दरक रही हैं ईंटें

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न्यायपालिका की मंशा पर अब खुलेआम प्रश्न खड़े किए जाने लगे हैं। न्यायपालिका वह अंतिम संस्था है, जो संवैधानिक में लोगों के भरोसे को कायम रखती है। मगर अब यह मान्यता भी टूट रही है। इस गिरावट को तुरंत रोकना अनिवार्य है।

भारत में संवैधानिक व्यवस्था की बुनियाद पर एक के बाद एक चोट लग रही है। विपक्षी दल ये कहने में अब तनिक नहीं हिचकते कि चुनाव चुरा लिए गए हैं। मसलन, हाल में अपनी जर्मनी यात्रा के दौरान लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने बेलाग कहा कि पिछले हरियाणा विधानसभा में असल में कांग्रेस जीती थी, जबकि महाराष्ट्र में निष्पक्ष चुनाव नहीं हुआ। इस रूप में विपक्ष और उसके समर्थक हिस्सों में सीधे निर्वाचित सदन एवं उसमें बहुमत के आधार पर बनी सरकारों की वैधता पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। उधर निर्वाचन आयोग से लेकर कई दूसरी संवैधानिक संस्थाओं तथा जांच एजेंसियों को लेकर अविश्वास लगातार गहराता ही चला गया है।

इस बीच नई घटना बीते हफ्ते हुई, जब उन्नाव कांड में सजायाफ्ता कुलदीप सिंह सेंगर को जमानत देने के निर्णय के खिलाफ दिल्ली हाई कोर्ट पर महिला संगठनों ने प्रदर्शन किया। कोर्ट पर प्रदर्शन असामान्य घटना है। ऊपर से उन्नाव कांड की पीड़िता ने सरेआम जजों पर “पैसा खाने” का आरोप लगाया। यह सीधे तौर पर न्यायालय की अवमानना है। व्यवस्था यही है कि न्यायिक फैसलों की खामियां गिनाई जा सकती हैं या उनके तर्कहीन होने की बात कही जा सकती है, मगर सीधे जज के इरादे पर संदेह नहीं जताया जा सकता। मगर अब भारत में यह भी होने लगा है। कुछ ही समय पहले जमीयत- उलेमा-ए- हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद मदनी ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट सरकार के दबाव में काम कर रहा है और अल्पसंख्यकों के हक की रक्षा करने में वह नाकाम रहा है।

ये बातें संकेत देती हैं कि न्यायपालिका की मंशा पर अब सार्वजनिक रूप से प्रश्न खड़े किए जाने लगे हैं। न्यायपालिका वह अंतिम संस्था है, जो संवैधानिक में लोगों के भरोसे को कायम रखती है। हर पीड़ित उससे इंसाफ की उम्मीद रखता है। मगर अब यह मान्यता भी टूट रही है। इस गिरावट को तुरंत रोकना अनिवार्य है। सामान्य स्थिति में राजनीतिक नेतृत्व अपने आपसी मतभेद भूल कर संवैधानिक व्यवस्था के प्रति विश्वास बहाल करने की पहल करता। दुर्भाग्यवश, आज ऐसा होने की न्यूनतम आशा ही है।


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