कभी समय था जब सियासी असहमति का मतलब बहसबाजी थी। तथ्य तौलने के लिए रखे जाते थे। तब तर्कों की कसौटी होती थी, और गर्मागर्म बहस में भी सामने वाले की सोच के प्रति सम्मान होता था। वह समय अब मानों प्रागैतिहासिक काल है। ईमानदारी से सोचना भी अब दुश्मन बनाना है। असहमति मानो युद्ध की घोषणा हो। और यदि कोई व्यक्ति बारिक मनोभाव में बात रखे, न्यूआंस दिखाए तो वह हर पक्ष की नज़रों में तुरंत संदिग्ध बन जाता है।
मतलब यह कि विचारों की कोई यदि अलग-अलग परतदार दृष्टि रखे तो वह अजनबी हो जाएगा। इसलिए राजनीतिक पहचान में अब या तो काला है या सफेद। जो लिखना या कहना है वह शुद्ध, साफ़ और दो टूक ढंग से होना चाहिए।
इससे सभी तरफ अजीब सा नजारा है। खासकर उन लोगों के लिए जो अब समझ से बाहर है। जिन्हें आप कभी विवेकशील मानते थे। आप यदि कोई संतुलित बात कहते हैं तो वह ‘छिपे धोखे’ की तरह पढ़ी जाती है। आप किसी विरोधाभास की ओर संकेत करते हैं, तो आपको खेमे बदलने का आरोपी बना दिया जाता है। यह वह मसला है जो धीरे-धीरे थका देता है, जब तक कि आप कम बोलने नहीं लगते—डर से नहीं, बल्कि इसलिए कि बातचीत ही बेमतलब हो जाती है। तभी अब संवाद नहीं, दिखावा हैं। तर्क नहीं, भूमिकाएँ हैं, ।
एक पक्ष चाहता है “आप ऐसा सोचें।” और दूसरे खेमे से वही पुरानी बाते: “यह सब चुनाव आयोग का खेल है।” “महिलाओं के खातों में पैसे डाल दिए।” “सब धांधली है—एक दिन सच सामने आएगा।”
हाँ, एक दिन सब देखेंगे—बस उस नाटकीय, सत्य-उजागर करने वाले अंदाज़ में नहीं। जो हम देखेंगे वह कहीं ज्यादा साधारण और ज्यादा दुखद होगा। देखेंगे कि जब हर कोई अपने-अपने पक्ष की भविष्य की जीत का अनुमान लगाने में व्यस्त था, तब वर्तमान चुपचाप और बेरहम होता चला गया। सो “एक दिन” कोई रहस्योद्घाटन नहीं, बल्कि आत्म-चिंतन की जगह चुना हुआ एक छलावा, बहाना है।
इसके बावजूद ‘क्या हो सकता था’ की लगातार बौछार जारी रहती है। हर हार साज़िश में बदल जाती है; हर जीत अवैध घोषित। विपक्ष के प्रदर्शन का विश्लेषण करने के बजाय उसे एक स्थायी पीड़ित कथा में बदल दिया जाता है—एक ऐसी दुनिया का शिकार जहाँ सब कुछ उसके खिलाफ़ ‘फिक्स’ है। और तब तर्क अचानक दुश्मनी बनाते है इसलिए कि वे तयशुदा कथा में फिट नहीं बैठते।
और इसी शोर के बीच कुछ बदलने लगता है। कुछ आवाज़ें—धीमी, अनपेक्षित एक स्वीकारोक्ति। यह कि मोदी अब भी एक मज़बूत राजनीतिक शक्ति हैं। स्वीकारोक्ति कि वैश्विक मंच पर भारत की चमक बढ़ी है। स्वीकारोक्ति कि फिलहाल कोई विपक्षी नेता उनसे टक्कर नहीं ले पाता। स्वीकारोक्ति कि भाजपा का संगठनात्मक विस्तार और सांस्कृतिक पकड़ उसके किसी प्रतिद्वंद्वी से कहीं आगे है। और फिर यह दबी हुई मान्यता कि अगले दशक तक भाजपा शायद अडिग रहे।
यह स्वीकारोक्ति है, नई प्रशंसा है, या थकान , निराशा की अभिव्यक्ति? अब सुनने में आता है कि जो लोग कभी अपने को निष्पक्ष मानते थे, वही अब उसी स्वीकृत सूची को दोहरा रहे हैं—आयोग, ट्रांसफर, धांधली, अनिवार्यता। वे सोचते हैं कि वे कथा का प्रतिरोध कर रहे हैं, जबकि प्रतिरोध भी अब एक तयशुदा ढांचे में हो रहा है—एक जैसी भाषा, एक जैसे वाक्य, मानो असहमति का भी एक मैनुअल हो गया हो।
यहीं से नई रूढ़ियाँ जन्म लेती हैं। सेंसरशिप से नहीं—दोहराव से। रोम को सीनेट को चुप कराने के लिए सम्राटों की ज़रूरत नहीं थी; सीनेट ने खुद सम्राटों की तरह बोलना सीख लिया। सोवियत राज्य ने वफ़ादारी पैदा नहीं की; उसने अलग सुनाई देने के डर को पैदा किया। और भारत ने यह पहले भी देखा है—आपातकाल के बाद, जब इंदिरा की आलोचना जोखिमपूर्ण लगती थी; राजीव के शुरुआती वर्षों में, जब उनकी आलोचना को बेवफ़ाई माना जाता था।
सो हर खास वक्त, युग अपनी “स्वीकार्य असहमति” के टेम्पलेट गढ़ लेता है।
और शायद हमारा टेम्पलेट आज बाहर से आयात है। जैसे भारत के मौजूदा समय को “एंटी-वोक” क्षण कहने का आग्रह—एक शब्द जो अमेरिकी सांस्कृतिक युद्धों से यहाँ उतर आया है। लेकिन भारत में अमेरिकी वोकनेस जैसा कुछ नहीं है; हम सर्वनामों, लैटिनक्स या क्रिटिकल रेस थ्योरी पर नहीं लड़ते। हमारे यहाँ जो है वह अधीरता है—अभिजात उपदेशों से, उन प्रगतिवादियों से जिनकी भाषा अधिकांश भारतीयों को परायी लगती है, उन लोगों से जो स्थानीय वास्तविकता से ज़्यादा वैश्विक सहीपन में जीते हैं। इसे “एंटी-वोक” कहना भारतीय बेचैनी पर अमेरिकी फ्रेम थोपना है। हमारा संघर्ष पहचान का नहीं, दूरी का है।
इसीलिए यह क्षण विद्रोह जैसा नहीं, बल्कि एक नई रूढ़ि के उभार जैसा लगता है—जहाँ सत्ता-विरोध भी केवल एक स्वीकृत अंदाज़ में ही किया जा सकता है। जहाँ आलोचना पैक होकर आती है। जहाँ असहमति अब स्वतंत्र सोच नहीं, बल्कि क्यूरेटेड परफ़ॉर्मेंस बन गई है।
और शायद यही इस दौर की सबसे विचित्र बात है—जो लोग सत्ता के प्रतिरोध का दावा करते हैं, वे अब एक-दूसरे की तरह सुनाई देने लगे हैं। इसलिए नहीं कि वे सही हैं, बल्कि इसलिए कि अनुरूपता ने बस दायरा बदल लिया है। और शायद इसी वजह से सबसे साधारण काम—सोचना—सबसे विद्रोही क़दम बन गया है।
हम बहस के ढहने से शुरू हुए थे और पहुँच गए हैं उस समय में जहाँ तर्क पहले से चबाकर परोसे जाते हैं और राय पहले से मंज़ूरशुदा होनी चाहिए। त्रासदी यह नहीं कि लोग चिल्लाते हैं; त्रासदी यह है कि वे रटी हुई पंक्तियाँ चिल्लाते हैं। एक ओर के आरोप और दूसरी ओर की साज़िशों के बीच, स्वतंत्र सोच के लिए जगह एक पतली दरार तक सिकुड़ गई है। और उसी दरार में हमारे समय की असल कहानी छिपी है—उन लोगों का शांत अलगाव जो किसी स्क्रिप्ट को मानने से इंकार करते हैं। उन बातचीतों में अजनबी बन जाने का अहसास जिनसे आप कभी जुड़े थे। इसलिए नहीं कि आप बदले, बल्कि इसलिए कि सोच बदल गई।
