क्रोनी कैपिटलिज्म में राजसत्ता पसंदीदा पूंजीपतियों को अनुचित लाभ पहुंचाती है। यह लाभ पाने के लिए पूंजीपति सत्ताधारियों को प्रसन्न रखने की कोशिश करते हैं। जबकि इंडिगो प्रकरण में केंद्र असहाय नजर आया और आखिरकार उसने घुटने टेक दिए।
इंडिगो एयरलाइन्स के मामले ने बताया है कि भारत में सरकार और उपभोक्ता दोनों कॉरपोरेट्स- खासकर मोनोपॉली कायम कर चुकी कंपनियों के आगे असहाय हैं। इस प्रकरण का संदेश है कि क्रोनी कैपिटलिज्म जैसी बातें पुरानी पड़ चुकी हैं। क्रोनी कैपिटलिज्म में फिर भी शक्ति प्रमुख रूप से राजसत्ता के पास ही होती है, जो अपने पसंदीदा पूंजीपतियों को अनुचित लाभ पहुंचाती है। यह लाभ पाने के लिए पूंजीपति सत्ताधारियों को प्रसन्न रखने की कोशिश में जुटे रहते हैं। जबकि इंडिगो प्रकरण में केंद्र असहाय नजर आया और आखिरकार उसने घुटने टेक दिए। घटनाक्रम पर ध्यान दीजिएः उड़ान को सुरक्षित बनाने के लिए भारत सरकार ने नियम जारी किए। इंडियो एयरलाइन्स को वे नियम पसंद नहीं आए, क्योंकि उससे उड़ान संचालन की लागत बढ़ने वाली थी। उसने उन नियमों पर आपत्ति जताई, मगर सरकार ने उसे नजरअंदाज किया।
इस बीच इंडिगो टिकट बुकिंग करती रही। उड़ानों को रद्द करने की पूर्व चेतावनी उसने जारी नहीं की। और अचानक रद्द करना शुरू कर दिया। उसे अंदाजा जरूर रहा होगा कि ऐसा होने पर खूब शोर-शराबा होगा- आखिर विमान यात्रा करने वाले लोग प्रभु वर्ग आते हैं, जिनकी नाराजगी सरकार मोल नहीं ले सकती। आखिरकार सरकार को अपने दिशा-निर्देश वापस लेने पड़े। इंडिगो ने बुकिंग महीनों पहले की थी। उस रकम पर उसने ब्याज कमाया। रिफंड उड़ान रद्द होने के बाद किए गए। तो नुकसान में यात्री रहे। मगर इंडिगो के फ्रंट ऑफिस में मौजूद कर्मचारियों पर भड़कने के अलावा कुछ और करना उनके वश में नजर नहीं आया।
नए नियम क्या थे? यही कि पायलटों से आठ घंटे काम लिया जाए और उन्हें पर्याप्त छुट्टी दी जाए। इंडिगो भारत की सबसे बड़ी एयरलाइन है, लेकिन प्रति विमान उपलब्ध पायलटों की संख्या के लिहाज से (प्रति विमान 13) वह पांचवें नंबर आती है। उसके कर्मचारी काम के कैसे बोझ में रहते होंगे, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। स्वाभाविक है कि पायलट एसोसिएशन ने नियम वापस लेने के सरकार के फैसले का विरोध किया है। मगर मोनोपॉली व्यवस्था में जब सरकार अपनी नहीं मनवा सकती, तो कर्मचारी या उपभोक्ता क्या सोचते हैं- इसे कौन पूछता है?
