कागज़ पर सरकार ने कड़े कदमों का एक पूरा ढांचा बनाया है, लेकिन ज़मीनी असर सीमित है। यह वही कहानी है, जिसमें ज़िम्मेदारी सबकी है और जवाबदेही किसी की नहीं। बेबसी महज़ संसाधन समस्या नहीं, राजनीतिक प्राथमिकताओं की भी कहानी है। चुनावी बहस में प्रदूषण अभी भी हाशिये का मुद्दा है। इसलिए ‘आपातकालीन’ प्रेस कांफ्रेंस तो दिखती हैं, लेकिन संरचनात्मक सुधारों का साहस नदारद है।
हर साल की तरह दिल्ली–एनसीआर की हवा फिर ज़हरीली है। दिसंबर 2025 में एक बार फिर AQI प्लस श्रेणी तक पहुंचा, जिसने सरकार की नीतियों, इच्छाशक्ति और क्षमता—तीनों पर कठोर सवाल खड़े कर दिए हैं। प्लेटफॉर्म के आंकड़े दिखाते हैं कि दिसंबर के पहले पखवाड़े में दिल्ली का औसत AQI लगातार ‘बहुत खराब’ (259–2) के बीच रहा। 13–14 दिसंबर को कई इलाकों में AQI 450 से ऊपर चला गया, जिससे हवा ‘सीवियर’ और कुछ घंटों ्लस’ श्रेणी में दर्ज हुई। वहीं सरकार यह तर्क दे रही है कि 2016 की तुलना में ‘बेहतर रुझान’ दिख रहे हैं और औसत AQI कुछ घटा है, लेकिन नागरिक के फेफड़ों के लिए यह सांख्यिकी नहीं, सांस की लड़ाई है।
कागज़ पर सरकार ने कड़े कदमों का एक पूरा ढांचा बनाया है, लेकिन ज़मीनी असर सीमित है। यह वही कहानी है, जिसमें ज़िम्मेदारी सबकी है और जवाबदेही किसी की नहीं। ग्रेप की पाबंदी(GRAP), स्मॉग टावर, एंटी–स्मॉग गन, पानी का छिड़काव, निर्माण पर रोक, स्कूलों की छुट्टियाँ, डीज़ल गाड़ियों पर पाबंदी जैसे ‘आपात’ उपाय हर साल दोहराए जा रहे हैं, पर हवा हर सर्दी में उतनी ही घुटन भरी रहती है। केंद्र और राज्य सरकारें पराली, उद्योगों, थर्मल पावर, डीज़ल जेनरेटर, निर्माण धूल और वाहनों की भूमिका पर एक-दूसरे को कटघरे में खड़ा करती हैं, पर कलस्टर का सख्त नियमन—धीमी रफ्तार में चलते हैं। यह बेबसी महज़ संसाधन समस्या नहीं, राजनीतिक प्राथमिकताओं की भी कहानी है। चुनावी बहस में प्रदूषण अभी भी हाशिये का मुद्दा है। इसलिए ‘आपातकालीन’ प्रेस कांफ्रेंस तो दिखती हैं, लेकिन संरचनात्मक सुधारों का साहस नदारद है।
दिल्ली–एनसीआर की हवा की कहानी अरावली की पहाड़ियों और जंगलों से कटकर नहीं देखी जा सकती। अरावली दिल्ली–एनसीआर के लिए प्राकृतिक फेफड़े और धूल–तूफानों के खिलाफ ढाल हैं। सुप्रीम कोर्ट ने हाल में केंद्र सरकार की ऊंचाई–आधारित परिभाषा को स्वीकार करते हुए अरावली हिल्स और रेंज की नई परिभाषा तय की है और साथ ही ्लान’ तैयार होने तक नई खनन लीज़ पर रोक लगाई है। कोर्ट ने कहा है कि कोर/इनवायलेट और पर्यावरणीय रूप से संवेदनशील इलाकों में खनन पर सख्त पाबंदियाँ रहेंगी, और सिर्फ वैज्ञानिक रूप से उचित अपवादों में ही सीमित खनन की इजाज़त दी जा सकेगी।
यहीं से भ्रम और चिंता दोनों शुरू होते हैं। विशेषज्ञों का तर्क है कि ऊँचाई–आधारित परिभाषा से अरावली का बड़ा हिस्सा, जो भूगर्भीय और पारिस्थितिक दृष्टि से पहाड़ी तंत्र का भाग है, कानूनी सुरक्षा से बाहर हो सकता है, जिससे खनन और रियल एस्टेट के लिए दरवाज़ा खुलने का खतरा है। अगर अरावली के ‘निम्न’ क्षेत्र और वनांचल में खनन या निर्माण बढ़ता है तो यह न सिर्फ धूल और पार्टिकुलेट मैटर को बढ़ाएगा, बल्कि उन प्राकृतिक वायु–मार्गों को भी बाधित करेगा जो राजस्थान की ओर से आने वाली धूल–भरी हवाओं को रोकते और फ़िल्टर करते हैं। सरकार जहाँ ‘सस्टेनेबल माइनिंग’ और ‘रोज़गार–विकास’ की दलील दे रही है, वहीं पर्यावरणविद इसे दिल्ली–एनसीआर के दीर्घकालिक वायु–सुरक्षा के खिलाफ एक खतरनाक झरोखा मान रहे हैं।
हर साल सर्दियाँ आते ही दिल्ली–एनसीआर गैस–चैंबर क्यों बन जाता है? इस पर वैज्ञानिक सहमति अब काफी स्पष्ट है, यह कोई ‘रहस्य’ नहीं, बल्कि कई कारकों का संयुक्त परिणाम है। सर्दियों में ‘टेम्परेचर इनवर्ज़न’ यानी ऊपर गरम और नीचे ठंडी हवा की परत बनती है, जो ज़मीन के पास प्रदूषकों के ऊपर ढक्कन की तरह जम जाती है। न हवा ऊपर उठती है, न जहरीले कण बिखर पाते हैं। हवा की रफ्तार कम, नमी ज़्यादा, बारिश नगण्य—ये सभी मिलकर दिल्ली को एक ऐसी घाटी जैसा बना देते हैं जहाँ प्रदूषण ‘स्टोर’ होता रहता है और सर्दी उसे ‘लॉक’ कर देती है।
उत्सर्जन के स्रोत भी बहुस्तरीय हैं और यही नीति–निर्माताओं की सबसे बड़ी परीक्षा है। पंजाब, हरियाणा, पश्चिम यूपी में पराली जलाना अक्टूबर–नवंबर में प्रदूषण के ‘स्पाइक’ को तेज़ करता है, कभी–कभी दिल्ली के PM2.5 में 30–40 फीसदी तक योगदान देता है, लेकिन पूरे सीज़न की हवा सिर्फ पराली से खराब नहीं रहती। वाहनों का धुआँ, कोयला–आधारित बिजली घर, औद्योगिक इकाइयाँ, ईंट–भट्टे, ठोस कचरा जलाना, निर्माण–धूल और दिल्ली–एनसीआर के भीतर की डीज़ल–निर्भर अर्थव्यवस्था मिलकर साल भर का ‘बेसलाइन’ प्रदूषण बनाती है, जो सर्दियों में मौसम की वजह से खतरनाक स्तर पर दिखाई देता है।
क्लाइमेट वैज्ञानिक और पर्यावरण विशेषज्ञ साफ कह रहे हैं कि दिल्ली का संकट ‘एपिसोडिक’ नहीं, स्ट्रक्चरल है—यानी यह सिर्फ पराली या कुछ हफ्तों तक चलने वाली ठंड का नहीं, बल्कि एक गलत तरीके से बढ़े हुए शहरी–औद्योगिक मॉडल का परिणाम है। दिल्ली–एनसीआर की ताज़ा AQI स्थिति यह संकेत देती है कि अब ‘फायर–फाइटिंग’ नहीं, ‘सिस्टम–रीडिज़ाइन’ की ज़रूरत है। प्रदूषण–पॉलिटिक्स का रुख अभी तक आरोप–प्रत्यारोप पर अटका हुआ है—केंद्र बनाम राज्य, पंजाब–हरियाणा बनाम दिल्ली, पर्यावरण मंत्रालय बनाम परिवहन–उद्योग लॉबी—और इस बीच नागरिक का फेफड़ा सबसे कमज़ोर और सबसे अकेला पक्ष बना हुआ है। अरावली की परिभाषा से लेकर खनन नीति, पराली प्रबंधन से लेकर सार्वजनिक परिवहन, एनर्जी ट्रांज़िशन से लेकर शहरी नियोजन—सभी मोर्चों पर ऐसे फैसलों की ज़रूरत है जो GDP नहीं, जन–स्वास्थ्य को प्राथमिक सूचक बनाएँ।
अगर अरावली को कागज़ पर सिकोड़ दिया गया, अगर ‘सस्टेनेबल माइनिंग’ के नाम पर पहाड़ियों की आखिरी हरियाली भी कंक्रीट और खदानों के हवाले कर दी गई, तो दिल्ली–एनसीआर की सर्दियाँ सिर्फ ठंडी नहीं, और भी ज़्यादा घुटन भरी, बीमार और अमानवीय हो जाएँगी। क्या सरकारें हवा को भी ‘जगह की राजनीति’ और ‘फेडरल झगड़े’ के बीच बांटती रहेंगी, या वह दिन आएगा जब दिल्ली–एनसीआर की सांस को भी उतनी ही गंभीरता से लिया जाएगा, जितनी स्टॉक मार्केट के सूचकांकों को दी जाती है? जवाब अभी धुंध में छिपा है—ठीक उसी तरह, जैसे हर सर्दी दिल्ली का आसमान।
