बजट नहीं है जरिया

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खबरों के मुताबिक सरकार इस आकलन पर है कि पूंजी केंद्रित उद्योग पर्याप्त रोजगार पैदा नहीं कर रहे, जिससे बेरोजगारी बढ़ रही है। इसलिए अब श्रम केंद्रित कारोबार में निवेश बढ़ाने की जरूरत है। मगर मुद्दा है कि यह निवेश कौन करेगा?

खबरों के मुताबिक श्रम केंद्रित कारोबार को खड़ा करना अब केंद्र की प्राथमिकता है। इसके लिए अगले बजट में खास प्रावधान किए जाएंगे। इस सोच के पीछे यह आकलन है कि पूंजी केंद्रित उद्योग पर्याप्त रोजगार पैदा नहीं कर रहे हैं, जिससे बेरोजगारी की समस्या गंभीर होती जा रही है। इसलिए अब श्रम केंद्रित कारोबार में निवेश बढ़ाने की जरूरत है। मगर मुद्दा है कि यह निवेश कौन करेगा? क्या औपचारिक क्षेत्र को श्रम केंद्रित उद्योग लगाने के लिए प्रेरित किया जा सकता है? जब औपचारिक क्षेत्र में भी निजी निवेश की स्थिति कमजोर बनी हुई है, तो वित्तीय कारोबार में अधिक मुनाफा देखने वाले पूंजीपतियों को प्राथमिकता बदलने के लिए कैसे राजी किया जा सकेगा? तो निगाहें सूक्ष्म, लघु और मझौले दर्जे के ये उद्योगों (एमएसएमई) पर टिकती है।

ये उद्योग श्रम केंद्रित उत्पादन करते हैं। अनुमानतः देश में इनकी संख्या सवा सात करोड़ से ज्यादा है। मगर बजट में इनके लिए क्या किया जा सकता है? अधिक से अधिक सस्ते दर पर कर्ज उपलब्ध कराने की घोषणा हो सकती है। या टैक्स संबंधी रियायतें दी जा सकती हैं। इसके बावजूद बाजार मिलने का सवाल बना रह जाएगा। उत्पाद के लिए बाजार मौजूद नहीं हो, तो कोई कारोबारी ऋण लेकर निवेश के लिए प्रेरित नहीं होता। और इस क्षेत्र को बाजार तक तब नहीं मिल सकता, जब तक उसे चीन के सस्ते सामानों से संरक्षण नहीं मिलता।

श्रम केंद्रित इस सेक्टर की बदहाली में यह एक बड़ा पहलू रहा है, हालांकि नोटबंदी और उलझाऊ जीएसटी ने भी उसके लिए कम समस्याएं खड़ी नहीं कीं। खबरों के मुताबिक सरकार शिक्षा एवं स्वास्थ्य में निवेश बढ़ा कर रोजगार उन्मुख रास्ते पर आगे बढ़ेगी। मगर क्या सचमुच मौजूदा सरकार में इन क्षेत्रों को मुनाफा केंद्रित कारोबारियों से वापस सार्वजनिक क्षेत्र में लाने की इच्छाशक्ति है? अगर हां, तो उसे इस संबंध में व्यापाक नीति परिवर्तन का एलान करना चाहिए। बजट ऐसा करने का जरिया नहीं है। वह अर्थव्यवस्था की दिशा बदलने का माध्यम नहीं है। हां, बजट को निराधार नैरेटिव गढ़ने का मौका जरूर बनाया जा सकता है, जिसमें वर्तमान सरकार को महारत हासिल है।


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