तेजस्वी नीतीश की घोषणाओं की आलोचना कर रहे हैं। मगर बात वोट खरीदने की हो, तो जुबानी शाहखर्ची में वे भी कोताही नहीं बरतते। और यह कहानी देश भर की है। इस होड़ में जनता के भविष्य की बलि चढ़ रही है।
बिहार में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले जिन 75 लाख परिवारों के पास मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना के तहत 10 हजार रुपये पहुंचे हैं, बेशक उनके यहां इस बार त्योहारों की रंगत खासी बढ़ गई होगी। अगली किस्तों में लाखों अन्य महिलाओं के खातों में इतनी ही रकम जाएगी। राज्य सरकार ने इस योजना पर 20,000 करोड़ रुपये खर्च करने का इरादा जताया है। साथ ही नीतीश कुमार सरकार ने लगभग 15 ऐसे निर्णय लिए हैं, जिनसे 50 हजार करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ सालाना बजट पर पड़ेगा। बिहार का पिछला बजट 3.15 लाख करोड़ रुपये का था। मुख्यमंत्री की कुल हालिया घोषणाओं से उसके लगभग 15 प्रतिशत बराबर की रकम खर्च होगी। आरजेडी नेता तेजस्वी यादव के मुताबिक चुनाव से पहले केंद्र और राज्य सरकारों ने राज्य के लिए जो योजनाएं घोषित की हैं, वे सात लाख करोड़ रुपये से अधिक की हैं।
यादव का सवाल वाजिब है कि आखिर पैसा कहां से आएगा? हाल में सीएजी ने राज्यों पर मौजूद कर्ज के बारे में रिपोर्ट पेश की है। उसके मुताबिक कोरोना काल के बाद से बिहार पर कर्ज दोगुना हो गया है। यह राज्य के सकल घरेलू उत्पाद के 39 फीसदी तक पहुंच चुका है। फिलहाल जो तोहफे बांटे जा रहे हैं, चूंकि उनके बारे में यह नहीं बताया गया है कि अतिरिक्त राजस्व कहां से जुटाया जाएगा, तो अनुमान लगाया जा सकता है कि ऐसा कर्ज लेकर होगा। याद रखना चाहिए कि ऋण के साथ ब्याज और मूल धन दोनों चुकाने की सालाना चुनौती बढ़ती जाती है।
नतीजतन, पूंजीगत एवं बुनियाद मजबूत करने वाली कल्याणकारी योजनाओं में निवेश की क्षमता सिकुड़ती जाती है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारतीय राजनीति में आज इसकी चिंता किसी को नहीं है। तेजस्वी भले नीतीश की घोषणाओं की आलोचना कर रहे हों, मगर जब बात वोट खरीदने की हो, तो जुबानी शाहखर्ची में वे भी कोई कोताही नहीं बरतते। और यह कहानी देश भर की है। मतदाताओं को जश्न के फ़ौरी मौके देकर नेता अपने सियासी भविष्य को सुरक्षित कर रहे हैं। लेकिन इस होड़ में जनता के दूरगामी हितों की बलि भी चढ़ रही है।
