, लेकिन इसके लिए उन्होंने संभवतः अनुचित प्रतीक चुना। जिस दल (भाजपा) या संगठन (आरएसएस) को कांग्रेस अपना वैचारिक विरोधी मानती हो, उसकी खूबी का सार्वजनिक बखान करना पार्टी में हलचल को आमंत्रित करना ही था। बहरहाल, वरिष्ठ कांग्रेस नेता शशि थरूर यही काम साल भर से ज्यादा समय से कर रहे हैं। एक मौके पर तो वे यह कह गए कि भारत का सौभाग्य है कि नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने यूक्रेन युद्ध पर तटस्थता की नीति अपना कर देश हित की रक्षा कर ली। इसके बावजूद कांग्रेस ने उन्हें बदार्श्त कर रखा है।

जब कभी ये सवाल पार्टी प्रवक्ताओं के सामने आया, तो उनकी दलील थी कि कांग्रेस के अंदर लोकतंत्र है, जहां असहमति जताने की आजादी है। अब यह लोकतंत्र है या अराजकता- इस सवाल को खुद पार्टी नेतृत्व के लिए छोड़ दिया जाए, तब भी यह मूलभूत प्रश्न रह जाता है कि क्या ऐसे भटकाव से ग्रस्त दल कोई सार्थक विकल्प प्रदान कर सकता है? कांग्रेस की मुश्किल यह है कि 12 साल से विपक्ष में रहने के बावजूद वह नरेंद्र मोदी और भाजपा के उछाले मुद्दों पर प्रतिक्रिया जताने से आगे का कोई एजेंडा या कार्यक्रम तय नहीं कर पाई है। उधर बार-बार चुनावी हार से संगठन में हताशा गहराती चली गई है।

संगठन में विभ्रम का हाल यह है कि कर्नाटक में नेतृत्व परिवर्तन के प्रश्न पर पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे कहते सुने गए कि इस बारे में ‘आलाकमान फैसला लेगा’। इस तरह उन्होंने साफ किया है कि वे ‘आलाकमान’ नहीं हैं। उनके अध्यक्ष होने के बावजूद यह हैसियत गांधी परिवार के सदस्यों की ही है। आज इस परिवार के सबसे अग्रणी चेहरा राहुल गांधी हैं, जिन्होंने भविष्य का सपना जगाने के बजाय जातीय पहचान की पुरानी पड़ चुकी राजनीति से पार्टी के पुनरुथ्थान की आस जोड़ी और जब इसमें कामयाबी नहीं मिली, तो “वोट चोरी” के कथानक में सिमट गए हैँ। इन हालात में हताश नेताओं को प्रतिद्वंद्वी पार्टी में गुण नजर आने लगे हैं, तो उसमें कोई अचरज नहीं है।


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