साल 2025 की समाप्ति के साथ ही 21वीं सदी का एक चौथाई सफर पूरा हो गया। सो, यह इस बात के आकलन का समय है कि गुजरे साल में और साथ ही गुजरे 25 सालों में भारत ने क्या हासिल किया। एक चौथाई सदी के नजरिए से नफा नुकसान का आकलन इसलिए जरूरी है क्योंकि दुनिया में शायद कोई देश ऐसा नहीं था, जो इतनी शिद्दत से 21वीं सदी में जाने का इंतजार कर रहा था। भारत ने 21वीं सदी में जाने और उसे अपना बनाने की तैयारी 1984 में राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के समय शुरू की थी। राजीव गांधी हर जगह इसका जिक्र करते थे। उनको जिस संचार क्रांति का श्रेय दिया जाता है वह भी 21वीं सदी की तैयारियों से ही जुड़ी थी। उन्होंने संचार क्रांति का रास्ता दिखाया। पंचायत की त्रिस्तरीय व्यवस्था के जरिए शासन के विकेंद्रीकरण का रास्ता दिखाया और देश की नौकरशाही वाली व्यवस्था में एक रुपए में से 85 पैसे की लूट का खुलासा करके इसे ठीक करने के उपायों का भरोसा दिलाया।
21वीं सदी के एक चौथाई गुजर जाने के बाद इन तीन पैमानों पर भारत कहां खड़ा है, इसका आकलन करेंगे तो पता चलेगा कि इतनी चर्चा के बावजूद कम कहीं पहुंचे ही नहीं। जहां थे वही कदमताल करते रहे या पीछे की ओर मुड़ गए। हां, यह जरूर हुआ कि लक्ष्य 2047 तक आगे बढ़ गया। 21वीं सदी की तैयारी 1984 से शुरू हुई थी और अब 2025 से 2047 की तैयारियां शुरू हो गई हैं। तय मानें कि भारत की नियति ऐसी है कि वह तब भी यानी 2047 तक भी कहीं नहीं पहुंचेगा। इस बात को कुछ प्रतिनिधि कानूनों या घटनाओं से समझने की कोशिश करते हैं।
शुरुआत शासन के विकेंद्रीकरण के प्रयासों से करें तो उसका विश्लेषण महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना यानी मनरेगा को समाप्त करके उसकी जगह लाए गए विकसित भारत जी राम जी बिल पर पूरा होगा। भारत में संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के जरिए पंचायती राज और स्थानीय निकायों के शासन की व्यवस्था लागू की गई थी। लंबी जद्दोजहद के बाद पंचायतों को सशक्त बनाया गया। उसी की बुनियादी पर मनरेगा की नींव पड़ी थी। केंद्र सरकार की ओर से सौ फीसदी फंडिंग के जरिए साल में एक सौ दिन के रोजगार की गारंटी की गई। इस कानून की मूल भावना पंचायतों के जरिए गांवों का विकास करना और भारत के मजदूरों की मोलभाव की क्षमता को बढ़ाना और उन्हें सम्मान के साथ जीवनयापन का आधार प्रदान करना था। लेकिन अब नया कानून रोजगार की गारंटी को खत्म कर देगा और पंचायतों की भूमिका भी नगण्य कर देगा।
अब पंचायतें तय नहीं करेंगी कि कब, कहां और क्या काम होना है। अब केंद्र सरकार तय करेगी कि कब, कहां और क्या काम होगा। यह एक प्रतिनिधि कानून है, जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि केंद्र सरकार किस तरह से सत्ता के केंद्रीकरण की तरफ बढ़ रही है। इसके लिए कानून, कार्यकारी आदेश और तकनीक तीनों इस्तेमाल हो रहा है। देश के किसानों, मजदूरों और खेत मजदूरों को गारंटी के साथ रोजगार हासिल करने के गरिमामय दौर से सरकार की दया पर पांच किलो अनाज हासिल करने के दौर में ला दिया गया है।
दूसरा मुद्दा संचार क्रांति का है। चार दशक पहले भारत में संचार क्रांति की चर्चा शुरू हुई थी और इस चार दशक का कुल जमा हासिल यह है कि जैसे उस समय हम अमेरिका में बने कंप्यूटर के यूजर मात्र थे उसी तरह आज भी दुनिया में बनी हर तकनीक के सबसे बड़े यूजर हैं। हमारी उपलब्धियों का बखान इस तरह होता है कि दुनिया में सबसे ज्यादा इंटरनेट यूजर भारत में हैं या दुनिया में सबसे ज्यादा सोशल मीडिया के यूजर भारत में हैं या दुनिया में जेनेरेटिव एआई के सबसे ज्यादा यूजर भारत में हैं। हकीकत यह है कि हमने न तो इंटरनेट का आविष्कार किया न सोशल मीडिया का प्लेटफॉर्म बनाया और न एआई में कुछ बनाया है। हम सिर्फ यूजर हैं। इलॉन मस्क की कंपनी सेटेलाइट के जरिए इंटरनेट की सेवा देगी और बहुत जल्दी हम सेटेलाइट से मिलने वाली इंटरनेट सेवा के भी सबसे बड़े यूजर हो जाएंगे।
यह गुजरा साल या इससे पहले कुछ और साल आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी एआई की क्रांति के थे। सारी दुनिया में एआई की धूम मची। साल के अंत में आई सेल्फ मेड नए अरबपतियों की सूची आई तो उसमें 10 में से आठ एआई की कंपनी वाले थे और सबकी उम्र 30 साल के कम थी। उनमें तीन हिंदू थे लेकिन तीनों अमेरिका में रहने वाले थे। भारत का कोई भी नहीं था। भारत के अरबपति, खरबपति सब ऐसे हैं, जो भारत के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहे हैं, सरकार माईबाप की कृपा से ठेके हासिल करके एकाधिकार बना रहे हैं या दुनिया के दूसरे देशों में बनी तकनीक के वेंडर बन कर भारत के लोगों की जेब से पैसे लूट रहे हैं।
यह दुर्भाग्य है कि हम भारत के लोग अपने रोजमर्रा के जीवन में अपने देश में आविष्कृत किसी भी तकनीक का इस्तेमाल नहीं करते हैं। बिजली के उपकरणों से लेकर संचार के उपकरण और कृषि उपकऱणों से लेकर ऑटोमोबाइल और किचेन में इस्तेमाल होने वाले उपकरणों में एक भी ऐसा नहीं होगा, जिसका आविष्कार भारत में हुआ है। हमारे यहां बड़े गर्व से बताया जाता है कि हम दुनिया में सबसे ज्यादा मोबाइल हैंडसेट बनाने वाला देश बन गए हैं। लेकिन वह हैंडसेट दक्षिण कोरिया की सैमसंग कंपनी का होता है या अमेरिका की एपल कंपनी का। तकनीक उनकी है, कंपोनेंट उनके हैं, हम सिर्फ असेंबल करते हैं और उस पर गर्व किया जाता है।
21वीं सदी के चौथाई सदी बीतने पर दुनिया, जहां एआई क्रांति के मध्य में है वही भारत धार्मिक क्रांति के मध्य में पहुंच गया है। चौतरफा मंदिर निर्माण हो रहा है, नए भजन बनाए व गाए जा रहे हैं, कथावाचकों की विशाल फौज तैयार हो गई है, ज्योतिष की तमाम विधाओं का इस्तेमाल व प्रचार चरम पर है लोगों को धार्मिक और अंधविश्वासी बनाने का अभियान जोर शोर से चल रहा है और इसे आध्यात्मिक क्रांति व गुलामी की मानसिकता से मुक्ति बताया जा रहा है। समाज में कट्टरता और असहिष्णुता बढ़ रही है और जैसे जैसे हम 2047 की तरफ बढ़ रहे हैं वैसे वैसे सामाजिक विभाजन 1947 जैसे होता जा रहा है।
तीसरी बात भ्रष्टाचार से मुक्ति की है। राजीव गांधी ने 21वीं सदी की बात करते हुए एक कार्यक्रम में कहा था कि उनकी सरकार एक रुपया भेजती है तो सिर्फ 15 पैसा ही नीचे लाभार्थी तक पहुंचता है। 1987 में कही गई इस बात के भी करीब चार दशक हो गए हैं। लेकिन इन चार दशकों में भ्रष्टाचार और ज्यादा सांस्थायिक होता गया है। इस साल की समाप्ति जेनेवा के भारतीय मिशन में दो करोड़ रुपए से ज्यादा की गड़बड़ी और रक्षा मंत्रालय में तैनात लेफ्टिनेंट कर्नल रैंक के एक अधिकारी के रिश्वत लेने और उसके घर से दो करोड़ रुपए से ज्यादा की नकदी की बरामदगी की खबरों के साथ हुई है। भ्रष्टाचार ईश्वर की तरह हो गया है। दिखाई नहीं देता है लेकिन हर जगह व्याप्त है। नकली कफ सिरप बना कर लोग करोड़ों और अरबों कमा रहे हैं। एक साधारण सिपाही करोड़ों के महल बना रहा है। ऑनलाइन जुए के कारोबार में हजारों करोड़ रुपए की कमाई हो रही है।
ऑनलाइन ठगी का ऐसा दौर आया है कि पुलिस के आईजी स्तर के अधिकारी से आठ करोड़ की ठगी हो जाती है और व्यवस्था ऐसी है कि असहायता में वह पुलिस अधिकारी खुद को गोली मार लेता है। देश के पूर्व चीफ जस्टिस की फोटो दिखा कर बुजुर्ग महिला से तीन करोड़ रुपए ठग लिए जाते हैं। ‘जंगल, पर्वत, बस्ती और सहरा’ सब चुनिंदा उद्योगपतियों को सौंपे जा रहे हैं। उनकी संपत्ति मंगल ग्रह पर जाने वाले इलॉन मस्क के अंतरिक्ष यान की रफ्तार से बढ़ रही है।
उस रफ्तार का मुकाबला सिर्फ देश की सत्तारूढ़ पार्टी के बैंक खातों में जमा होते चंदे की रफ्तार से हो सकती है। दूसरी ओर देश की 90 फीसदी आबादी रोजमर्रा के जीवन संघर्षों में उलझी है। पहले किसान आत्महत्या कर रहे थे लेकिन अब आर्थिक तंगी से परेशान होकर आत्महत्या करने वाली खबरें शहरों और महानगरों से आ रही हैं। इसके बावजूद उम्मीद के पंखों पर सवार पर होकर, ‘हम होंगे कामयाब एक दिन’ गाते हुए हम 21वीं सदी की दूसरी चौथाई में प्रवेश कर रहे हैं। नए साल का स्वागत कीजिए, क्या पता सचमुच भगवान अपना चमत्कार दिखाने के लिए भारत भूमि का चयन कर लें!
