जीडीपी वृद्धि दर को जितनी मोटी सुर्खियों में दिखाया जाता है, उतने ही ध्यानाकर्षक ढंग से यह नहीं बताया जाता कि यह दर किस आधार पर हासिल हुई और कुल (नोमिनल) और वास्तविक वृद्धि दर में कितना फर्क है।
जुलाई से सितंबर तिमाही के जीडीपी आंकड़ों ने एक तरह का कौतुक पैदा किया है। जिस समय डॉलर की तुलना में रुपये की कीमत गिरने के बावजूद व्यापार घाटा बढ़ने का ट्रेंड हो, 8.2 फीसदी की वृद्धि दर हासिल करना अपने-आप में करिश्माई है। वैसे जीडीपी वृद्धि दर को जितनी मोटी सुर्खियों में दिखाया जाता है, उतने ही ध्यानाकर्षक ढंग से यह नहीं बताया जाता कि यह दर किस आधार पर हासिल हुई और कुल (नोमिनल) और वास्तविक वृद्धि दर में कितना फर्क है। 2024-25 में भारत की जीडीपी वृद्धि दर सात तिमाहियों में सबसे निम्न स्तर पर रही थी। स्पष्टतः उस निम्न आधार के कारण ताजा दर काफी ऊंची नजर आती है।
इस बार नोमिनल जीडीपी 8.07 प्रतिशत दर्ज हुई। सरकार ने इससे 0.5 प्रतिशत मुद्रास्फीति दर को घटाया, इसलिए वास्तविक जीडीपी वृद्धि दर 8.2 फीसदी बताई गई है। मगर दूसरी तिमाही में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति दर 1.9 प्रतिशत थी। पहले के चलन के तहत अगर नोमिनल दर को इससे डिफ्लेट किया जाता (यानी इसे घटाया जाता), तो जीडीपी वृद्धि दर 6.3 प्रतिशत नजर आती। बहरहाल, ये सब आंकड़ों की बातें हैं। उन्हीं आंकड़ों का, जिन्हें जुटाने की विधि, आधार वर्ष, और अन्य खामियों को कारण बताते हुए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने सी ग्रेड में डाल दिया है। आईएमएफ के मुताबिक भारत के राष्ट्रीय खाता की संख्याओं में ऐसी खामियां हैं, जिनकी वजह से अर्थव्यवस्था के वास्तविक प्रदर्शन की निगरानी बाधित हो जाती है।
उसने ध्यान दिलाया है कि भारत के संदर्भ में जीडीपी को मापने के दोनों तरीकों- आय की गणना और खर्च की गणना- से आने वाली संख्या में ठोस फर्क आ जाता है। भारत में जीडीपी सरकार, जनता और कंपनियों की आय के आधार पर मापी जाती है। आदर्श स्थिति वह होती है कि जब उनके खर्च को आधार बनाया जाए, तब भी संख्या कमोबेस समान रहे। मगर भारत में ऐसा नहीं हो रहा है। इससे जीडीपी आंकड़ा समस्याग्रस्त हो जाता है। यह गंभीर टिप्पणी है। इसका परिणाम होगा कि भारत की ऊंची वृद्धि दर को अनेक हलकों में संदेश की निगाह से देखा जाएगा।
