पटाखे चलाना भी धर्म का काम!

Categorized as अजित द्विवेदी कालम

इस साल भी और पिछले कई सालों से दिवाली के मौके पर ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ से ज्यादा ‘धर्मो रक्षति रक्षितः’ के संदेश देखने को मिले। अंधकार से प्रकाश की ओर चलने या असत्य से सत्य की ओर बढ़ने से ज्यादा हर व्यक्ति धर्म की रक्षा को आतुर दिखा और धर्म की रक्षा कैसे होगी? पटाखे चला कर! पिछले साल और उससे पहले कई साल दिवाली के अवसर पर पटाखे इसलिए चलाए गए क्योंकि सर्वोच्च अदालत को दिखाना था कि हिंदू अदालत के आदेश को नहीं मानता है, बल्कि धर्म की रक्षा के लिए उसकी अवहेलना करने में भी नहीं हिचकता है। खूब पटाखे चलाने के बाद सोशल मीडिया में लिखा गया कि अदालत को समझ में आ गया होगा कि अब हिंदू जाग गया है और उसको पटाखे चलाने से नहीं रोका जा सकता है! इस साल सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली सरकार की अपील पर ‘ग्रीन पटाखे’ चलाने की मंजूरी दे दी तो अदालत से कोई शिकायत नहीं रही लेकिन इस बार खूब जम कर पटाखे इसलिए चलाए गए क्योंकि दूसरे समुदाय के लोगों को चिढ़ाना और जलाना था।

दिवाली पर खूब पटाखे चला कर (राजधानी दिल्ली में तो लगभग पूरी रात पटाखे चले) धर्म की रक्षा पता नहीं कितनी हुई लेकिन प्रदूषण कई गुना जरूर बढ़ गया। भारत में तो अभी सिर्फ हवा की गुणवत्ता मापी जाती है इसलिए दिवाली के अगले दो दिन में वायु गुणवत्ता सूचकांक के आंकड़े सामने आए। अगर ध्वनि प्रदूषण को मापा जाता और उसके आंकड़े सामने आते तो कुछ और खतरे के बारे में भी पता चलता। लेकिन वायु गुणवत्ता सूचकांक यानी एक्यूआई की ही बात करें तो राजधानी दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के शहरों के अलावा बिहार और उत्तर प्रदेश या महाराष्ट्र के राजधानी से दूर दराज के शहरों में भी प्रदूषण का स्तर कई गुना बढ़ गया। दिवाली के अगले दिन तो सबसे प्रदूषित 10 शहरों में से आठ हरियाणा के थे। राजस्थान का एक शहर भिवाड़ी सातवें स्थान पर था और राजधानी दिल्ली 10वें स्थान पर थी। ‘धर्म रक्षा’ के इस ‘पुनीत कार्य’ में लाखों, करोड़ों लोगों ने अपना अपना योगदान दिया।

पटाखे चलाने की तरह होली पर खूब पानी बहा कर रंग खेलना भी धर्म रक्षा का कार्य है। हिप्पोक्रेसी देखिए कि सावन में कांवड़ के समय या नवरात्रों में दुर्गापूजा के समय मांसाहार के खिलाफ आंदोलन चलाना भी धर्म का काम है और बलि प्रथा का बचाव करना भी धर्म का काम है। सरकार के हर काम का बिना सोचे समझे समर्थन करना भी धर्म काम है और सत्तारूढ़ दल को वोट देना तो धर्म का काम है ही। सोचें, धर्म के काम को कितना आसान बना दिया गया है! आज आप पटाखे चला कर, रंगों वाली होली खेल कर, जोर जोर से बजते डीजे के साथ चल रहे कांवड़ के प्रति श्रद्धा दिखा कर, सरकार के हर काम का समर्थन करके और सत्तारूढ़ दल को वोट देकर धर्म की रक्षा करने का दावा कर सकते हैं। अगर कोई पटाखे चलाने, पानी बहाने या कांवड़ में होने वाले उत्पात पर सवाल उठाए या सरकार के किसी नीतिगत फैसले की आलोचना करे तो सोशल मीडिया में आप उसे और उसके खानदान को भद्दी से भद्दी गाली देकर भी धर्म का काम कर सकते हैं। आप जितनी अश्लील गाली दे सकते हैं उतने बड़े धर्म रक्षक माने जाएंगे। सोशल मीडिया में ऐसे अनगिनत लोग हैं।

बहरहाल, यह तर्क सही है कि एक दिन पटाखे फोड़ने से ही पूरे देश की हवा प्रदूषित नहीं हो रही है या एक दिन पानी के साथ रंगों वाली होली खेलने से देश में जल संकट नहीं खड़ा हो रहा है। लेकिन यह एक दिन का तर्क सिर्फ एक दिन तक सीमित नहीं होता है। धर्म और परंपरा के नाम पर जोर जबरदस्ती, जिन चीजों को अपनाने की बात कही जाती है या अपनाने प्रदर्शन किया जाता है उसका दायरा बहुत बड़ा है। इसी तरह जब आपका त्योहार और आपका उत्सव आपकी खुशियों, आपके उल्लास और संस्कृति से जुड़ा न रह कर किसी को किसी को दिखा देने की प्रवृत्ति से निर्देशित होने लगे तब समस्या है। जब आपका त्योहार और उसके साथ चली आ रही परंपराएं शक्ति प्रदर्शन का माध्यम बन जाएं तब समस्या है। जब आप त्योहार धर्म की रक्षा के लिए मनाने लगें तब समस्या है। इसको अगर नहीं समझा गया तो त्योहारों के मौकों पर चलने वाला ‘धर्म रक्षा’ का अभियान समाज के हर ताने बाने को कमजोर करेगा और सामाजिक विभाजन बढ़ाएगा। अगर लोग यह समझने लगें कि पटाखे चलाना भारत की या हिंदू की प्राचीन संस्कृति का हिस्सा नहीं था और इसका धर्म की रक्षा से कोई लेना देना नहीं है तो वह बदला लेने या किसी को चिढ़ाने की भावना के साथ पटाखे नहीं चलाएगा। ऐसा ही पहले होता था।

दिवाली के उत्सव में पटाखे चलाना और ‘रिवेंज स्पिरिट’ के साथ पटाखे चलाने में जमीन आसमान का अंतर है, जिसे समझना होगा। यह भी समझना होगा कि अगर कोई परंपरा सदियों से चल रही है तो जरूरी नहीं है कि बदलते हुए समय की जरुरतों और बदलती पारिस्थितिकी के हिसाब से वह आज भी प्रासंगिक हो। समय और परिस्थितियों के साथ परंपराओं का बदलना और नए समय के साथ समायोजित होना बहुत सामान्य बात है। इसे स्वीकार करना चाहिए। त्योहार को त्योहार की तरह मनाना चाहिए, उसे किसी कथित महान लक्ष्य को हासिल करने का टूल नहीं बनने देना चाहिए। हमारे सारे त्योहार किसी न किसी सामाजिक या जीवन से जुड़े संदेश वाले होते हैं। हमारा आचरण उन संदेशों के अनुरूप होना चाहिए। उसमें प्रेम और भाईचारे के साथ सादगी और स्वच्छता अनिवार्य तत्व है। उसमें जीवन का उल्लास झलकना चाहिए न कि राजनीति द्वारा पैदा की गई कुंठा।


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