पौराणिक मान्यतानुसार धनतेरस को स्वास्थ्य के देवता का दिवस माने जाने के कारण आरोग्य, स्वास्थ्य, आयु और तेज के आराध्य देवता भगवान धन्वंतरि से धनतेरस के दिन ॐ धन्वंतरये नमः आदि मन्त्रों से प्रार्थना किये जाने की पौराणिक परिपाटी है। इस दिन समस्त जगत को निरोग कर मानव समाज को दीर्घायुष्य प्रदान करने की विनती की जाती है। पौराणिक ग्रन्थों में भगवान धन्वंतरि आयुर्वेद जगत के प्रणेता तथा वैद्यक शास्त्र के देवता माने गये हैं।
18 अक्टूबर- धनतेरस
जीवों के जीवन की रक्षा, स्वास्थ्य, स्वस्थ जीवन शैली के प्रदाता के रूप में प्रतिष्ठित और विष्णु के अवतार के रूप में पूजित आयुर्वेद जगत के प्रणेता तथा वैद्यक शास्त्र के देवता भगवान धन्वंतरि (धन्वन्तरी) आरोग्य, स्वास्थ्य, आयु और तेज के आराध्य देव हैं। सर्वभय व सर्वरोग नाशक देवचिकित्सक आरोग्यदेव धन्वंतरि प्राचीन भारत के एक महान चिकित्सक थे, जिन्हें देवत्व पद प्राप्त हुआ। धन्वंतरि को भारत में देवताओं का वैद्य माना जाता है। पौराणिक मान्यतानुसार प्राचीन काल में समुद्र मंथन में जगत के कल्याण के लिए निर्गत चौदह रत्नों में ऋषि धन्वन्तरी भी एक हैं। शरद पूर्णिमा को चंद्रमा, कार्तिक कृष्ण द्वादशी को कामधेनु गाय, त्रयोदशी को धन्वंतरी, चतुर्दशी को काली माता और अमावस्या को भगवती लक्ष्मी का सागर से प्रादुर्भाव हुआ था।
इसीलिए दीपावली के दो दिन पूर्व कार्तिक त्रयोदशी को धनतेरस को भगवान धन्वंतरी का जन्म दिन धनतेरस के रूप में मनाया जाता है। धन्वन्तरी ने इसी दिन आयुर्वेद का भी प्रादुर्भाव किया था। इसकी चार भुजायें हैं। उपर की दोंनों भुजाओं में शंख और चक्र धारण किये हुये हैं। जबकि दो अन्य भुजाओं मे से एक में जलूका और औषध तथा दूसरे मे अमृत कलश लिये हुये हैं। इनका प्रिय धातु पीतल माना जाता है। इसीलिये धनतेरस को पीतल आदि अष्टधातु के बर्तन खरीदने की परंपरा प्राचीन काल से कायम है। आयुर्वेद की चिकित्सा करनें वाले वैद्य आरोग्य के देवता धन्वन्तरी ने ही अमृतमय औषधियों की खोज की थी। वेद संहिताओं तथा ब्राह्मण ग्रन्थों में धन्वंतरि के नाम का कहीं उल्लेख भी नहीं है। परन्तु महाभारत तथा पुराणों में विष्णु के अंश के रुप में उनका उल्लेख प्राप्त होता है।
धन्वन्तरी का प्रादुर्भाव समुद्रमंथन के पश्चात निकले कलश से अण्ड के रुप में हुआ है। समुद्र से निकलने के बाद उन्होंने भगवान विष्णु से लोक में अपना स्थान और भाग निश्चित कर देने के लिए कहा। इस पर विष्णु ने कहा कि यज्ञ का विभाग तो देवताओं में पहले ही विभक्त हो चुका है। इसलिए अब यह संभव नहीं है। देवों के बाद आने के कारण तुम देव, ईश्वर नहीं हो। इसलिए तुम्हें अगले जन्म में जब सिद्धियाँ प्राप्त होंगी तब तुम लोक में प्रसिद्ध होगे। तुम्हें उसी शरीर से देवत्व प्राप्त होगा और द्विजातिगण तुम्हारी सर्वविध पूजा करेंगे। आयुर्वेद का अष्टांग विभाजन भी तुम्ही करोगे।
द्वितीय द्वापर युग में तुम्हारा पुन: जन्म होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है। मान्यता है कि इस वरदान के अनुसार पुत्रकाम काशिराज धन्व की तपस्या से प्रसन्न हो कर अब्ज भगवान ने उसके पुत्र के रुप में जन्म लिया और धन्वंतरि नाम धारण किया। धन्व काशी नगरी के संस्थापक काश के पुत्र थे। वे सभी रोगों के निवारण में निष्णात थे। उन्होंने भरद्वाज से आयुर्वेद ग्रहण कर उसे अष्टांग में विभक्त कर अपने शिष्यों में बाँट दिया था। धन्वंतरि की वंश-परम्परा हरिवंश पुराण पर्व 1 अध्याय 29 के आख्यान के अनुसार इस प्रकार है –
काश-दीर्घतपा-धन्व-धन्वंतरि-केतुमान्-भीमरथ (भीमसेन)-दिवोदास-प्रतर्दन-वत्स-अलर्क।
परन्तु विष्णुपुराण में यह थोड़ी भिन्न है- काश-काशेय-राष्ट्र-दीर्घतपा-धन्वंतरि-केतुमान्-भीरथ-दिवोदास।
धन्वन्तरी के सम्बन्ध में पुरातन ग्रन्थों में प्राप्य सन्दर्भों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि वैदिक काल में जो महत्व और स्थान अश्विनी को प्राप्त था वही स्थान पौराणिक काल में धन्वन्तरी को प्राप्त हुआ। अश्विनी अपने हाथ में मधुकलश लिए अवतरित हुए थे, तो धन्वंतरि अमृत कलश लेकर। मान्यता है कि विष्णु संसार की रक्षा करते हैं। इसलिए रोगों से रक्षा करने वाले धन्वंतरि को विष्णु का अंश माना गया। विषविद्या के संबंध में कश्यप और तक्षक का जो संवाद महाभारत में आया है, वैसा ही धन्वंतरि और नागदेवी मनसा का ब्रह्मवैवर्त पुराण 3-51 में आया है। उन्हें गरुड़ का शिष्य कहा गया है –
सर्ववेदेषु निष्णातो मन्त्रतन्त्र विशारद:।
शिष्यो हि वैनतेयस्य शंकरोस्योपशिष्यक:।।
-ब्रह्मवैवर्त पुराण 3-51
धन्वंतरि काशी के राजा महाराज धन्व के पुत्र थे। उन्होंने शल्य शास्त्र पर महत्त्वपूर्ण गवेषणाएं की थीं। उनके प्रपौत्र दिवोदास ने उन्हें परिमार्जित कर सुश्रुत आदि शिष्यों को उपदेश दिए। इस तरह सुश्रुत संहिता किसी एक का नहीं, बल्कि धन्वंतरि, दिवोदास और सुश्रुत तीनों के वैज्ञानिक जीवन का मूर्त रूप है। धन्वंतरि के जीवन का सबसे बड़ा वैज्ञानिक प्रयोग अमृत का है। उनके जीवन के साथ अमृत का कलश जुड़ा है। वह भी सोने का कलश।
अमृत निर्माण करने का प्रयोग धन्वंतरि ने स्वर्ण पात्र में ही बताया था। उन्होंने कहा कि जरा मृत्यु के विनाश के लिए ब्रह्मा आदि देवताओं ने सोम नामक अमृत का आविष्कार किया था। सुश्रुत ने उनके रासायनिक प्रयोग के उल्लेख किये हैं। धन्वंतरि के संप्रदाय में सौ प्रकार की मृत्यु है। उनमें एक ही काल मृत्यु है, शेष अकाल मृत्यु रोकने के प्रयास ही निदान और चिकित्सा हैं। आयु के न्यूनाधिक्य की एक-एक माप धन्वंतरि ने बताई है।
पौराणिक मान्यतानुसार धनतेरस को स्वास्थ्य के देवता का दिवस माने जाने के कारण आरोग्य, स्वास्थ्य, आयु और तेज के आराध्य देवता भगवान धन्वंतरि से धनतेरस के दिन ॐ धन्वंतरये नमः आदि मन्त्रों से प्रार्थना किये जाने की पौराणिक परिपाटी है। इस दिन समस्त जगत को निरोग कर मानव समाज को दीर्घायुष्य प्रदान करने की विनती की जाती है। पौराणिक ग्रन्थों में भगवान धन्वंतरि आयुर्वेद जगत के प्रणेता तथा वैद्यक शास्त्र के देवता माने गये हैं। आदिकाल में आयुर्वेद की उत्पत्ति ब्रह्मा से ही माना गया है। रामायण-महाभारत तथा विविध पुराणों और संस्कृत के अनेक ग्रन्थों में आयुर्वेदावतरण के प्रसंग में भगवान धन्वंतरि का उल्लेख प्राप्य है। भगवान धन्वंतरि प्रथम तथा द्वितीय का उल्लेख पुराणों के अतिरिक्त आयुर्वेद ग्रन्थों में भी कतिपय स्थानों पर मिलता है। आयुर्वेद के आदि ग्रन्थों सुश्रुत्र संहिता चरक संहिता, काश्यप संहिता तथा अष्टांग हृदय में विभिन्न रूपों में उल्लेख मिलता है। इसके साथ ही आयुर्वेदिक ग्रन्थों भाव प्रकाश, शार्गधर तथा उनके ही समकालीन अन्य ग्रन्थों में आयुर्वेदावतरण का प्रसंग अंकित है, जिनमें भगवान धन्वंतरि के संबंध में भी प्रकाश डाला गया है। महाकवि व्यास द्वारा रचित श्रीमद भागवत पुराण में धन्वंतरि को भगवान विष्णु का अंश माना है तथा अवतारों में अवतार कहा गया है।
गरुड़ और मार्कंडेय पुराणों के अनुसार वेद मंत्रों से अभिमंत्रित होने के कारण वे वैद्य कहलाए। विष्णु पुराण में धन्वन्तरि को दीर्घतथा का पुत्र बताते हुए कहा गया है कि धन्वंतरि जरा विकारों से रहित देह और इंद्रियों वाला तथा सभी जन्मों में सर्वशास्त्र ज्ञाता है। भगवान नारायण ने उन्हें पूर्व जन्म में यह वरदान दिया था कि काशिराज के वंश में उत्पन्न होकर आयुर्वेद के आठ भाग करोगे और यज्ञ भाग के भोक्ता बनोगे। इस प्रकार पौराणिक ग्रन्थों में धन्वंतरि की तीन रूपों में उल्लेख मिलता है – समुद्र मन्थन से उत्पन्न धन्वंतरि प्रथम, धन्व के पुत्र धन्वंतरि द्वितीय और काशिराज दिवोदास धन्वंतरि तृतीय। महाभारत, विष्णु पुराण, अग्नि पुराण, श्रीमद भागवत महापुराणादि में भी धन्वंतरि का विस्तृत उल्लेख मिलता है। पौराणिक कथा के अनुसार देव और असुर एक ही पिता कश्यप ऋषि के संतान थे, किन्तु इनकी वंशवृद्धि अत्यधिक अधिक हो जाने के कारण वे अधिकारों के लिए परस्पर संघर्ष किया करते थे। वे तीनों ही लोकों पर राज्याधिकार चाहते थे। असुरों या राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य थे जो संजीवनी विद्या के बल से मृत्यु को प्राप्त असुरों को जीवित कर लेते थे। इसके अतिरिक्त दैत्य दानव माँसाहारी होने के कारण हृष्ट-पुष्ट स्वस्थ तथा दिव्य शस्त्रों के ज्ञाता थे। अतः युद्ध में देवताओं की मृत्यु अधिक होती थी। ऐसे में धन्वन्तरी के अमृत परक औषधि चिकित्सा निःसंदेह ही देवों के लिए वरदान सिद्ध हुए होंगे, इसमें कोई संदेह नहीं।
