वकील राकेश किशोर के प्रकरण से जो भय निर्मित होगा, उसका न्यायिक कार्रवाइयों पर संभावित असर का अंदाजा लगाया जा सकता है। मुद्दा है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपनी और कानून की मर्यादा की रक्षा में अगंभीर रुख क्यों अपनाया है?
न्यायालय की अवमानना की सबसे उदार व्याख्या यह है कि कोई व्यक्ति किसी न्यायिक निर्णय या प्रक्रिया की जुबानी आलोचना करता हो- यहां तक जजों की मंशा पर भी शक जता रहा हो- तो लोकतंत्र में कोर्ट को उसे बदार्श्त करना चाहिए। अदालत को दंडात्मक कार्रवाई तभी करनी चाहिए, जब कोई व्यक्ति भौतिक रूप से न्याय प्रक्रिया में बाधा डाले और हिंसा का सहारा ले। सोमवार को प्रधान न्यायाधीश बी.आर. गवई की अदालत में जो हुआ, वह इस उदार व्याख्या के तहत भी न्यायालय और इस रूप में कानून की सत्ता की अवमानना माना जाएगा।
वकील राकेश किशोर ने जूता चीफ जस्टिस की ओर फेंका, जो उसी बेंच में मौजूद एक अन्य न्यायाधीश के पास से गुजर गया। जूते को कागज के टुकड़े के साथ फेंका गया, जिस पर लिखा था- सनातन का अपमान नहीं सहेंगे। किशोर ने खजुराहो मामले की सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस की भगवान विष्णु संबंधी एक टिप्पणी से नाराज होकर ये हमला किया। साफ है, न्याय प्रक्रिया के दौरान कही गई बात इस हिंसक घटना का कारण बनी। हैरतअंगेज है कि मामला इतना स्पष्ट होने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने अवमानना के प्रावधान के तहत कार्रवाई नहीं की। ना ही कोर्ट के रजिस्ट्रार कार्यालय ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई।
नतीजतन, आरोपी से तीन घंटे पूछताछ के बाद दिल्ली पुलिस ने उसे जाने दिया। बाद में मीडिया से बातचीत में राकेश किशोर ने अपनी कार्रवाई को जायज ठहराया और कहा कि उसे इसका कोई अफसोस नहीं है। सोशल मीडिया पर तो किशोर के समर्थन में एक पूरी मुहिम ही छिड़ गई है। इससे जो भय निर्मित होगा, उसका भविष्य की न्यायिक कार्रवाइयों पर संभावित असर का अंदाजा लगाया जा सकता है। मुद्दा है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपनी और कानून की मर्यादा की रक्षा में कोताही क्यों बरती है? जो हुआ, वह किसी विक्षिप्त व्यक्ति का नियंत्रणहीन भावनाओं के वश में आकर उठाया गया कदम नहीं है। बल्कि उसके पीछे एक सुसंगठित राजनीति है। यह राजनीति कानून के रुतबे को चुनौती दे रही है। अफसोसनाक है कि इसका मुकाबला करने में अगंभीर नजरिया अपनाया जा रहा है।
