स्कन्द पुराण कहता है कि दीपक सूर्य का अंश है; इसलिए हर दीप जलाना सूर्य की ज्योति को अपने जीवन में उतारने का संकल्प है। यही “आत्मदीपो भव” — स्वयं को प्रकाशमान बनाने की साधना है। भारतीय जीवन में अग्नि और प्रकाश को सदा दिव्यता का प्रतीक माना गया है। दीपावली उसी वैदिक भावना की अभिव्यक्ति है। यह पर्व जितना धार्मिक है, उतना ही सामाजिक और आर्थिक भी।
दीपावली भारत की उन पर्व परंपराओं में है जो वैदिक संस्कृति के सर्वोच्च आदर्शों — सत्य, प्रकाश और प्रेम — को जनमानस तक पहुँचाती हैं। यह केवल दीपों का उत्सव नहीं, बल्कि असत्य से सत्य की, अंधकार से प्रकाश की और मृत्यु से अमरत्व की यात्रा का प्रतीक है। यही भारतीय जीवन दृष्टि का सार है — कि मनुष्य अपने कर्म, विचार और आचरण से ज्योतिष्मान बने, आत्मा का दीप जलाए और मोक्ष का अधिकारी हो।
दीपावली भारत की उस वैदिक संस्कृति का पर्व है, जो असत्य से सत्य, अंधकार से प्रकाश और मृत्यु से अमरत्व की ओर जाने की प्रेरणा देता है। यह केवल दीपों का त्योहार नहीं, बल्कि भारतीय जीवनदर्शन की आत्मा का उत्सव है — वह जीवनदर्शन जो मनुष्य को आत्मज्योति से आलोकित होकर मोक्ष की दिशा में अग्रसर होने का संदेश देता है।
भारत की वैदिक परंपराएँ और शाश्वत सांस्कृतिक मूल्य सदियों से मानव को सत्य, प्रेम, उत्साह और विश्वबंधुत्व के भाव में जोड़ते रहे हैं। दीपावली इसी परंपरा का उज्ज्वल प्रतीक है। यह वह समय है जब पूरा समाज स्वच्छता, स्फूर्ति, और नवप्रेरणा से भर जाता है। दीपों की झिलमिलाहट के साथ हृदयों में भी प्रकाश जगता है, और हर घर में यह विश्वास पुनर्जागृत होता है कि अंधकार चाहे जितना गहरा हो, प्रकाश अंततः विजय पाता है।
भारतीय पंचांग के अनुसार कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को दीपोत्सव मनाने की प्राचीन परंपरा है। यह वह रात्रि होती है जब सूर्य दक्षिणायन से लौटते हुए भूमध्य रेखा के उत्तर की ओर गति करता है। ज्योतिषीय दृष्टि से यह शरद ऋतु की पहली अमावस्या होती है — सबसे अंधेरी और ठंडी रात। इसी अंधकार को रोशन करने के लिए दीपक जलाए जाते हैं। शरद पूर्णिमा की जगमगाती चाँदनी के बाद यह अमावस्या मानो आत्मा को परीक्षा में डालती है, कि क्या वह भीतर से उजाला खोज सकती है।
इसलिए भारतीय मन से सहज ही प्रार्थना फूट पड़ती है —
“असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्माऽमृतं गमय।”
यह केवल प्रार्थना नहीं, जीवन का लक्ष्य है — असत्य पर सत्य की, अंधकार पर प्रकाश की, और मृत्यु पर अमरता की विजय।
दीपावली के दिन जब असंख्य दीप जलते हैं, तो हर दिशा उजास से भर जाती है। उस आलोक में धर्म, अध्यात्म और सामाजिक जीवन का सौंदर्य एक साथ झिलमिलाता है। घर-घर की सफाई केवल बाहरी स्वच्छता नहीं, अंतःकरण की निर्मलता का प्रतीक होती है। जैसे घर का कूड़ा बाहर किया जाता है, वैसे ही मन के विकार — क्रोध, ईर्ष्या, लोभ, द्वेष — को भी बाहर करने का संकल्प लिया जाता है।
स्कन्द पुराण में दीपक को सूर्य का अंश कहा गया है — वह ऊर्जा और जीवन का दाता है। जब हम दीप जलाते हैं, तो मानो उस अनंत सूर्य से प्रकाश उधार लेते हैं। यह केवल घर की दीवारों पर नहीं, आत्मा की दीवारों पर रोशनी करता है। यही कारण है कि यह पर्व “आत्मदीपो भव” — “स्वयं अपने दीप बनो” — की प्रेरणा देता है।
योग, वेदांत और सांख्य दर्शन में कहा गया है कि यह शरीर और मन तो क्षणभंगुर हैं, किंतु आत्मा शुद्ध, अनंत और शाश्वत है। दीपावली इसी आत्मज्योति के जागरण का प्रतीक है। जब दीपक जलता है, तो वह बताता है कि भीतर की ज्योति ही सच्चा प्रकाश है — वही ज्ञान है, वही सत्य है। यह पर्व हमें भीतर के अंधकार पर विजय पाने की याद दिलाता है — कि असत्य पर सत्य, बुराई पर अच्छाई, और निराशा पर आशा ही अंतिम सत्य हैं।दीपावली शब्द ही इस दर्शन को स्पष्ट करता है — “दीप” यानी प्रकाश और “आवली” यानी पंक्ति। दीपावली अर्थात दीपों की श्रृंखला — ज्ञान और उजाले की अनंत शृंखला। यह पर्व अंधकार के क्षय और विवेक के विस्तार का प्रतीक है। भारत में अग्नि और प्रकाश को सदा से दिव्यता का रूप माना गया है; इसलिए दीप जलाना केवल धार्मिक कर्म नहीं, बल्कि आत्मबोध का प्रतीक कर्म है।
पौराणिक ग्रंथों में दीपावली के कई अर्थ मिलते हैं। रामायण के अनुसार यह वह दिन है जब रावण वध के बाद श्रीराम अयोध्या लौटे, और नगरवासियों ने दीपों से उनका स्वागत किया। हर घर में जलते दीपकों ने उस रात को अमर बना दिया। वह केवल राजा की वापसी नहीं थी, बल्कि धर्म की अधर्म पर विजय थी।
पद्म पुराण और स्कन्द पुराण बताते हैं कि समुद्र मंथन के समय कार्तिक अमावस्या के दिन लक्ष्मी प्रकट हुईं — धन, ऐश्वर्य और समृद्धि की अधिष्ठात्री देवी के रूप में। उसी क्षण से यह दिन लक्ष्मी पूजन का प्रतीक बन गया। भागवत पुराण में बताया गया है कि भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध कर हज़ारों कन्याओं को मुक्ति दी। उस विजय की स्मृति में भी दीप जलाए गए — इसीलिए दीपावली से पहले का दिन नरक चतुर्दशी कहलाता है।
कुछ परंपराएँ इसे पांडवों की वापसी से जोड़ती हैं — जब बारह वर्षों के वनवास और एक वर्ष के अज्ञातवास के बाद वे अपने राज्य लौटे। तो कहीं इसे यम और नचिकेता की कथा से जोड़ा गया है — जहाँ सत्य और आत्मज्ञान का दीप अंधकार को पराजित करता है। इस तरह दीपावली केवल एक घटना नहीं, बल्कि विभिन्न युगों में सत्य की पुनर्प्राप्ति का प्रतीक रही है।
भारत जैसे कृषि प्रधान देश में यह पर्व नई फसल और समृद्धि का सूचक भी रहा है। कार्तिक मास में जब खेतों में नई उपज आती है, तब किसान दीप जलाकर धरती को प्रणाम करते हैं। यही कारण है कि इसे शारदीय नवसस्येष्टि भी कहा गया है — अर्थात नई फसल के स्वागत का उत्सव। इसलिए दीपावली धार्मिक होने के साथ-साथ आर्थिक और सामाजिक जीवन के नए अध्याय की शुरुआत का संकेत भी है।
समय के साथ यह पर्व लक्ष्मी पूजन के रूप में अधिक प्रसिद्ध हुआ। आज हर घर में लक्ष्मी और गणेश की पूजा होती है, ताकि धन के साथ बुद्धि और विवेक भी बना रहे। किंतु पौराणिक मान्यता कहती है कि यदि केवल लक्ष्मी को पुकारा जाए और विष्णु का स्मरण न हो, तो लक्ष्मी अपने वाहन उल्लू पर आरूढ़ होकर आती हैं — और याचक की बुद्धि भ्रमित हो जाती है। उल्लू प्रकाश का नहीं, अंधकार का प्रेमी होता है। यही संकेत है कि केवल धन की उपासना अंततः अंधकार लाती है। जब हम ईश्वर — विष्णु — में विश्वास रखकर धन की कामना करते हैं, तभी लक्ष्मी स्थिर होती हैं और सुख देती हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता में भी कहा गया है कि शास्त्र-विधि का पालन करने वाला ही सिद्धि और सुख प्राप्त करता है। इसलिए दीपावली का उत्सव वैदिक परंपरा के अनुसार मनाना ही उसके अर्थ को पूर्ण करता है। यह पर्व हमें याद दिलाता है कि जब तक भीतर का दीप नहीं जलता, तब तक बाहर का प्रकाश अधूरा है।
दीपावली की तमसावृता रात्रि में जब असंख्य दीप जलते हैं, तो वे यही संदेश देते हैं — कि काम, क्रोध, लोभ, अहंकार, ईर्ष्या और द्वेष के अंधकार को मिटाकर ही सच्चा प्रकाश पाया जा सकता है। तभी यह प्रकाश बाहर भी फैलता है। यही दीपावली का सार है — आत्मप्रकाश, आत्मविजय और आत्मज्योति का उत्सव।
आज जब विज्ञान, संपन्नता और शहरी चकाचौंध ने जीवन को भौतिक रूप से रोशन किया है, तब यह पर्व हमें याद दिलाता है कि सच्चा उजाला भीतर से आता है। दीपावली केवल घरों को जगमगाने का नहीं, बल्कि मन और समाज को आलोकित करने का पर्व है। यही वह क्षण है जब मनुष्य स्वयं से पूछता है — क्या मैं उस दीप की तरह बना हूँ जो स्वयं जलकर दूसरों को रोशनी देता है?
यही दीपावली का सच्चा अर्थ है — कि मनुष्य सत्यपथ गामी बने, अपने भीतर के अंधकार को मिटाए और आत्मदीप बने। जब हर हृदय में यह दीप जलेगा, तभी समाज ज्योतिष्मान होगा। यही मानव जीवन का लक्ष्य है — कि वह ज्योति का साधक बने, सत्य का यात्री बने, और अपने जीवन को उस दीपक की तरह जलाए जो सदा दूसरों के लिए रोशनी फैलाता है।
