नाकामी में छिपे सबक

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विशेषज्ञों को जरूर मालूम होगा कि कृत्रिम बारिश के लिए आसमान में बादलों की कैसी मौजूदगी जरूरी होती है। इस ज्ञान का इस्तेमाल ना करने के कारण उन्होंने दिल्लीवासियों की अपेक्षाएं बढ़ाईं और उन्हें पूरा करने में नाकाम रहे।

राष्ट्रीय राजधानी में क्लाउड सीडिंग के जरिए कृत्रिम बारिश कराने की कोशिश की नाकामी में कई सबक छिपे हैं। पहले तो इससे यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति जाहिर हुई है कि तकनीक संस्थान एवं विशेषज्ञ सरकारों की मंशा के मुताबिक चलने की ऐसी मानसिकता का शिकार हो गए हैं कि मानों उन्होंने स्वतंत्र राय देने से तौबा कर लिया है। वरना, आईआईटी कानपुर के विशेषज्ञ बिना ठोस परिस्थितियों का आकलन किए ऐसे प्रयास में शामिल नहीं होते, जिसके नाकाम रहने से उनकी भी किरकिरी हुई है। विशेषज्ञों को यह जरूर मालूम होगा कि कृत्रिम बारिश के लिए आसमान में बादलों की कैसी मौजूदगी जरूरी होती है।

इस ज्ञान का इस्तेमाल ना करने के कारण उन्होंने दिल्लीवासियों की अपेक्षाएं बढ़ाईं और उन्हें पूरा करने में नाकाम रहे। वैसे इससे भी बड़ा मुद्दा है प्रदूषण की गंभीर समस्या के बीच दिल्ली सरकार का कृत्रिम वर्षा का ‘इन्वेंट’ आयोजित करने का नजरिया। दिवाली के आसपास दिल्ली में घने स्मॉग का छाना जैसे एक मौसमी घटना बन गया है। ऐसा क्यों होता है, इस बारे में अनेक अध्ययन हुए, जिनसे अब काफी जानकारी उपलब्ध है। प्रदूषण के कारण व्यवस्थागत हैं। इनकी जड़ें परिवहन संबंधी सरकारी नीतियों और हरित तकनीक लागू करने को लेकर प्रशासनिक लापरवाही में हैं। इन कारणों से प्रदूषक तत्वों का उत्सर्जन लगातार होता रहता है। उनसे बनी सतह पर जब पड़ोसी राज्यों में पराली जलाने से आया धुआं और दिवाली पर पटाखों से निकले हानिकारक तत्व जा बैठते हैं, तो वातावरण पर स्मॉग छा जाता है।

स्पष्टतः इस समस्या का फौरी हल तब नहीं हो सकता, जब यह गंभीर रूप में सामने आ जाती है। इसका समाधान नीतिगत बदलाव और निरंतर प्रयासों से ही संभव है। मगर ऐसा करने का मद्दा या नजरिया जब नहीं होता, तब दिखावटी उठाना ही एकमात्र विकल्प रह जाता है। ऐसे ही कदम के तौर पर इस वर्ष कृत्रिम बारिश कराने की कोशिश की गई। मगर उसकी नाकामी ने दूसरी गहराती समस्याओं को भी उजागर कर दिया है। जाहिर यह हुआ है कि देश में ज्ञान- विज्ञान विरोधी गहराते माहौल के बीच साधारण-से कार्यों को संपन्न करना भी दूभर हो गया है।


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