फ़िल्म का मूल संघर्ष प्यार और ऑब्सेशन की वह महीन रेखा है, जिसे पार करते ही प्रेम विष में बदल जाता है।… इस फ़िल्म की कहानी में आधुनिक रिश्तों में इमोशन की एक दिलचस्प यात्रा है। तब प्यार किस तरह की कसौटी से गुज़रता है जब दो प्यार करने वालों के रिश्ते में इमोशनल बैगेज, पास्ट ट्रॉमा, क्लास डिफरेंस और समाज की उम्मीदें मिल जाती हैं?
सिने-सोहबत
आज के ‘सिने-सोहबत’ में ताज़ातरीन फ़िल्म ‘तेरे इश्क में’ के बारे में विमर्श करते हैं। आनंद एल राय के निर्देशन में बनी ये फ़िल्म सिर्फ एक रोमांटिक ड्रामा नहीं, बल्कि एक प्रायोगिक प्रेम कहानी की कोशिश है जो प्यार, जुनून, क्लास डिवाइड, मनोविज्ञान और सामाजिक संरचनाओं के बीच जुझारू रिश्तों की परतों को उजागर करना चाहती है। ‘तेरे इश्क में’ सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि एक सामाजिक और भावनात्मक दस्तावेज़ भी है। फ़िल्म का मूल संघर्ष प्यार और ऑब्सेशन की वह महीन रेखा है, जिसे पार करते ही प्रेम विष में बदल जाता है।
फ़िल्म का हीरो शंकर (मुख्य अभिनेता धनुष) सिर्फ़ एक प्रेमी नहीं, बल्कि एक ऐसा व्यक्ति है, जिसने अपने बचपन, अकेलापन और निजी असुरक्षाओं को प्यार के माध्यम से सुलझाने की कोशिश की। बाद में जब प्यार के साथ जुनून, पजेसिव्नेस और असुरक्षा जुड़ते हैं, तो वह टॉक्सिक हो जाता है।
दूसरी ओर, महिला किरदार मुक्ति (कृति सेनन) जो कि एक एक पढ़ी लिखी, मनोविज्ञान की छात्रा है, शुरुआत में इस रिश्ते को महज़ एक प्रयोग के रूप में देखती है। उसके लिए यह प्रेम नहीं, शोध है: “कॉन्सेप्ट ऑफ़ वायोलेंस एज़ डिज़ीज़”। धीरे धीरे, जब शंकर की भावनाएं प्रेम में बदल जाती हैं, तो मुक्ति की तार्किकता, समानुभूति और अकादमिक समझ उस जुनूनी प्यार के आगे लड़खड़ा जाती है।
इस फ़िल्म की कहानी में आधुनिक रिश्तों में इमोशन की एक दिलचस्प यात्रा है। तब प्यार किस तरह की कसौटी से गुज़रता है जब दो प्यार करने वालों के रिश्ते में इमोशनल बैगेज, पास्ट ट्रॉमा, क्लास डिफरेंस और समाज की उम्मीदें मिल जाती हैं?
‘तेरे इश्क में’, इस संघर्ष को सिर्फ संवादों तक सीमित नहीं रखती। उसके नज़रिए, कैमरा वर्क, एडिटिंग, लोकेशन सब मिलकर बताते हैं कि ऑब्सेसिव प्रेम केवल आतंरिक नहीं है, बल्कि वह सामाजिक संरचना, हमारे बड़े होने के तरीके, माहौल और बचपन के किसी ज़ख्म का परिणाम भी हो सकता है।
‘तेरे इश्क में’ मनोवैज्ञानिक जटिलताओं और इमोशनल ट्रॉमा जैसी अवधारणाओं के संदर्भ में प्रेम कहानी के साथ एक ज़रूरी प्रयोग किया गया है।
शुरुआत में, नायिका मुक्ति मनोविज्ञान के रिसर्च करती है। वह मानती है कि हिंसा एक बीमारी की तरह है जिससे उचित थेरेपी, काउंसलिंग, एम्पथी द्वारा निजात मिल सकती है। यह एक साहसिक कदम है क्योंकि हिंदी फिल्मों में अक्सर मनोवैज्ञानिक परतों को काफ़ी सतही रखा जाता है, लेकिन हिमांशु शर्मा और नीरज यादव की इस पटकथा ने पहली बार उसे केंद्र में रखा है।
ये फ़िल्म हमें सवाल देती है कि क्या बॉलीवुड अभी ऐसी कहानियों को ज़िम्मेदारी से पेश करने को तैयार है, जो मनोवैज्ञानिक यथार्थवाद के साथ हों या फिर वह सतही मेलोड्रामा की ओर लौट जाती है? ये फ़िल्म सिर्फ़ दो व्यक्तियों के बीच का इश्क नहीं दिखाती, बल्कि यह उनकी सामाजिक, आर्थिक पृष्ठभूमि, क्लास डिवाइड और आइडेंटिटी क्राइसिस को भी रेखांकित करती है।
शंकर और मुक्ति का प्रेम कॉलेज से शुरू होकर ज़िंदगी के कई जटिल पक्षों तक जाता है जिसमें प्यार को सिर्फ व्यक्तिगत अहसास ही नहीं, बल्कि सामाजिक संघर्ष की रीढ़ बनना पड़ता है। ऐसे सेट अप में, किरदारों का चयन, उनकी प्रतिक्रिया, उनके संघर्ष सिर्फ़ भावनात्मक नहीं, बल्कि सामजिक दबाव और पहचान के संकट से भी प्रभावित होती हैं। फ़िल्म ये दिखाने की कोशिश करती है कि “प्यार के फैसले व्यक्तिगत नहीं, सामाजिक होते हैं”।
संगीतकार एआर रहमान ने अपने संगीत के ज़रिए फ़िल्म को भावनात्मक लेयरिंग देने की कोशिश की है जो काफी प्रभावी हैं। इस फ़िल्म के सभी गानों के गीतकार हैं इरशाद क़ामिल।
‘तेरे इश्क में’ सिनेमाई और सामाजिक दृष्टि से एक मिश्रित अनुभव है। यह एक साहसी फ़िल्म है जो प्रेम कहानी के बहाने समाज के मनोविज्ञान टटोलने की कोशिश तो करती ही है, साथ ही मनोरंजन से ऊपर उठ कर विवाद, विमर्श, इंट्रोस्पेक्शन की ओर भी बढ़ती है।
अगर आज हमारा बॉलीवुड और समाज उन कहानियों को देखना चाहता है जो सिर्फ खुश होने वाले नहीं, बल्कि कॉम्प्लिकेटेड और रियलिस्ट रिश्तों पर आधारित हों तो ‘तेरे इश्क में’ एक शानदार कोशिश है। प्यार की पुरानी परिभाषाएं बदल रही हैं और ‘तेरे इश्क में’ इन बदलते रियलिटीज़ को पर्दे पर ला रही है।
लेकिन बदलाव सिर्फ दिखाना ही पर्याप्त नहीं उसे संभालने के लिए समझ, संवेदनशीलता और जिम्मेदारी जरूरी है।
ये फिल्म समाज में कई ज़रूरी मुद्दों पर खुली चर्चा और आत्म निरीक्षण की जरूरत पर विमर्श की बख़ूबी शुरुआत करने में समर्थ है ।
ज़ाहिर है फिल्में सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि मानसिकता, सामाजिक दृष्टिकोण और नज़रिए बदलने का जरिया भी हो सकती हैं।
कई बार ये फ़िल्म इस बात की याद भी दिलाती है कि इसी टीम ने ‘रांझणा’ बनाई थी और कहीं न कहीं दर्शक इसकी तुलना उस फ़िल्म से भी करते हुए नज़र आ सकते हैं लेकिन अगर बारीकी से देखा जाए तो इसमें आज के दौर में रिश्तों की छटपटाहट को काफ़ी सावधानी से प्रस्तुत किया गया है।
आनंद एल राय की दो फिल्मों, ‘तेरे इश्क में’ और ‘रांझणा’ में उनके फ़िल्म बनाने के दृष्टिकोण की परस्पर तुलना करना रोचक है।
रांझणा (2013) एक क्लासिक प्रेमकथा है, जिसमें ग्रामीण पृष्ठभूमि, सामाजिक बाधाएं और शिक्षा के महत्व को दिखाया गया है। इस फिल्म में डीटेल्ड कैरेक्टर बिल्डिंग और यथार्थवादी संवाद प्रमुख हैं। कहानी में प्रेम, संघर्ष और व्यक्तिगत विकास का मिश्रण दर्शकों को भावनात्मक रूप से जोड़ता है। अभिनय में दीपिका पादुकोण और दिव्यांशु राठौड़ की रियलिस्टिक प्रस्तुति फिल्म की ताकत है।
वहीं ‘तेरे इश्क में’ आधुनिक शहरी रोमांस की कहानी प्रस्तुत करती है। इसमें शहरी प्रेम की जटिलताओं, रिश्तों में गतिशीलता और डिजिटल युग की सामाजिक असमानताओं को उभारा गया है। कहानी में भावनाओं की तीव्रता और रोमांटिक ड्रामा को हाई-टेक विज़ुअल्स और युवा-उन्मुख संगीत के माध्यम से संवेदनशीलता दी गई है। धनुष और कृति सेनन की केमिस्ट्री फिल्म को युवा दर्शकों के लिए आकर्षक बनाती है।
जहां ‘रांझणा’ संवेदनशील, धीमी-धीमी और भावनात्मक रूप से मजबूत है, वहीं ‘तेरे इश्क में’ तीव्र, ग्लैमरस और आधुनिक प्रेम पर केंद्रित है। दोनों फिल्मों में प्रेम है, लेकिन ‘रांझणा’ में यह सामाजिक और मानवीय संघर्ष के साथ जुड़ा है, जबकि ‘तेरे इश्क में’ व्यक्तिगत और रोमांटिक अनुभव के इर्द-गिर्द घूमता है।
‘तेरे इश्क में’ एक आदर्श फिल्म हो न हो लेकिन वह एक साहसिक, विवादास्पद, मर्मस्पर्शी कोशिश ज़रूर है जो बॉलीवुड की पारंपरिक प्रेम कहानियों से एक कदम आगे जाती है और दर्शकों, समीक्षकों, समाज सबको सोचने पर मजबूर करती है।
आपके नज़दीकी सिनेमाघर में है। देख लीजिएगा। (पंकज दुबे मशहूर बाइलिंगुअल उपन्यासकार और चर्चित यूट्यूब चैट शो ‘स्मॉल टाउन्स बिग स्टोरीज़’ के होस्ट हैं।)
