बिहार को मैं दूर से देख रही हूँ! कुछ वैसे ही जैसे एक ही सूरज ढलते हुए हर बार कुछ अलग लगता है, फिर भी हर बार वैसा ही। रिपोर्टरों की रिपोर्टों से, विश्लेषणों से और बिहार की नब्ज़ पकड़ने का दावा करने वाले सर्वेक्षणों की गणित में लोग अनुमानों, प्रतिशतों में चाहे जितने बंटे है उन सबके बीच भी इस बार वह जीवंतता नहीं दिख रही जो संभवतया बिहार के मिजाज से है। मेरा मानना है कि बिहार एक एक ऐसा राज्य है जो सिनेमा-सा जीवंत है। चेहरों, बातों, किस्सों और ख्वाबों से हर तरह भरा हुआ। बिहार, जो दिल से और जनसंख्या दोनों से जवान है वह जाति और जज़्बे का आज भी रंगमंच है, महत्वाकांक्षा और यादों का मेला है। इसलिए बिहार जा कर उस पर लिखना आसान नहीं। मानो किसी तार में हाथ लगा देना हो — झटका और बहकना दोनों सभंव है। जबकी दूर से देखने पर वह केवल झिलमिलाता है।
क्योंकि बिहार, कई मायनों में, वही मूड दोहरा रहा है जो 2024 के लोकसभा चुनावों के बाद पूरे देश में फैला था। हर जगह लगा था जैसे बदलाव हवा में है। नौजवान बेचैन, आकांक्षी, और अधीर। लेकिन फिर हकीकत ने दस्तक दी। महाराष्ट्र, जिसने लोकसभा में उद्धव ठाकरे का साथ दिया था, विधानसभा में मुड़ गया। हरियाणा, जो भाजपा से ऊब चुका था, आख़िरी पल की जातीय उलटफेर के बाद उसी को लौटा लाया। और दिल्ली — हमेशा की तरह विरोधाभासों का रंगमंच — फिर शोर को ही विकल्प समझ बैठी।
मैं बिहार का नतीजा नहीं बता रही, बस पैटर्न देख रही हूँ — वो जो तब दिखता हैं जब रातों को आप बिहार से आती खबरें और रीलें स्क्रॉल करते हैं। क्योंकि लोकसभा के समय भी बिहार मानो तेजस्वी यादव की तरफ झुकता दिखा था — उसका विशाल, अधैर्य युवा मतदाता वर्ग, जो नौकरी और सम्मान दोनों को तरस रहा था, उसके नाम में विश्वास की झिलमिल दिख रही थी। लेकिन जब वोट गिने गए तो वह झिलमिल, फुसफुसाहट लहर नहीं बन पाई।
अब वापिस माहौल लौटते ही बिहार में फिर उम्मीद की लहर उठी है। हवा में एक हलचल है — जैसे यह राज्य अब वह कहानी कहने वाला है जो 2024 अधूरी छोड़ गया था। लगा था इस बार आंकड़े ज़्यादा बोलेंगे, पुराने चेहरे मिटेंगे और नए चेहरे चुनौती के साथ उभरेंगे। रैलियों, नारों, और रीलों के बीच लगा कि कुछ बदल रहा है। तेजस्वी यादव, अपने कमजोर लोकसभा प्रदर्शन के बावजूद, बिहार के अधैर्य युवाओं का सबसे लोकप्रिय चेहरा बनकर लौटे। और फिर हैं प्रशांत किशोर — रणनीति, तमाशा और संशय का नया संगम बनान कर उस राज्य में दाखिल हुए है जहाँ यों राजनीति को नया नुस्ख़ा चाहिए पर फिर सह गुडगोबर होता है।
बहरहाल अब मतदान करीब हैं तो शुरुआती रोमांच थम-सा गया है। उत्साह है, पर अपेक्षाएं मंद है। और लगता है, जैसा कई बार पहले हुआ, वैसा ही फिर होगा — कोई असली बदलाव नहीं, बस पुराने की नई रीमिक्स।
क्यों?
क्योंकि शोर के नीचे भी बिहार की कहानी पुरानी स्याही में लिखी है। चेहरे बदलते हैं, नारे चमकते हैं, और रीलें आधुनिक दिखती हैं। इतना ही नहीं लालू यादव अपने पोते-पोतियों के साथ हैलोवीन के भूत-प्रेत वाले रील भी बनाते हैं, मगर अंदाज और प्रवृत्तियाँ वही पुरानी हैं। बिहार की राजनीति चलती ज़रूर है, मगर बदलती नहीं। जो भी कहे, जाति का अब भी व्याकरण है। गठबंधन रीमिक्स होते हैं, घोषणापत्र नए नाम पाते हैं, पर निष्ठाएँ पीढ़ियों में तराशी जाती हैं, अभियानों में नहीं। बिहार में बदलाव क्रांति नहीं, गणित का नया नाम है। और थकान है जो बिहार के युवा में जम गई है। तभी महत्वाकांक्षी भले हो मगर टूटा हुआ भी। बेरोज़गारी और पलायन से थका हुआ। वह नौकरी के विज्ञापन और नेताओं के वादे, दोनों को एक से अविश्वास से देखता है। तेजस्वी जब ‘नौकरी’ की बात करते हैं, तब वह भीड़ में शामिल होता है। मगर जब वोट डालने का वक्त आता है, तो वह परिवार की लाइन में लौट जाता है — जाति की शरण में, उस ‘सुरक्षा’ याद में जिसे अब वह याद भी नहीं करता कि क्योंकर वह सुरक्षित है और जंगल राज नहीं है।
इसी मोड पर भाजपा अपनी जगह बनाती है — वह पार्टी जिसने थकान को भरोसे में बदलने की कला सीख ली है। जो बेचैनों को अपनी छतरी के नीचे सुरक्षा का अहसास कराती है। अब वह विकास नहीं बेचती, वर्चस्व-दबदबे को बेचती है। उसका नरेटिव यह नहीं कि वह क्या बनाएगी, बल्कि यह कि क्या रोकेगी — अव्यवस्था, भ्रष्टाचार, गठबंधन। मोदी अब उम्मीदवार नहीं, स्थायित्व का प्रतीक हैं — अनिश्चितता के खिलाफ़ ‘सेफ़ डिफ़ॉल्ट’। स्थानीय सरकार के खिलाफ निराशा, ग़ुस्सा भले खूब हो, मगर वह बगावत नहीं बनता, क्योंकि भाजपा की राजनीति भय, गर्व और पहचान के बीच की गणित पर टिकी है।
उधर नीतीश कुमार — उम्रदराज़, भुलक्कड़, मगर टिके हुए — इस बात का सबूत हैं कि बिहार की राजनीति में स्मृति से ज़्यादा महत्व टिके रहने का है, और विचारधारा अर्थहीन है उसी की ओर जो अभी भी खड़ा है। विपक्ष के पास जोश है, पर ढाँचा नहीं। तेजस्वी युवा भाषा बोलते हैं, पर माइक अब भी भाजपा के पास है।
नतीजतन चुनाव बिहार में बदलाव का नहीं, कोरियोग्राफ़ी का मंच बन जाता है — जातीय गणित और भावनात्मक राष्ट्रवाद के बीच का नृत्य, थकान और आस्था के बीच की चाल।
दूसरा, अब यह विचारधाराओं का नहीं, एल्गोरिद्म का युग है। एक रील में मोदी मुज़फ्फरपुर में मधुबनी गमछा लहराते दिखते हैं, दूसरी में राहुल गांधी बेगूसराय के तालाब में छलांग लगाते हुए। राजनीति इतनी आकर्षक पहले कभी नहीं दिखी — न इतनी नाटकीय। क्योंकि अब चुनाव जनता से नहीं, एल्गोरिद्म से जुड़ने का माध्यम हैं।
स्वयं मोदी ने भी इस नई ज़मीन को पहचाना है। हालिया रैलियों में उन्होंने युवाओं की सोशल मीडिया रचनात्मकता की तारीफ़ की — “आजकल जो रील पर रील बन रही है, उसमें जो क्रिएटिविटी है, वह भाजपा-एनडीए की नीतियों का नतीजा है,” उन्होंने कहा, सस्ते डेटा और डिजिटल इंडिया को ग्रामीण कल्पनाशक्ति की नई आय में बदलने का श्रेय देते हुए। उधर लालू यादव भी पीछे नहीं रहे — अपने पोते-पोतियों के साथ उनकी हैलोवीन रील वायरल हो गई।
यानी बिहार भी अब वही नहीं रहा — सभा का युग चुपचाप रील के युग में बदल गया है। अब ‘कनेक्ट’ का अर्थ बदल गया है — वह अब विश्वास में नहीं, व्यूज़ में बसता है। हर मुस्कान, हर नारा, हर डुबकी तुरंत काट-छांट कर सबटाइटल के साथ लूप में चलने लगती है।
और एक राज्य जहाँ कभी आंदोलनों ने आंदोलन खड़े किए, वहाँ अब असंतोषों को एल्गोरिद्म निगल रहा है, वह भावनाऔ को लहराता है। और बिहार की नदियाँ, बाढ़ें जो कभी क्रांति की कहानियाँ बहाती थीं, अब हैशटैग बहाती हैं।
और यही है अंतिम प्रश्न — पॉपुलिज़्म बनाम पॉपुलिज़्म। नरेंद्र मोदी अब भी उस कला के गुरु हैं। पचहत्तर की उम्र में भी वे निरंतरता और विरोधाभास दोनों का प्रतीक हैं — युवाओं की भाषा में सहज, सोशल मीडिया पर इंफ्लुएंसर की तरह ट्वीट करते हुए, ब्रांड रणनीतिकार की तरह शासन करते हुए, और कंटेंट क्रिएटर की तरह राष्ट्रवाद को स्लोगन, भावना को हैशटैग, और विचारधारा को शेयर करने लायक क्लिप में बदलते हुए। वे जानते हैं कि ध्यान को भावना और भावना को जनादेश में कैसे बदला जाए।
और फिर हैं तेजस्वी यादव — जो बिहार के स्थगित वादे का प्रतीक हैं। उनकी राजनीति भी जनवादी है — नौकरियों, न्याय और समावेशन के इर्द-गिर्द — मगर विरासत का बोझ ढोती है। उनका नारा ‘एक परिवार, एक नौकरी’ अब नारा नहीं, मनोवैज्ञानिक अपील है — उस राज्य में जहाँ रोज़गार की तलाश में नौजवान अपना घर छोड़ देता है। वे संघर्ष नहीं, संभावना की भाषा बोलते हैं — एक नरम, सोशल-मीडिया-स्मार्ट जनवाद जो राहत का वादा करता है, क्रांति का नहीं। युवाओं के लिए वे एक साथ दर्पण हैं तो मीम भी — जो बदल सकता है उसका प्रतीक, और जो नहीं बदलता उसका स्मरण। मगर उनका आंदोलन कभी-कभी अपने ही अतीत की गूँज जैसा लगता है — एक ऐसा बेटा जो अपने पिता की ‘सामाजिक न्याय’ की परंपरा को आधुनिक भाषा देना चाहता है। वह नए युग का जननेता है, पर अब तक सत्ता का नहीं। सर्वे उन्हें बिहार का सबसे लोकप्रिय चेहरा बताते हैं, पर यह लोकप्रियता अभी दबदबे, जलवे में नहीं बदली। उनकी पार्टी अब भी यादव-मुस्लिम आधार पर टिकी है, जबकि वे दलितों, पिछड़ों और युवाओं तक पहुँचने की कोशिश कर रहे हैं। यही उनका विरोधाभास है — एक नेता जो आगे देखता है, पर अब भी अतीत की छाया में खड़ा है।
तेजस्वी में बिहार अपनी अधैर्यता भी देखता है और अपनी विरासत भी — एक युवा जो एक युवा राज्य को अब भी पुराने स्वभावों के साथ आगे ले जाना चाहता है।
और इनके बीच कहीं खड़े हैं प्रशांत किशोर — रणनीतिकार जो खुद कहानी बनना चाहते हैं। वे कहते हैं, यह अभियान नहीं, आंदोलन है; चुनाव नहीं, पदयात्रा है। उनकी मौजूदगी बिहार के रंगमंच में एक नया रहस्य जोड़ती है — एक ऐसी राजनीति का जो कहती है कि राजनीति अब नेताओं की नहीं, डिज़ाइन की है। पर जिस ज़मीन पर लोग अब भी स्मृति से वोट डालते हैं, वहाँ उनकी लॉजिक एक नई किस्म की जनवादिता लगती है — जो भावना की जगह एक्सेल शीट रख देती है।
क्योंकि बिहार केवल नेताओं की परीक्षा नहीं लेता, वह आख्यानों की परीक्षा लेता है। यह पूछता है कि क्या गणराज्य अब भी तर्क से बन सकता है, या केवल रीलों से? क्या रणनीति भावना की जगह ले सकती है? क्या एल्गोरिद्म वंश से लड़ सकता है?
और शायद यही आज की भारतीय राजनीति की असली तस्वीर है — मोदी का एल्गोरिद्मिक जनवाद, तेजस्वी का आकांक्षी जनवाद, और प्रशांत किशोर का तकनीकी जनवाद — तीन अलग-अलग संस्करण, पर एक ही मंच, एक ही दर्शक, एक ही वादा।
हाँ, मैं बिहार को दूर से देख रही हूँ — रिपोर्टों, आँकड़ों और शोर के बीच — और यह हमेशा मुझे “नए भारत” का लघु रूप लगता है। पर बिहार भी भारतीय लोकतंत्र का वही रिहर्सल रूम बन जाएगा जहाँ सब बदलाव का अभिनय करते हैं, पर कोई वास्तव में बदलता नहीं।
पर इस बेचैनी में ही शायद यह सच्चाई छिपी है कि आज की राजनीति नेता से ज़्यादा कहानीकार की है।
क्योंकि आखिर में जीत उसी की होती है जो कहानी सुनाना जानता है।
और बिहार में, जैसे भारत में है — कहानी अब भी उसी की है, जो ट्रेंड करना जानता है।
