एक के खिलाफ दूसरा

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समस्या की जड़ वह आर्थिक दिशा है, जिसमें धन का कुछ परिवारों में संकेंद्रण होता गया है। उस पर ध्यान ना देकर वंचित तबके जातीय आधार पर एक दूसरे के खिलाफ लामबंदी कर रहे हैं। समाज के लिए यह चिंताजनक घटनाक्रम है।

महाराष्ट्र सरकार के सामने एक (मराठा) को मनाएं, तो दूजा (ओबीसी) रूठ जाता है- की ऐसी पहेली है, जिसे सुलझाने में वह अक्षम साबित हो रही है। ओबीसी संगठनों को वह नहीं समझा पाई कि मराठा समुदाय के आरक्षण के लिए जो शासकीय प्रस्ताव (जीआर) उसने दो सितंबर को जारी किया, उससे ओबीसी जातियों की आरक्षण सुविधा पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। नतीजतन, ओबीसी संगठन 10 अक्टूबर को नागपुर में महा-कूच के अपने कार्यक्रम पर अडिग हैँ। देवेंद्र फडणवीस सरकार ने जीआर मराठा नेता मनोज जरांगे पाटिल का अनशन तुड़वाने के लिए जारी किया था। यह जीआर हैदराबाद गजट (1909) और सतारा गजट (1888) के अनुरूप जारी किया गया। उन गजटों में मराठा समुदाय के पिछड़े समूहों- कुनबी- को निर्धारित किया गया था। कुनबी को ओबीसी आरक्षण हासिल है।

ओबीसी संगठनों का दावा है कि नए जीआर के तहत पूरे मराठा समुदाय को कुनबी बताया जा सकता है। तो महाराष्ट्र में मराठा बनाम ओबीसी की सूरत खड़ी हो गई है। अभी कुछ ही समय पहले झारखंड में कुड़मी समुदाय के लोगों ने खुद को अनुसूचित जनजाति घोषित करवाने के लिए चक्का जाम आंदोलन किया। यह आश्वासन मिलने के बाद उन्होंने इसे वापस लिया कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह उनसे सीधी बातचीत करेंगे। इस घटनाक्रम से झारखंड की अनुसूचित जातियां आशंकित हैं। ऐसे विवाद देश के दूसरे हिस्सों में भी हैं। ओबीसी, एससी, एसटी के अंदर वंचित जातियों की अलग श्रेणी बनवाने या उस श्रेणी में अपनी जाति को डलवाने की मुहिम अलग से चल रही है।

अगर इन सारे विवादों का सार देखें, तो कहा जा सकता है कि यह घटते जा रहे केक के टुकड़े पाने की जद्दोजहद है। केक कैसे बड़ा हो और कैसे उसके समान वितरण की प्रणाली बने, यह सवाल सबकी चिंता से बाहर है। जबकि समस्या की जड़ वह आर्थिक दिशा है, जिसके केंद्र में आम जन नहीं हैं और जिससे उत्पन्न धन का कुछ परिवारों में संकेंद्रण होता गया है। उस पर ध्यान ना देकर वंचित तबके जातीय आधार पर एक दूसरे के खिलाफ लामबंदी कर रहे हैं। समाज के लिए यह चिंताजनक घटनाक्रम है।


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