राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ यानी आरएसएस के एक सौ साल पूरे होने के मौके पर देश के अलग अलग शहरों में संघ प्रमुख मोहन भागवत के संवाद की शृंखला चल रही है। कोलकाता में संवाद कार्यक्रम के दौरान उन्होंने कई बातें कहीं। हिंदू राष्ट्र को लेकर तो बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार के बारे में और समाज में तेजी से प्रचलित हो रही लिव इन रिलेशनशिप को लेकर भी उन्होंने अपनी राय रखी। लेकिन सबसे दिलचस्प बयान यह था कि आरएसएस को भाजपा के चश्मे से नहीं देखना चाहिए। उन्होंने कहा कि बहुत से लोग आरएसएस को भाजपा के चश्मे से देखते हैं और इस वजह से गलती कर जाते हैं। संघ की ओर से पहले भी गाहेबगाहे इस तरह की बातें कही जाती रही हैं लेकिन इस बार के बयान की टाइमिंग अहम है।
ध्यान रहे पिछले संघ और भाजपा में बड़ा सद्भाव दिख रहा था। संघ प्रमुख ने 75 साल की उम्र सीमा को लेकर सैद्धांतिक लाइन बता दी थी कि किसी को भी 75 साल में रिटायर होने की जरुरत नहीं है। उधर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार संघ की तारीफ कर रहे थे। इस परफेक्ट सद्भाव के बीच भाजपा के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष की नियुक्ति हुई और उसके तुरंत बाद संघ प्रमुख का यह बयान आया कि संघ को भाजपा के चश्मे से देखने की जरुरत नहीं है। तभी ऐसा लग रहा है कि संघ प्रमुख के कहने का आशय रूटीन का नहीं है। उन्होंने कोलकाता में यह बात कही, जहां बांग्ला भद्रलोक में कायस्थों की संख्या सबसे ज्यादा है और जहां अगले साल अप्रैल में चुनाव होने वाला है। वहां उन्होंने संघ को भाजपा से अलग दिखाया। इसलिए यह मामूली बात नहीं है और न रूटीन की बात है। ऐसा लग रहा है कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष को लेकर दोनों के बीच सहमति बनाने का जो प्रयास हो रहा था उसमें कुछ बाधा आई थी। ध्यान रहे संघ की पसंद के जितने भी नामों की चर्चा थी, मौजूदा अध्यक्ष का नाम उसमें कहीं नहीं था।
