डब्लूपीआई के गिरने का अर्थ है कि थोक खरीद में गिरावट आई। मतलब यह कि कारोबारियों को अगले दो या तीन महीनों में बाजार में मांग बढ़ने की संभावना नजर नहीं आती। ऐसा जीएसटी दरों में कटौती के बावजूद हुआ है।
ताजा सरकारी आंकड़ों के मुताबिक सितंबर में थोक मूल्य सूचकांक (डब्लूपीआई) आधारित मुद्रास्फीति दर गिर कर 0.13 प्रतिशत पर चली गई। उधर बीते महीने उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई दर 1.54 प्रतिशत रही, जिसे आठ साल में सबसे कम बताया गया है। डब्लूपीआई के गिरने का अर्थ है कि थोक खरीद में गिरावट आई। मतलब यह कि कारोबारियों को अगले दो या तीन महीनों में बाजार में मांग बढ़ने की संभावना नजर नहीं आती। ऐसा जीएसटी दरों में कटौती के बावजूद हुआ है। मतलब यह कि जीएसटी का नया ढांचा लागू होने के बाद त्योहारों के सीजन में कुछ सामग्रियों की बिक्री में जो उछाल देखा गया है, व्यापारियों को उसके टिकाऊ होने की उम्मीद नहीं है।
बताया गया है कि सितंबर में खाद्य सामग्रियों- खासकर सब्जियों की कीमत गिरने और अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल का दाम कम होने का असर मुद्रास्फीति दर पर पड़ा। बहरहाल, गौरतलब है कि भारतीय रिजर्व बैंक का घोषित लक्ष्य उपभोक्ता मुद्रास्फीति दर को 4 से 6 प्रतिशत के दायरे में रखना है। इससे अधिक दर महंगाई को असह्य बनाता है, जबकि इससे कम दर का अर्थ है बाजार में मांग की स्वस्थ स्थिति का अभाव। उसका असर निवेश और उत्पादन पर पड़ता है। बाजार विशेषज्ञों के मुताबिक आईटी सेक्टर पर मंडराते अंदेशों के बादल, अमेरिकी टैरिफ के अर्थव्यवस्था पर हो रहे असर, और निजी क्षेत्र के निवेश की कमजोर संभावनाओं का मांग पर प्रतिकूल असर साफ नजर आया है।
आय कर से एक तिहाई करदाताओं को बाहर करने और जीएसटी दरों में कटौती से इसकी भरपाई करने की कोशिश सरकार ने की है, मगर यह अपर्याप्त साबित हो रहा है। मुद्रास्फीति की अपेक्षित दर में गिरावट सिर्फ दो स्थितियों में आती है- या तो आपूर्ति हद से ज्यादा हो अथवा मांग उम्मीद से कम हो। चाहे खाद्य पदार्थ हों या कारखाना उत्पाद- किसी भी मामले में अत्यधिक आपूर्ति की स्थिति नहीं है। तो जाहिर है, थोक एवं उपभोक्ता मुद्रास्फीति दर में रिजर्व बैंक की तय स्वस्थ सीमा से ज्यादा गिरावट कम मांग का
सूचक है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था के जारी संकट का एक और नमूना है।
