पत्रकारों को जानने के अब क्या मायने ?

कुछ दिन पहले मेरी मुलाक़ात एक महिला से हुई। सामान्य परिचय का सिलसिला शुरू हुआ—वह कॉरपोरेट में काम करती हैं। उन्होंने पूछा, “आप क्या करती हैं?  मैंने कहा, “मैं पत्रकार हूँ।” गर्व से, ठहरकर। और उन्होंने बिना पलक झपकाए, बहुत सहजता से कहा, “ओह, मैं किसी पत्रकार को नहीं जानती।” वह इसे व्यक्तिगत तौर पर… Continue reading पत्रकारों को जानने के अब क्या मायने ?

पर ट्रंप को क्या ‘नोबेल तमंगा’ मिलेगा?

डोनाल्ड ट्रंप के लिए शांति का अर्थ कभी युद्ध समाप्त करना नहीं बल्कि  हेडलाइन जीतना का रहा है। और उसके बाद फिर नोबेल पुरस्कार। इस कार्यकाल की शुरुआत से ही ट्रंप की निगाह ओस्लो पर रही है। राष्ट्रपति पद बस मंच था; तमगा था लक्ष्य। इसलिए वे जब दोबारा ओवल ऑफ़िस लौटे, तो वे एक… Continue reading पर ट्रंप को क्या ‘नोबेल तमंगा’ मिलेगा?

पीओके में विद्रोह है पर दुनिया ने नजरे फैरी हुई!

सितंबर 2025 के आख़िर से पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के मुज़फ़्फ़राबाद, रावलकोट, कोटली, नीलम एक-एक कर ठप पड़ गए। सड़कें बंद, आवाज़ें बेख़ौफ़, नारे गरजते हुए: “कश्मीर हमारा है, हमीं उसकी क़िस्मत का फ़ैसला करेंगे।” यह शोर नहीं, हताशा, निराशा और टूटना है। चालीस सालों में सबसे बड़े नागरिक उभारों में से एक सामने है मगर… Continue reading पीओके में विद्रोह है पर दुनिया ने नजरे फैरी हुई!

इस समय तो आतंक भी कूटनीति !

अजीब समय है। ज़्यादा पुरानी बात नहीं है जब आतंकवाद दुनिया की सबसे बड़ी चिंता थी। “वॉर ऑन टेरर” में हर देश की हिस्सेदारी थी। न्यूयॉर्क से लेकर मुंबई तक हर हमला इस बात को फिर से पक्का करता था कि आतंक बुराई है और दुनिया इसके ख़िलाफ़ एकजुट है। दुश्मन को एक धार्मिक पहचान… Continue reading इस समय तो आतंक भी कूटनीति !

“नया भारत” उत्सव मनाता नहीं, उत्सव अभिनय करता है!

खुशहाली, समृद्धि आखिर होती क्या है? खासकर उस देश के लिए जहां जीतने का शौर है जीतता दिखता है लेकिन भीतर से थका, खोखला है? कागज़ों पर, सोशल मीडिया पर, प्रेस कॉन्फ़्रेंसों और सरकारी चमक-दमक वाले आयोजनों में भारत की अर्थव्यवस्था तेज़ी से दौड़ रही है। उसकी कूटनीति आत्मविश्वासी है, उसकी वैश्विक छवि दमक रही… Continue reading “नया भारत” उत्सव मनाता नहीं, उत्सव अभिनय करता है!

हम युद्ध में लड़े नहीं पर शामिल है!

दो साल हो गए है। एक ऐसे युद्ध के, जिसके हम सब, पूरी दुनिया किसी न किसी रूप में गवाह बनी हैं। इसे सभी ने हथियार उठाकर नहीं, बल्कि स्क्रीन उठाए देखा है। हथेली में थमी उस चमकदार स्क्रीन पर हमने सब होते देखा।  भय और भयावहता को लाइव फीड की तरह देखा। फिर धीरे-धीरे… Continue reading हम युद्ध में लड़े नहीं पर शामिल है!

अब रावण नहीं सच जलता है!

समय बहुत शोरगुल से भरा है, ख़ासतौर से धार्मिक अनुष्ठानों-पर्वो से। त्योहार अब केवल उल्लास-उमंग के नहीं रहे, वे अब “अपनी पहचान” के प्रदर्शन हैं। राष्ट्रवाद ने धर्म को ऐसी दूसरी खाल की तरह पहना है कि दोनों में भेद करना भी कठिन  है। इस संगम को मैंने हाल में कागज़ और रंग में देखा।… Continue reading अब रावण नहीं सच जलता है!

न खेल भावना, न राष्ट्रवाद!

भारत में क्रिकेट धर्म है और वह जैसे ही भारत बनाम पाकिस्तान होता है तो कट्टर, तेज़, उन्मादी, उग्र हो जाता है। मैं क्रिकेट की शौकीन नहीं हूँ। न स्कोर देखती हूँ, न खिलाड़ियों का विश्लेषण करती हूँ। लेकिन इस देश में प्रशंसक होना ज़रूरी नहीं है। इसलिए भारत–पाकिस्तान मैच हुआ तो दीवानगी वायरस जैसे… Continue reading न खेल भावना, न राष्ट्रवाद!

गड्डे, खड्डे में धंसी भारत फ्रेम!

यह वह कहानी है जिसे अख़बार के पहले पेज की एक खबर नहीं बल्कि पूरे पेज की खबर होना चाहिए। पर शायद ही कभी हो। यह संपादकीयों में जरूर जगह पाती है पर उन हेडलाइनों में नहीं जो छाती ठोककर बताते हैं कि भारत ने ब्रिटेन को पछाड़ दिया है या हम जल्द संयुक्त राष्ट्र… Continue reading गड्डे, खड्डे में धंसी भारत फ्रेम!

संयुक्त राष्ट्र का ढ़लता जलवा!

किसने सोचा था कि इंसान की तरह कोई संस्था बूढ़ी हो सकती है?  और उम्र के साथ जहाँ बुद्धिमत्ता और गहराई आनी चाहिए, वही उलटा हो। वह चमक-दमक में ढलने लगे। विश्व राजनीति, व्यवस्था की पंचायत संयुक्त राष्ट्र अब अस्सी की उम्र में स्थिरता से खड़ी नहीं है बल्कि काँप रही है। न्यूयार्क के ईस्ट… Continue reading संयुक्त राष्ट्र का ढ़लता जलवा!

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