वक्त राजनीति की नई परिकल्पना का

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अक्सर देखा गया है कि समाज में नई उम्मीदें जन्म लेती हैं। ऐसी बहसें यह भरोसा बंधाती हैं कि मानव प्रयास से एक अलग, नए किस्म की दुनिया का निर्माण संभव है। जबकि ऐसे प्रयासों के अभाव में लोग हताशा का शिकार होते हैं, जैसा श्रीलंका, नेपाल, या बांग्लादेश में हुआ है। अनुभव यह है कि असंगठित और अराजक विद्रोहों से कुछ नया बनता नहीं है। बल्कि अंततः उन समाजों के प्रभुत्वशाली तबके ही उसका लाभ उठा ले जाते हैं, क्योंकि वे अधिक संगठित होते हैं। दीर्घकाल में इससे समाज में हताशा और गहराती है।

नेपाल की घटनाओं ने चुनाव से शासन तंत्र को जन-वैधता (legitimacy) मिलने की धारणा को फिर कठघरे में खड़ा किया है। समझ यह रही है कि जनता से निर्वाचित प्रतिनिधि तय समयसीमा तक वैध शासक होते हैं। इसलिए माना जाता है कि जब अगला चुनाव आएगा, तो लोग सत्ताधारी दल/नेता के कामकाज पर वोट के जरिए अपना फैसला सुनाएंगे। मगर नए दौर में इस समझ को लगातार नकारा जा रहा है। सिर्फ भारत के पास-पड़ोस को लें, तो गुजरे तीन वर्षों में चार देशों में जन आक्रोश के विस्फोट के कारण निर्वाचित सरकारों को बीच की अवधि में ही सत्ता छोड़नी पड़ी है। दक्षिण एशिया से बाहर देखें, तो 2010 के बाद ऐसी घटनाओं की झड़ी लगी नजर आएगी।

नजर यह आएगा कि चुनावी लोकतंत्र की सीमाएं हर रोज बेनकाब हो रही हैं। और यह सिर्फ विकासशील देशों की कहानी नहीं है। बल्कि यूरोप के विकसित देशों से लेकर उत्तर और दक्षिण अमेरिका तक आप जहां नजर डालें, कुछ समान रुझान वहां नजर आएंगे। इन रुझानों पर विचार करें, तो यह अधिक साफ हो जाता है कि एक समय जो संभावनाएं इस शासन प्रणाली में देखी गई थीं, वो चूकने के कगार पर हैं। उनसे जो उम्मीदें से जोड़ी गई गई थीं, तो वे आज धरातल पर गिरी नजर आती हैं।

संभावना यह थी कि राजनीतिक अधिकारों के संविधान में लिखित वर्णन से नागरिक स्वतंत्रताओं में विस्तार होगा। एक व्यक्ति- एक वोट- समान मूल्य की व्यवस्था होने से ना सिर्फ शासन-तंत्र जवाबदेह बनेगा, बल्कि हर इच्छुक नागरिक को सत्ता तंत्र का हिस्सा बनने का अवसर भी मिलेगा। साथ ही उम्मीद थी कि ये व्यवस्थाएं तब आम जन के जीवन स्तर में निरंतर सुधार को संभव बनाएंगी। आखिर किसी राजनीतिक व्यवस्था की सफलता का पैमाना यही हो सकता है कि वह लोगों की जिंदगी को लगातार बेहतर बना पा रहा है या नहीं। सिर्फ इसी माध्यम से कोई व्यवस्था जनता की निगाह में अपनी वैधता (legitimacy) बनाए रख सकती है।

लोकतंत्र की धारणा अनिवार्य रूप से वयस्क मताधिकार से जुड़ी हुई है- यानी एक उम्र के बाद हर व्यक्ति को मताधिकार मिले। अर्थात इस मामले में नस्ल, मजहब, जाति, लिंग, भाषा या किसी अन्य ऐसे आधार पर भेदभाव ना किया जाए। इस रूप में लोकतंत्र की कथा सिर्फ लगभग सवा सौ साल पुरानी है। 1893 में न्यूजीलैंड पहला देश बना था, जिसने महिलाओं को मताधिकार देने के साथ वयस्क मताधिकार को अपनाया। अपने को आधुनिक लोकतंत्र का जन्मदाता होने दावा करने वाले ब्रिटेन में तो यह सिद्धांत 1928 में अमल में आया। अमेरिका को इस मुकाम पर पहुंचने में 37 साल और लगे। वहां 1965 में पारित मताधिकार कानून के जरिए ब्लैक समुदाय के लोगों को बिना भेदभाव के वोट डालने का हक मिला।

इसलिए जब हम लोकतंत्र की बात करते हैं, तो यह ध्यान में रखना चाहिए कि विकसित पश्चिमी देशों में भी इसका इतिहास ज्यादा पुराना नहीं है। अधिकांश देशों में शुरुआत सीमित मताधिकार से हुई, जब संपत्ति के आधार पर पुरुषों को वोट डालने का अधिकार मिला। महिलाओं को बीसवीं सदी में जाकर ये अधिकार मिला। चूंकि बीसवीं सदी का इतिहास मताधिकार के विस्तार का है, इसलिए उस दौर में आम अहसास यही रहा कि कदम प्रगति की ओर बढ़ रहे हैँ।

इसी सदी के दूसरे दशक में इतिहास की एक अभूतपूर्व घटना हुई, जब 1917 में रूस में बोल्शेविक क्रांति हुई। निर्विवाद रूप से इसे मानव इतिहास में प्रगति की सबसे बड़ी उछाल कहा जा सकता है। मानव इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ, जब एक राज्य ने खुद को श्रमिक वर्ग का प्रतिनिधि बता कर अपनी जन वैधता (legitimacy) का दावा किया। 30 दिसंबर 1922 में सोवियत संघ की स्थापना हुई। एक बिल्कुल अलग अवधारणा, विचार और लक्ष्य पर आधारित यह राज्य दुनिया भर में वंचित समुदायों में अपने अधिकारों के प्रति असाधारण जागरूकता का स्रोत बना।

इस घटनाक्रम ने दुनिया भर में शासन-तंत्र की legitimacy की परिभाषा में नए आयाम जोड़े। राजकाज में अधिकतम संभव जन प्रतिनिधित्व देने के साथ-साथ इस मान्यता को अपनाने की मजबूरी भी वहां बनी कि राज्य-व्यवस्था का दायित्व जन-कल्याण करना भी है। 1930-40 के दशक में अमेरिका में उभरे कल्याणकारी राज्य (welfare state) के मॉडल को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। दूसरे विश्व युद्ध में बर्बाद हो गए यूरोप का जब बाद में अमेरिका ने मार्शल प्लान के तहत पुननिर्माण किया, तो ऐसा welfare state के मॉडल पर ही किया गया।

अब जारी हो चुके दस्तावेजों से जाहिर है कि कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रसार की आशंका से ग्रस्त होकर यह मॉडल अमेरिका में अपनाया गया था और इसी कारण दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूरोप में इसे स्थापित किया गया। (Concessions, Class Struggle Built the Welfare State)। दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के साथ जब एशिया और अफ्रीका के देशों के उप-निवेशवाद से आजाद होने का सिलसिला शुरू हुआ, तो लाजिमी था, इनमें से बहुत से देश भी उस मॉडल की ओर बढ़ते। इस मॉडल के तहत अर्थव्यवस्था में राज्य के हस्तक्षेप की व्यवस्था की गई, विकास नीति में पब्लिक सेक्टर को खास भूमिका दी गई, नियोजन (planning) को अपनाया गया, और निजी क्षेत्र को विनियमित (regulated) रखा गया। अर्थशास्त्र में इस प्रकार की राजनीतिक-अर्थव्यवस्था को Dirigiste प्रणाली (या dirigisme) कहा जाता है।

चुनावी लोकतंत्र और जन-कल्याण के इस मॉडल की उस दौर में कुछ खास उपलब्धियां हैं। और चूंकि ऐसा चुनावी लोकतंत्र के साथ हुआ, तो धारणा बनी (या बनाई गई) कि बिना सर्वहारा की तानाशाही पर आधारित कम्युनिस्ट सिस्टम में गए भी जन-कल्याण संभव है। यानी खुलेपन एवं आजादी के माहौल में भी लोगों को सर्वांगीण विकास के अवसर उपलब्ध करवाए जा सकते हैं। कहा जा सकता है कि कम्युनिस्ट व्यवस्थाओं से तब हुई प्रतिस्पर्धा में यह प्रचार अधिक कारगर रहा। इससे सचमुच कम्युनिस्ट सिस्टम के प्रसार को रोकने में मदद मिली, हालांकि इसके लिए कई बार खुलेआम हिंसा (मसलन, इंडोनेशिया और चिली) का भी सहारा लिया गया।

मगर 1991 में सोवियत खेमे के ढहने और चीन के अंतर्मुखी रूप अपना लेने के साथ सारी कहानी पलट गई। अब चुनावी लोकतंत्र वाली व्यवस्थाओं के सामने पहले के पैमानों पर legitimacy हासिल करने की मजबूरी नहीं रह गई। नतीजा कल्याणकारी राज्य की धारणा को विराम देने के रूप में सामने आया। नई अपनाई गई नव-उदारवादी व्यवस्था के तहत कमखर्ची की नीतियां लागू की जाने लगीं और राजकोषीय अनुशासन नया मूलमंत्र बना। अब साफ है कि इस मंत्र का मकसद बजट के अधिकतम हिस्सों का पूंजीपति और धनिक वर्ग के हाथों का ट्रांसफर रहा है।

ऐसा करने के लिए चुनावी राजनीति का नया व्याकरण प्रचलित किया गया है। इसके जरिए सियासी चर्चाओं में नस्लीय, धार्मिक, लैंगिक, जातीय, क्षेत्रीय आदि पहचान को केंद्रीय स्थल पर लाया गया है। चूंकि प्रचार के तंत्र पर शासक वर्ग का ही नियंत्रण होता है, इसलिए उसके पास विमर्श की शर्तें तय करने की ताकत भी होती है। तो कम्युनिज्म का साया टलते ही पहचान की राजनीति (identity politics) को चुनाव व्यवस्था का नया प्रचलित व्याकरण बनाया गया। इसके जरिए वर्ग एवं रोजी-रोटी के मुद्दों को हाशिये पर धकेल दिया गया है।

बहरहाल, इस अनुभव को ध्यान में रखें, तो यह कहने का मजबूत आधार बनता है कि असल में चुनावी लोकतंत्र अपने-आप में लोगों की माली हालत में सुधार और जन केंद्रित विकास की अपेक्षाओं को पूरा करने का माध्यम नहीं है। इस राजनीति में लगभग तमाम दलों के बीच वास्तविक प्रतिस्पर्धा शासक वर्ग का भरोसा पाने की होती है। जो पार्टी रोजी-रोटी के सवालों से ध्यान भटकाने कर वोट हासिल करने में अधिक सक्षम साबित होती है, उन पर शासक तबके अपना दांव लगाते हैँ। शासक समूहों का समर्थन निर्णायक महत्त्व का होता है, इसलिए अक्सर उनसे समर्थित पार्टियां सत्ता में आने में सफल हो जाती हैं। इसलिए इसमें कोई हैरत की बात नहीं है कि पार्टी चाहे जो सत्ता में आए, शासन की बुनियादी नीतियां नहीं बदलतीं।

आज चुनावी लोकतंत्र वाले देशों में मतदाताओं में उदासीनता, व्यग्रता और पहचान आधारित उग्र प्रतिक्रिया नजर आती है, तो इसकी वजह बनी यही धारणा है कि वोट आप चाहे जिसे दें, उससे बुनियादी सूरत नहीं बदलती। और अगर सूरत में कुछ सकारात्मक बदलाव आए भी, तो वह टिकाऊ नहीं होती। इसे और बेहतर ढंग से समझने के लिए इन दोनों तरह के अनुभवों पर ध्यान देना उचित होगा।

-पहला तजुर्बा भारत, यूरोपीय देशों, कुछ दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों और अमेरिका का है। यहां ऐसी सियासी ताकतें सत्ता में हैं- या जिनके सत्ता में आने की जमीन तैयार हो रही है- जिन्होंने सामाजिक तनाव और विघटन को बढ़ावा देते हुए अपनी राजनीतिक शक्ति तैयार की है। उन्होंने समाज के एक समूह में किसी दूसरे समूह के खिलाफ नफरत भर कर सियासी गोलबंदी की है।

– इन देशों में राजनीति पूरी तरह identity politics की गिरफ्त में है। मतदाताओं के सामने विकल्प के तौर पर एक तरफ नस्ल, आव्रजक विरोध, मजहब, जाति आदि के आधार पर ध्रुवीकरण करने वाली धुर-दक्षिणपंथी पार्टियां हैं, तो दूसरी तरफ woke culture को बढ़ावा देने वाली और अपनी सारी राजनीति को पहचान आधारित प्रतिनिधित्व तक सीमित रखने वाली पार्टियां हैं। इन दोनों में समान पहलू यह है कि रोजी-रोटी और समाज का सर्वांगीण विकास उनके एजेंडे से गायब है। नतीजतन, चुनावों वे भड़काऊ मुद्दे उछालती हैं, जबकि पूंजीपति वर्ग की सेवा करने के सवाल पर उनमें पूरी सहमति बनी रहती है।

– इस तरह की सियासत का परिणाम यह हुआ है कि विकास और वास्तविक जन-कल्याण की राजनीति डेडएंड (यानी बंद गली) पर पहुंच गई है।

– एक दूसरा तजुर्बा लैटिन अमेरिकी देशों का है, जहां 21वीं सदी में ‘समाजवाद की ओर कदम’ (movement towards socialism) के महत्त्वपूर्ण प्रयोग हुए। मगर इन प्रयोगों में निरंतरता का अभाव रहा है। जब खुद को movement towards socialism से जोड़ने वाली पार्टियां सत्ता में आईं, तो उन्होंने मानव विकास में निवेश किया और पूंजी की सत्ता पर लगाम लगाने की कोशिश की। ऐसे हर दल या नेता के खिलाफ शासक वर्ग लामबंद हुआ और अपने धन एवं प्रचार की ताकत से ऐसी परिस्थितियां उसने बनाईं, जिनसे अक्सर अगले चुनाव में ऐसी पार्टियां हार गईं। उसके बाद ऐसी पार्टियां सत्ता में आईं, जिन्होंने पूर्व शासन में विकास, प्रगति एवं जन-कल्याण की दिशा में उठाए गए कदमों को पलट दिया। यानी बात घूम-फिर कर वहीं पहुंच गई, जहां से शुरुआत हुई थी।

– इस परिघटना का ताजा उदाहरण बोलिविया (Bolivia elections: the null vote, fragmentation, and runoff elections – Kawsachun News) है और संभवतः इसका अगला उदाहरण कोलंबिया (Colombia Against the Fossil Fuel Age) बनेगा। ब्राजील और अर्जेंटीना भी इस घटनाक्रम के उदाहरण हैं, जहां वामपंथी सरकार के बाद धुर-दक्षिणपंथी सरकारें आईं और जिन्होंने ना सिर्फ पूर्व सरकार के दौर में उठाए गए कदमों को पलट दिया, बल्कि कल्याणकारी राज्य की अवधारणा पर गंभीर चोट पहुंचाई।

– यूरोपीय देशों में 1950 से 1990 तक सोशल डेमोक्रेसी का चलन रहा। उससे जो मानव विकास हुआ, अब दौर उसे पलटने का है। इसके परिणामस्वरूप कई देशों में गरीबी और बेरोजगारी बढ़ी है तथा अवसरहीनता का माहौल गहराया है। अब अमेरिकी टैरिफ वॉर तथा रक्षा खर्च बढ़ाने के बने दबाव का परिणाम सोशल डेमोक्रेसी की धारणा को पूरी तिलांजलि के रूप में सामने आ रहा है।

मतलब साफ है- मताधिकार आधारित चुनावी लोकतंत्र का अस्तित्व में आना भले मानव इतिहास में एक बड़ी प्रगति रहा हो, मगर यह व्यवस्था अपने-आप में लोगों की बेहतरी और विकास का माध्यम नहीं है। यह अच्छी बात है कि बेहतर समाज बनाने का सपना देखने वाली राजनीतिक ताकतें अनेक देशों में उपरोक्त सच को स्वीकार कर राजनीति के नए स्वरूप की परिकल्पना कर रही हैं। ब्रिटेन (James Schneider, Building the Party — Sidecar) और फ्रांस (The radical-left La France Insoumise prepares a hot autumn | Counterfire) इसके दो उदाहरण हैं, लेकिन ये बात और बहस सिर्फ वहीं तक सीमित नहीं है।

जब ऐसी अभिनव चर्चाएं होती हैं और इस दिशा में प्रयास होते हैं, तो अक्सर देखा गया है कि समाज में नई उम्मीदें जन्म लेती हैं। ऐसी बहसें यह भरोसा बंधाती हैं कि मानव प्रयास से एक अलग, नए किस्म की दुनिया का निर्माण संभव है। जबकि ऐसे प्रयासों के अभाव में लोग हताशा का शिकार होते हैं, जैसा श्रीलंका, नेपाल, या बांग्लादेश में हुआ है। अनुभव यह है कि असंगठित और अराजक विद्रोहों से कुछ नया बनता नहीं है। बल्कि अंततः उन समाजों के प्रभुत्वशाली तबके ही उसका लाभ उठा ले जाते हैं, क्योंकि वे अधिक संगठित होते हैं। दीर्घकाल में इससे समाज में हताशा और गहराती है।

जबकि हताशा समाधान नहीं है। इसलिए कभी भी इसे विकल्प नहीं बनने देना चाहिए। हमेशा नए सपने और नई उम्मीदें विकल्प रहें, यह सुनिश्चित करना उन ताकतों का काम है, जो इतिहास का वस्तुगत विश्लेषण करने, इसकी द्वंद्वात्मक (dialectical)  प्रक्रिया को समझने, और नया सपना देखने में सक्षम हैं। आज उनके सामने यह साफ है कि चुनावी राजनीति अपनी चरमसीमा पर पहुंच चुकी है। अब इससे आगे निकलने की जरूरत है। अब कुछ नया सोचने की जरूरत है, जैसाकि अनेक देशों के सोशलिस्ट आज कर रहे हैँ।


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