हम बाँझ हो रहे हैं!

Categorized as हरिशंकर व्यास कालम

पर सवाल यह है कि क्या हम बाँझ हो रहे हैं या हो चुके हैं? और उससे भी बड़ा सवाल यह कि बाँझ होना आखिर है क्या? मेरा मानना है, बाँझपन को केवल स्त्री या पुरुष की संतान उत्पन्न करने की अक्षमता के अर्थ में नहीं, बल्कि बंजरता, अनुत्पादकता, नाकाबिलियत और असमर्थता के उस गहरे अर्थ-भाव में समझना चाहिए जहाँ जीवन केवल चलता है, पर कुछ रचता नहीं। हम इसकी प्रक्रिया में हैं! और ‘हम’ का अर्थ? हम हिंदू! हिंदू समाज, उसकी भीड़, उसका भविष्य! दिक्कत यह है कि भीड़ की भेड़चाल में हम कुल आबादी के उन आंकड़ों में जीते हैं जो हमारी वास्तविकता, हमारे ज़मीनी सफ़र, हमारी असलियत से ऊपर की परत हैं! इसका मुझे तीन सप्ताह पहले अहसास तब हुआ जब एक गायनकोलॉजिस्ट डॉक्टर ने बताया कि हिंदू न केवल बच्चे कम पैदा कर रहे हैं, उनका लिंग-अनुपात नए सिरे से बिगड़ रहा है। अब लड़के कम हो रहे हैं और लड़कियां अधिक!

सोचिए, महिलाओं की प्रजनन-साक्षी, प्रसूति केंद्र चलाती 35 वर्षों के अनुभव वाली महिला डॉक्टर के इस वाक्य पर कि- वह वक़्त दूर नहीं है जब लड़कियों को लड़के नहीं मिलेंगे!कितनी अविश्वसनीय बात! मगर ऐसा है और इसकी भनक इसलिए नहीं है क्योंकि मुस्लिम आबादी को समेटे प्रजनन के कुल राष्ट्रीय आंकड़ों में जन्मदर ऊंची है तो लिंगानुपात में लड़कों के अधिक पैदा होने की भी तस्वीर है। यदि मुस्लिम आबादी और उसकी जन्मदर को अलग कर आंकड़े बने तब समझ आएगा कि हिंदुओं की कुल प्रजनन-दर पैंदे की ओर है तथा बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, बेटी पैदा करो से 40–50 साल बाद वह लिंगानुपात बनेगा जिससे संभव है-हज़ार लड़कियों के पीछे आठ-नौ सौ लड़के ही हों! हमारा रोना ले-देकर यह है कि मुसलमान ज़्यादा बच्चे पैदा कर रहे हैं। उनमें जन्मदर, उनका प्रतिस्थापन स्तर (Replacement Level) उछलता हुआ है और वे अंततः बहुसंख्या में होंगे। जबकि प्रसूति केंद्रों और गायनकोलॉजिस्ट अनुभव में 1990 से 2025 का हिंदू अंतर यह बताता है कि हम असंतुलित, अविवेकी और बांझ हो रहे हैं।

मसला सिर्फ जन्मदर और आबादी का नहीं है। मुस्लिम समाज में यह नहीं सुनाई देता कि लड़के-लड़कियां शादी करने को तैयार नहीं! या यह कि लड़कों को लड़कियां नहीं मिल रही हैं और लड़कियों को लड़के। मुस्लिम सामाजिकता में भाई-बहन, चाचा-चाची याकि संयुक्त परिवार, घर-परिवार के छाते में भरपूर नाते-रिश्ते हैं। साथ ही मुसलमान न बेरोज़गारी का रोना रोता मिलेगा और न बेगारी करता हुआ। वह मेहनत, काम और कठिनाइयों के सामने बंजर और अनुत्पादक नहीं है। सरकार मुखापेक्षी नहीं है। हिंदू नौजवान आरक्षण, सरकारी नौकरी, सब्सिडी-खैरात या सामान डिलीवर करने जैसे कामों-सेवागत कुलीगिरी में खटक-भटक रहा है। नौजवान पारंपरिक, जातिगत कौशल भूल चुके है। 35–40 साल पहले दिल्ली के निर्माण-कामों में राजस्थान के कारीगरों, मज़दूरों की भीड़ दिखती थी; अब मुसलमान सब करते दिखते हैं। जयपुर जैसे शहर में ठेकेदारों से सुनने को मिलता है कि हमारे लोग मेहनत नहीं करना चाहते। यदि मुसलमान कारीगर, मिस्त्री, मैकेनिक, रिपेयर, रंग-रोगन मज़दूर न हों तो काम ही नहीं चले।

इतना ही नहीं- पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट खेतिहरों के यहां भी झारखंड के मुसलमान नौजवान खेत संभालते मिलेंगे। यों दिल्ली में घरेलू काम करती महिलाओं में बंगाल, झारखंड, ओडिशा की हिंदू आबादी बहुतायत में है, मगर कौशल, हुनर, मज़दूरी के कामों में इन्हीं राज्यों के मुसलमान छाए हुए हैं। और मुसलमान मेहनत के बूते अपनी संपन्नता, खुशहाली से बम-बम है। मेरा मानना है कि मोदी सरकार के ग्यारह वर्षों में यदि फ्री का राशन, खैरात और रेवड़ियां बंटी हैं तो उसका भरपूर फ़ायदा मुस्लिम परिवारों ने अधिक उठाया है। वह मेहनत के अवसरों तथा सरकारी राशन-सब्सिडी-दोनों से मालदार हुआ है।

और ध्यान रहे, वह मोदीकृत भारत-भीड़ से अलग है, इसलिए उसने अपने धर्म, समाज, कायदों की अपनी कसौटियों में व्यवहार बना रखा है। उसके तात्कालिक व दीर्घकालिक हित दो टूक हैं। जबकि हिंदू भीड़, उसका नौजवान क्या करता हुआ है? हाल में बिहार में खूब भीड़ दिखलाई दी। सब सोशल मीडिया, रील्स की जुगाली से आरक्षण, सरकारी नौकरी, बेगारी के सपने पाले हुए? जिनके आगे एक तरफ तेजस्वी का सबको सब देने का भरोसा था, वहीं प्रधानमंत्री का यह आह्वान था कि सावधान-यदि उसे वोट दिया तो कनपट्टी पर कट्टा, फिरौती और रंगदारी में जीवन जीना है!

सोचें, हम लोगों की भीड़ और उसका नेतृत्व-दोनों की कहानी क्या बंजर ज़मीन को नापना नहीं है, लोगों को बांझ बनाना नहीं?

सिनेरियो और भी भयावह है। हाल में अमेरिका, जापान आदि देशों की चिंताओं के साथ वैश्विक पत्रिका ‘दि इकॉनोमिस्ट’ में कई लंबे विश्लेषण मिले। इसका ताज़ा अंक बताता है कि दुनिया एकाकी जीवन में ढल रही है! यानी मनुष्यों-पुरुष और स्त्री-सेक्स छोड़ अपनी वासना, अपना प्रेम-संबंध या शादी की जगह कृत्रिम मशीनी बुद्धिमत्ता (एआई), ओपनएआई के चैटबॉट्स, उनके नकली संगी-साथी ऐप से प्रेम-संबंधों में रम रहे हैं। यहां यह तथ्य ध्यान रहे कि दुनिया में ओपनएआई के सबसे ज़्यादा उपभोक्ता भारत में हैं।

एक Character.ai नाम का ऐप है जिसके दो करोड़ मासिक सक्रिय उपयोगकर्ता हैं। इसके शगल को इस तरह समझें कि पहले लड़के-लड़कियां अपनी मित्र-मंडली (peer group) के साथ समय बिताते हुए उसमें से दोस्त, प्रेमी, सच्चा हितैषी, सलाहकार के भावनात्मक रिश्तों को पकाते थे, ज़िंदगी के सपने बुनते थे। माता-पिता से कन्नी काटते थे। पर अब नई पीढी के नौजवानों के दोस्त, सलाहकार, चिकित्सक, हितैषी, प्रेमी, पति सभी एआई के ऐप (AI companionship apps) हैं। मतलब क्या हुआ? लड़के को लड़की की नहीं और लड़की को लड़के की ज़रूरत नहीं। ये ऐप न केवल ‘सेक्सी संवाद’ करते हैं, बल्कि जल्द ही सत्यापित वयस्कों (adult users) को कामवासना, “इरॉटिका” की अनुमति भी देंगे। ध्यान रहे, जुलाई में एलन मस्क की xAI कंपनी ने Ani नामक एक छेड़छाड़-मस्ती भरा चैटबॉट और Valentine नामक “आकर्षक, रहस्यमय और मन मोहने के लिए लाइसेंस-प्राप्त” बॉट जारी किया था।

जाहिर है आबादी, समाज, नौजवानों का वैश्विक स्तर का संकट है। दुनिया की अलग-अलग नस्लों, धर्मों, समाजों, भीड़ (जापान, चीन से लेकर अमेरिका) में सामाजिक रिश्तों, व्यक्तिगत जीवन, सेहत-स्वास्थ्य, तकनीक-सभी की नई चिंताएं है। ट्रंप ने यदि ईसाइयों में अस्तित्व की चिंता पैदा कर अमेरिकियों को भीड़ में बदला है तो साथ ही खुद ट्रंप, उप राष्ट्रपति वांस, उनका प्रशासन, रिपब्लिकन पार्टी-इस भीड़ की हर उपभीड़ (जैसे ट्रक ड्राइवर) के ऐसे जमावड़े बनवा रही है, जिससे बच्चे पैदा करने का मौका-आकर्षण बने। लोग फटाफट बच्चे पैदा करने लगें। ट्रंप की टोली लोगों की प्रजनन-क्षमता बढ़ाने, नए मेडिकल उत्पाद वितरण के काम भी कर रही हैं। साफ लगता है कि अमेरिका की भक्त भीड आबादी के बांझ बनने को लेकर बेहद फ़िक्रमंद है।

कह सकते हैं, 140 करोड़ लोगों की भीड़ के देश को क्यों यह सब सोचना चाहिए? इसलिए क्योंकि हम हिंदू नकल में जीते हैं। मुझे यह निष्कर्ष निकालने में हिचक नहीं है कि भारत की साठ फ़ीसदी युवा आबादी यदि अमेरिकी ऐप, इंस्टाग्राम, गूगल, सोशल मीडिया, रील्स के नशे में जी रही है तो वह निश्चित ही एआई, ओपनएआई के ऐप से सामाजिक रिश्तों, प्रेम, विवाह, सेक्स, दोस्त आदि की भूख बना रही होगी! क्योंकि बुद्धि, विवेक, समझदारी-सबको तो मोदी सरकार ने बांझ बना डाला है। यों भी हम ऑनलाइन मंडी के सबसे बड़े ग्राहक हैं। एआई के कारण भी दिल-दिमाग, क्रियाकलाप, दिनचर्या-सबमें बुद्धि, समझ, मेहनत आदि बंजर होते हुए हैं। फिर बतौर समाज हम इसलिए भी बांझ हैं क्योंकि जात, उपजात, फ़ॉरवर्ड, दलित, अति-पिछड़े, महादलित के इतने अलग-अलग चैम्बर, इकोसिस्टमों में ज़िंदगी बंध गई है कि भारत सरकार का सचिव हो या विश्वविद्यालय का कुलपति या अध्यापक सभी उस सामाजिक परंपरा, व्यवहार, चाल-चेहरे-चरित्र को त्याग चुके हैं जो जीवित रहने की कभी शर्त या आवश्यकता थी।

शायद इसी कारम सूझता ही नहीं है कि समाज किधर जा रहा है! कहने को धर्म और भक्तिभाव का जलजला है लेकिन असलियत में अंधविश्वासों में अंधे हैं। टोटकों में बंधी नौजवानों की वह भीड़ है जो झूठ और ऐप की अफ़ीम में एकाकी और बांझ होती हुई है। इर्द-गिर्द के घर-परिवारों पर गौर करें। सभी चेहरे अपने space, अपने फ़ोन, अपने लैपटॉप, यानी एकाकी जीवन के उस बंजर, सूखे में हैं जिसमें सामाजिकता, विजडम, सुखांत-विवाह, सुखांत वंशवृद्धि और रिश्तों का पारस्परिक विश्वास व साझा-सब मुरझाते हुए हैं।

जैसे अमेरिका, यूरोप और विकसित देशों में है, वैसा पढ़े-लिखे, खाते-पीते हिंदू परिवारों में भी हो रहा है। ‘दि इकॉनोमिस्ट’ का एक आंकड़ा है कि 25 से 34 वर्ष के अमेरिकी युवाओं में बिना साथी या जीवनसंगिनी के रहने वालों की संख्या पांच दशकों में दोगुनी हो गई है। पुरुषों में 50 प्रतिशत और महिलाओं में 41 प्रतिशत। अब दुनिया में कोई दस करोड़ “सिंगल” लोग हैं। और ये सब मानते हैं कि एकाकीपन ही आत्मनिर्भर जीवन है। सोशल मीडिया और डेटिंग ऐप्स ने युवाओं में उम्मीदों को अवास्तविक, हवा-हवाई उड़ानों वाला बना दिया है तो इंस्टाग्राम पर देखादेखी ने दूसरों के रिश्ते निज जीवन के पैमाने बने हैं। इसलिए लड़के-लड़कियों को अपने उपयुक्त, लायक कोई समझ ही नहीं आता।

सो, सोशल मीडिया ने न केवल सामाजिक कौशल घटाया है, बल्कि भूख और असामाजिकता दोनों को बढ़ाया है। और यह भी बांझ और बंजर होती हक़ीक़त के गंभीर, गहरे साक्ष्य हैं। क्या नहीं?

 


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