वायदों का बेतुकापन

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घोषणापत्र में कुछ वादे तो ऐसे हैं, जिनसे 2014 का नरेंद्र मोदी का वह सांकेतिक वादा याद आ जाता है, जिसमें उन्होंने विदेशों से काला धन वापस लाकर हर भारतीय के खाते में 15 लाख रुपये डालने की बात कही थी!

कहावत है कि कुछ सपने इतने अच्छे होते हैं कि वे सच नहीं हो सकते। बिहार में महा-गठबंधन के चुनाव घोषणापत्र पर यह कहावत सटीक बैठती है। लगता है कि घोषणापत्र बनाने वाली टीम वादों को आकर्षक एवं सबसे अलग दिखाने की कोशिश में अति उत्साह का शिकार हो गई। तो उसने आसमान से चांद- तारे उतार लाने जैसे वादों को अपने दस्तावेज में शामिल कर दिया। घोषणापत्र में कुछ वादे तो ऐसे हैं, जिनसे 2014 का नरेंद्र मोदी का वह सांकेतिक वादा याद आ जाता है, जिसमें उन्होंने विदेशों से काला धन वापस लाकर हर भारतीय के खाते में 15 लाख रुपये डालने की बात कही थी! तो अनेक लोगों को ‘बिहार का तेजस्वी प्रण’ नाम से जारी घोषणापत्र मोदी की गारंटियों जैसा महसूस हो, तो इसके लिए उन्हें दोष नहीं दिया जाएगा।

बिहार के हर परिवार को सरकारी नौकरी, ठेके और आउटसोर्स पदों पर कार्यरत लोगों की नौकरी को स्थायी करना, मनरेगा की दिहाड़ी 300 रुपये करना, माई- बहिन मान योजना के तहत हर महीने 2,500 रुपये का भुगतान, 200 यूनिट तक सबको फ्री बिजली, हर जिला अस्पताल में सुपर-स्पेशलियटी सेवाएं, 25 लाख रुपये तक का मुफ्त इलाज, हर सब-डिवीजन में महिला कॉलेज की स्थापना, गरीब परिवारों को 500 रुपये में गैस सिलिंडर, 8वीं से 12वीं तक के गरीब छात्रों को फ्री टैबलेट आदि जैसे वादे लोगों को लुभा तो सकते हैं, मगर जब तक यह नहीं बताया जाता कि इनको निभाने का अर्थशास्त्र क्या है, इन पर कम ही लोग भरोसा कर पाएंगे। बिहार में लगभग तीन करोड़ परिवार हैं। सबको एक नौकरी का मतलब है कि राज्य सरकार के कर्मचारियों की संख्या तीन करोड़ तक पहुंच जाएगी। इतने कर्मियों से आखिर काम क्या लिया जाएगा, महागठबंधन अगर यह भी बताता, तो वह अपने घोषणापत्र पर भरोसे की बेहतर गुंजाइश बना सकता था। बहरहाल, जब चुनाव के पहले ही सत्ता पक्ष ने करदाताओं के धन से वोट खरीदने की अभूतपूर्व मुहिम चला दी, तो जाहिर है, महा-गठबंधन के विश्वसनीय वादों के साथ चुनाव लड़ने की संभावना सीमित हो गई। नतीजा वादों की ऐसी झड़ी है, जिसका बेतुकापन खुद जाहिर है।


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