केरल सरकार के दावे की स्वतंत्र पुष्टि की जरूरत बनी हुई है, इसके बावजूद यह कहा जाएगा कि एलडीएफ सरकार neo-liberal fundamentalism से निकल कर एक वास्तविक एवं बुनियादी समस्या को देखने और समझने की ओर आगे बढ़ी है। इसलिए उसके दावे पर गंभीर चर्चा एवं बहस की जरूरत है, ताकि देश उस वैचारिक गतिरोध से निकल सके, जिसमें सामान्यतः पिछले साढ़े तीन दशक और विशेषतः गुजरे 11 साल की सरकारी नीतियों ने उसे जकड़ रखा है।
केरल की लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) सरकार का राज्य में चरम गरीबी को खत्म कर देने का दावा महत्त्वपूर्ण खबर है। बल्कि भारत में इसे हाल के वर्षों की सबसे महत्त्वपूर्ण सकारात्मक खबर भी कहा जा सकता है। कुछ विश्लेषकों ने इसे ऐतिहासिक उपलब्धि कहा है, तो इस बात से सहज ही सहमत हुआ जा सकता है।
पिनराई विजयन की नेतृत्व वाली एलडीएफ सरकार का यह दावा पूर्णतः सच है या नहीं- यह दीगर सवाल है। अगर ये दावा गलत या अधूरा है, तो उसे बेनकाब करने की जिम्मेदारी विपक्ष- यानी कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) की मानी जाएगी। आखिर चुनावी लोकतंत्र में विरोध (to oppose), बेनकाब (to expose) और अपदस्थ करने के लिए लगातार प्रयासरत (to depose) रहने का दायित्व उन दलों को ही सौंपते हैं, जिन्हें वे विपक्ष की बेंचों पर भेजते हैं। गलत दावों को बेनकाब करने की दूसरी जिम्मेदारी मीडिया की है। वैसे, यह दावा इतना बड़ा और दूरगामी महत्त्व का है कि उसे संदेह से परे करने के लिए खुद एलडीएफ सरकार को भी पहल करना चाहिए। अपने दावे के परीक्षण के लिए वह संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम या विश्व बैंक जैसी एजेंसियों के दलों को आमंत्रित कर सकती है।
दावे के सच्चाई संबंधी प्रश्न की चर्चा हमने आरंभ में इसलिए कर ली, क्योंकि ऐसे सवाल उठे हैं। इसके लिए एक आधार खुद एलडीएफ सरकार ने दिया है। केरल को चरम गरीबी से मुक्त घोषित करने के लिए आयोजित समारोह में फिल्म अभिनेताओं को आमंत्रित कर उसने विरोधियों को आलोचना का मौका दिया। विरोधियों ने कहा है कि विधानसभा चुनाव से कुछ महीने किया गया यह दावा एलडीएफ के प्रचार अभियान का हिस्सा है, जिसे परिवर्धित करने के लिए अभिनेताओं को बुलाया गया।
बहरहाल, एलडीएफ सरकार ने केरल में अगर सचमुच चरम गरीबी खत्म कर दी है, तो चुनाव में उसका लाभ उठाने की कोशिश में कोई खोट नहीं ढूंढी जा सकती। विकास और प्रगति के कार्यों के आधार पर चुनाव लड़ना अपेक्षित एवं स्वस्थ प्रवृत्ति मानी जाएगी।
वैसे, विधानसभा चुनाव में इस दावे का क्या असर क्या होगा, यह क्षणिक महत्त्व का प्रश्न है। दूरगामी महत्त्व का मुद्दा यह है कि एक निर्वाचित राज्य सरकार ने चरम गरीबी को खत्म करने का दावा किया है। उसने चरम गरीबी मापने के जो पैमाने तय किए, वे महत्त्वपूर्ण हैँ। उस आधार पर चरम गरीबी से ग्रस्त परिवारों की पहचान और उन्हें इस दुर्दशा से बाहर लाने की उसकी कोशिशें अहम हैं।
साढ़े तीन दशक पहले नव-उदारवादी नीतियों को अपनाए जाने के साथ गरीबी उन्मूलन जैसे मुद्दे राजनीतिक बहस के दायरे से बाहर कर दिए गए। भारत के प्रभु वर्ग एवं ज्यादातर राजनीतिक दलों ने बिना कोई आलोचनात्मक नजरिया अपनाए नव-उदारवादी नीतियों को स्वीकार्य बनाने के लिए गरीबी की गढ़ी गई फर्जी परिभाषा को अपना लिया। यह परिभाषा ‘वॉशिंगटन आम सहमति’ के तहत तैयार इन नीतियों को थोपने वाली संस्थाओं- विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने गढ़ा था। इसके तहत प्रति दिन खर्च क्षमता को गरीबी मापने का आधार बनाया गया। 1।90 डॉलर से बढ़ते हुए यह रकम अब तीन डॉलर तक पहुंच चुकी है, जिसे परचेजिंग पॉवर पैरिटी (पीपीपी) में तब्दील कर देश विशेष के भीतर खर्च क्षमता तय की जाती है।
यूपीए सरकार के समय तत्कालीन योजना के सदस्य सुरेश तेंदुलकर को यह रकम तय करने की जिम्मेदारी दी गई थी। तब उन्होंने गांवों में प्रति दिन 27 रुपये और शहरों में 33 रुपये खर्च क्षमता को गरीबी तय करने का आधार बताया। उचित ही उस फॉर्मूले की कड़ी आलोचना हुई। तब मनमोहन सिंह सरकार ने गरीबी मापने का नया पैमाना बनाने के लिए सी। रंगराजन कमेटी बनाई। मगर इसके पहले कि ये समिति अपनी रिपोर्ट देती, केंद्र में सत्ता बदल गई। वैसे यह कमेटी ने भी प्रति दिन खर्च क्षमता को ही अपने फॉर्मूले का आधार बनाया था।
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में 2014 में केंद्र में नई सरकार बनी, तो गरीबी या ऐसे मूलभूत मुद्दों पर बची-खुची चर्चाएं भी पृष्ठभूमि में धकेल दी गईं। तब से नीति आयोग और भारतीय स्टेट बैंक जैसी सरकारी एजेंसियां अपने ढंग से पैमाने तय कर गरीबी घटने या चरम गरीबी खत्म होने संबंधी हास्यास्पद दावे करती रही हैं। वो तमाम दावे उपभोग या खर्च संबंधी सर्वेक्षणों के आधार पर किए गए हैँ, मगर उस क्रम में भी अपनी सुविधा से आंकड़े गढ़ या चुन लिए गए हैं।
इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखें, तो केरल में हुए प्रयास के महत्त्व को बेहतर समझा जा सकता है। वहां एक्सट्रीम पॉवर्टी इरेडिकेशन प्रोजेक्ट (EPEP) मई 2021 में शुरू किया गया। तब एलडीएफ सरकार दोबारा जनादेश हासिल कर सत्ता में लौटी थी। उसके बाद कैबिनेट की पहली बैठक में उसने अपने मौजूदा कार्यकाल में राज्य को चरम गरीबी से मुक्त करने की योजना को मंजूरी दी। इसके तहत,
- राज्य भर में सर्वेक्षण किया गया। उसके जरिए 64,006 अत्यंत गरीब परिवारों की पहचान की गई।
- राज्य सरकार का दावा है कि इनमें से 59,277 परिवारों की भोजन, स्वास्थ्य, आजीविका, आवास और शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरतों को पूरा कर दिया गया है। राज्य सरकार के मुताबिक बाकी 4,421 परिवारों से या तो संपर्क नहीं हो पाया, या उनके सदस्यों की मृत्यु हो गई या पहचान के दौरान उनकी डुप्लिकेट एंट्री पाई गई थी। डुप्लीकेट एंट्री वाले परिवारों की संख्या 47 बताई गई है।
स्पष्ट है, EPEP के तहत पांच पहलुओं को चरम गरीबी मापने का आधार बनाया गया। ये पहलू हैं- खाद्य, आमदनी, स्वास्थ्य, शिक्षा, और आवास।
एलडीएफ सरकार अप्रैल 2021 में सत्ता में लौटी थी। तब चीन में चरम गरीबी खत्म किए जाने की बात दुनिया भर में सुर्खियों में थी। 25 फरवरी 2021 को राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने चीन को चरम गरीबी से मुक्त घोषित किया था। उसी वर्ष अक्टूबर में संयुक्त राष्ट्र ने इस दावे की पुष्टि की।
यह अनुमान लगाना उचित ही है कि चीन में मिली सफलता से केरल की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार प्रेरित हुई होगी। उसने गरीबी मापने के जो पैमाने अपनाए, उस पर भी चीन में हुए प्रयोग का असर दिखता है।
न्यूनतम आय के अलावा चीन के गरीबी उन्मूलन कार्यकर्म में पांच अन्य संकेतकों को भी शामिल किया गया था। चीन में अपनाए गए फॉर्मूले को One Income, Two Assurances, Three Guarantees (एक आय, दो आश्वासन, तीन गारंटियां) नाम से जाना गया। उस समय चरम गरीबी मापने के लिए प्रति दिन खर्च क्षमता की जो सीमा विश्व बैंक ने तय की थी, पीपीपी आधार पर चीन ने उसे अपनाया। मगर उसने इसमे अपनी कसौटियां भी जोड़ीं। दो आश्वासनों के तहत भोजन और वस्त्र की न्यूनतम उपलब्धता सुनिश्चित की गई। तीन गारंटियों के तहत मेडिकल सेवाएं, पेय जल एवं बिजली सहित सुरक्षित आवास, और बच्चों को नौ वर्ष तक मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा की गारंटी की गई।
चीन में चले अभियान के दौरान बहुआयामी गरीबी सूचकांक (Multidimensional Poverty) पर नए सिरे चर्चा हुई। यह सूचकांक ऑक्सफॉर्ड यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्रियों ने विकसित किया था, जिसे बाद में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) ने अपना लिया। चीन में इस पैमाने को स्थानीय स्वरूप दिया गया। वहां गरीबी का पैमाना तय करने में महत्त्वपूर्ण योगदान करने वाले विशेषज्ञ और रेनमिन यूनिवर्सिटी में राष्ट्रीय गरीबी उन्मूनल अनुसंधान संस्थान के डीन वांग सनगुई ने तब मीडिया से कहा था- ‘बहुआयामी गरीबी को महज अनुसंधान संबंधी एक नजरिया माना जाता है। इसकी जटलिता के कारण अब तक किसी देश ने अपने यहां गरीबी की माप के लिए इस पैमाने को नहीं अपनाया है। मगर पांच संकेतकों को शामिल कर चीन ने गरीबी उन्मूलन में बहुआयामी नजरिया अपनाया है।’
इसकी व्याख्या करते हुए वांग ने कहा- ‘आप कैसे तय करेंगे कि पेय जल सुरक्षित है? सबसे पहली बुनियादी जरूरत यह है कि पानी का अभाव ना हो। दूसरी जरूरत है कि पानी लाने के लिए बहुत दूर ना जाना पड़ेः आने-जाने तथा पानी भरने का समय 20 मिनट से ज्यादा ना हो। आखिरी बात यह कि पानी में हानिकारक तत्व ना हों। पानी सुरक्षित है, इसके लिए हमें जांच रिपोर्टों की जरूरत पड़ती है। ये सब सुनिश्चित करने के बाद ही हम कह सकते हैं कि पेय जल उपलब्ध कराने का प्रतिमान पूरा हुआ है।’ ऐसी ही शर्तें अन्य पहलुओं के साथ भी लागू होती हैँ।
ऑक्सफोर्ड पॉवर्टी एंड ह्यूमन डेवलपमेंट इनिशिएटिव (OPHI) और यूएनडीपी ने जो MPI विकसित किया, उसमें बहुआयामी गरीबी को निम्नलिखित तीन पहलुओं के आधार पर मापा जाता हैः
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- स्वास्थ्य:
- जिसे मापने का आधार पोषण की स्थिति और बाल मृत्यु दर है?
- यानी क्या परिवार में सबको पर्याप्त पोषक भोजन मिलता है और परिवार में गुजरे पांच वर्ष के दौरान किसी बच्चे की मौत हुई है?
- शिक्षा
- क्या 6-14 वर्ष की आयु के सभी बच्चे स्कूल जा रहे हैं?
- क्या परिवार का हर सदस्य पांच साल से अधिक की स्कूली शिक्षा पूरी कर सका है?
- जीवन स्तर:
- क्या स्वच्छ पेय जल उपलब्ध है?
- क्या शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाएं हैं?
- क्या घर में बिजली की सुविधा है?
- क्या घर की संरचना मजबूत और सुरक्षित है?
- क्या स्वच्छ ईंधन (जैसे गैस) उपलब्ध है, और
- क्या परिवार के पास बुनियादी संपत्तियां (जैसे रेडियो, टीवी, साइकिल, मोबाइल) हैं?
गरीबी की माप करते हुए इनमें हर आयाम को समान वेटेज दिया जाता है, और उसके तहत विभिन्न संकेतकों (indicators) को भी वेटेज दिया जाता है। कोई व्यक्ति या परिवार इन संकेतकों में से एक-तिहाई या अधिक में अभावग्रस्त है, तो उसे बहुआयामी पैमाने पर गरीब माना जाता है। अगर अभाव आधे से अधिक संकेतकों में है, तो संबंधित व्यक्ति या परिवार को चरम गरीबी से ग्रस्त माना जाता है।
भारत में नीति आयोग का दावा है कि उसने यूएनडीपी के MPI में संशोधन कर उसे भारत की परिस्थितियों के अनुरूप ढाला है। इस तरह राष्ट्रीय बहुआयामी गरीबी सूचकांक यानी National MPI विकसित किया गया है। इसके तहत मातृ स्वास्थ्य और बैंक खाता को भी शामिल कर लिया गया है।
मगर इस नजरिए में पेच यह है कि स्वास्थ्य एवं शिक्षा सेवाओं, पेय जल, बिजली, मकान भोजन से मिल रहे पोषण आदि की गुणवत्ता एवं वास्तविक उपभोग को नजरअंदाज कर दिया जाता है। गांव में बिजली पहुंच गई, तो समझा जाता है कि सबको बिजली उपलब्ध हो गई है। बैंक खाते में पैसा है या नहीं- अथवा आमदनी की क्या स्थिति है, ये बात ध्यान से बाहर रह जाती है। अब तक भारत में कभी गरीबी की स्थिति जानने के लिए अलग से गणना नहीं कराई गई, इसलिए इस संबंध में वास्तविक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं।
वैसे भारत में गरीबी की माप की शुरुआत 1962 में योजना आयोग द्वारा बनाए एक विशेष कार्य-समूह के साथ हुई थी। तब शहरों और गांवों के लिए अलग-अलग गरीबी रेखा तय की गई और उसके नीचे स्थित आबादी का अनुमान लगाया गया। 1971 में अर्थशास्त्रियों वीएम डांडेकर और एन. रथ ने नेशनल सैंपल सर्वे के आधार पर गरीबी की माप को व्यवस्थित रूप दिया। उन्होंने प्रति व्यक्ति प्रति दिन 2,250 कैलोरी युक्त भोजन की उपलब्धता को इसका आधार बनाया। फिर 1979 में वाईके अलघ समिति बनी, जिसने गरीबी रेखा तय करने में कैलोरी उपलब्धता के साथ-साथ उपभोग खर्च को भी शामिल किया। 1989 में डीटी लकड़वाला कमेटी बनी, जिसने गरीबी मापने के पैमाने में सुधार की अपनी सिफारिशें 1993 में दीं।
लेकिन तब तक भारत नव-उदारवादी रास्ते पर चल पड़ा था, जिसके तहत विश्व बैंक का प्रति दिन खर्च आधारित पैमाना एकमात्र कसौटी रह गया। मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद इस पैमाने को भी पृष्ठभूमि में डाल दिया गया। हर आंकड़ा सरकार की सफलता दिखाने के लिए तैयार करने के इस दौर में नीति आयोग हो या स्टेट बैंक ऑफ इंडिया- उन्होंने मनमाने ढंग से आंकड़ों में तोड़-मरोड़ की है। उसका नतीजा है कि भारत में गरीबी हो या गैर-बराबरी- किसी से संबंधित सरकारी आंकड़ों की आज कोई साख नहीं बची है।
केरल में हुए प्रयास को इस बड़े पसमंजर में देखना चाहिए। बेशक, केरल सरकार के दावे की स्वतंत्र पुष्टि की जरूरत बनी हुई है, इसके बावजूद यह कहा जाएगा कि एलडीएफ सरकार neo-liberal fundamentalism से निकल कर एक वास्तविक एवं बुनियादी समस्या को देखने और समझने की ओर आगे बढ़ी है। इसलिए उसके दावे पर गंभीर चर्चा एवं बहस की जरूरत है, ताकि देश उस वैचारिक गतिरोध से निकल सके, जिसमें सामान्यतः पिछले साढ़े तीन दशक और विशेषतः गुजरे 11 साल की सरकारी नीतियों ने उसे जकड़ रखा है।
