भारत को ऐसी सोच चाहिए जो व्यक्ति को केवल डेटा बिंदु नहीं, एक स्वायत्त, समझदार, गरिमामय नागरिक माने। एक ऐसी लोकतांत्रिक सोच जो यह माने कि प्रगति केवल आंकड़ों से नहीं, आशाओं और अवसरों से भी मापी जाती है।
क्यों शिक्षा और तकनीक को नेतृत्व करना चाहिए?
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एजाज़ ग़नी (मेरे जेएनयू के मित्र और समकालीन, जो ऑक्सफोर्ड से पीएचडी के बाद वर्ल्ड बैंक से रिटायर हुए) ने अपनी ताज़ा वर्किंग पेपर “भारत कैसे अधिक नौकरियां पैदा करे और विकसित भारत 2047 को हासिल करे?” में भारत के “नौकरी विरोधाभास” (Jobs Paradox) की फॉरेंसिक व्याख्या की है। मतलब एक ऐसी अर्थव्यवस्था जो आगे बढ़ रही है, जबकि करोड़ों युवा बेरोज़गारी या कम उत्पादक कार्यों में फंसे हुए हैं। फर्म-स्तर के आँकड़ों के आधार पर ग़नी ने तीन “संरचनात्मक अवरोध” पहचाने हैं—“संपार्श्विक जाल” (जहाँ कर्ज़ भूमि पर टिका हो), “नियामक बौनेपन” (जहाँ कंपनियाँ बढ़ नहीं पातीं), और महिलाओं पर “त्रि-कर भार” (सुरक्षा, देखभाल और संस्थागत बाधाएँ)।
ग़नी का समाधान है एक “नया सामाजिक अनुबंध”—जो डिजिटल सार्वजनिक ढाँचे (Digital Public Infrastructure) पर आधारित हो, जहाँ सूचना-आधारित ऋण प्रणाली (Information-Based Lending), एक पोर्टेबल “मोबिलिटी शील्ड” और एक राष्ट्रीय जॉब्स काउंसिल हो जो प्रोत्साहनों को संरेखित करे। विश्लेषण तेज़ है, लेकिन यह उसी पुरानी अभिजात्य दृष्टि को प्रतिबिंबित करता है—जहाँ अर्थशास्त्री और नीति-निर्माता गरीबी को दूर से, एक तरह की करुणामयी या अमूर्त दृष्टि से देखते हैं। अक्सर वे गरीबों को तर्क की कसौटी पर आंकते हैं—जैसे ज़िंदगियाँ समीकरणों में बदली जा सकती हों।
प्रतिभा लेकर पैदा हुए ये लोग, लेकिन जिनसे अवसर छीन लिए गए, उन्हें हम कहते हैं—“स्किल अप करो।” जबकि उन्हें वास्तव में जो चाहिए था, वह थी गुणवत्ता-युक्त शिक्षा—ऐसी शिक्षा जो न केवल उनके जीवन की दिशा बदल सकती थी, बल्कि राष्ट्र की प्रगति का मार्ग भी। इस सुधारात्मक अंकगणित में व्यक्ति आंकड़े बन जाते हैं।
मानव-केंद्रित दृष्टि बनाम उद्यम-केंद्रित सुधार
यहां तक कि सबसे संवेदनशील नीति-प्रस्तावों में भी सुधार की इकाई के रूप में “उद्यम” (Enterprise) को ही प्रमुख माना गया है—न कि “व्यक्ति” को। सरकारें और पॉलिसी थिंक टैंक लगातार इस बात की गणना करते हैं कि कैसे अधिक नौकरियां पैदा होंगी, कैसे निवेश आएगा, कैसे उद्योग बढ़ेंगे—लेकिन इस सवाल से बचते हैं कि आखिर शिक्षा का स्तर क्यों इतना निम्न है? ऐसा क्या हुआ कि आज़ादी के 75 साल बाद भी सरकारी स्कूलों में एक तीसरी कक्षा का छात्र मुश्किल से दूसरी कक्षा की किताब पढ़ पाता है?
भारत में शिक्षा व्यवस्था का असली संकट गुणवत्ता का है—बुनियादी साक्षरता और गणना-क्षमता का। हमारी प्राथमिक शिक्षा प्रणाली बच्चों को वह बुनियादी कौशल नहीं दे पा रही है, जो उन्हें आगे बढ़ने के लिए चाहिए। इसके बिना ‘स्किल डेवलपमेंट’, ‘इनोवेशन’, ‘उद्यमिता’ जैसे शब्द खोखले हो जाते हैं।
सच्चाई यह है कि शिक्षा के बिना कोई भी नीति नहीं टिक सकती। अगर 21वीं सदी की भारतीय अर्थव्यवस्था को अपने जनसांख्यिकीय लाभांश (Demographic Dividend) को वास्तविक संपदा में बदलना है, तो उसे सबसे पहले एक बात को स्वीकारना होगा—मनुष्य को केंद्र में रखे बिना कोई भी नीति न्यायसंगत या प्रभावी नहीं हो सकती।
डिजिटल बुनियादी ढांचे का असली इम्तिहान
बीते कुछ वर्षों में भारत ने डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना (Digital Public Infrastructure – DPI) के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है। आधार, यूपीआई, डिजिलॉकर, कोविन—इन सबने नागरिक सेवा वितरण को तेज़ और पारदर्शी बनाने में मदद की है। लेकिन डिजिटल सिस्टम की असली परीक्षा इसमें नहीं है कि वह कितनी कुशलता से डेटा ट्रांसफर करता है, बल्कि इसमें है कि वह किसे केंद्र में रखता है—राज्य को या नागरिक को?
भारत में डिजिटल परिवर्तन अक्सर “सक्षम राज्य” के विचार के इर्द-गिर्द बुना जाता है—एक ऐसा राज्य जो तकनीक के ज़रिए अपने नियंत्रण, निगरानी और निष्पादन की क्षमता बढ़ा सके। लेकिन यह कल्पना कभी-कभी नागरिक को सिस्टम में एक नंबर मात्र बना देती है।
समस्या यह नहीं कि सरकार तकनीक का इस्तेमाल कर रही है, समस्या यह है कि उस तकनीक का उद्देश्य क्या है? क्या वह व्यक्ति की गरिमा, सुविधा और सुरक्षा बढ़ाने के लिए है? या केवल डेटा संग्रहण, निगरानी और टारगेटिंग के लिए?
अगर डिजिटल भविष्य को सच में समावेशी और मानव-केंद्रित बनाना है, तो हमें फिर से वही बुनियादी सवाल पूछना होगा—क्या हमारी तकनीकी व्यवस्था एक ऐसे समाज को जन्म दे रही है जो बच्चों को बेहतर अवसर दे, युवाओं को सही कौशल दे, और बुजुर्गों को गरिमा दे सके?
डिजिटल बुनियादी ढांचे का असली इम्तिहान
बीते कुछ वर्षों में भारत ने डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना (Digital Public Infrastructure – DPI) के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है। आधार, यूपीआई, डिजिलॉकर, कोविन—इन सबने नागरिक सेवा वितरण को तेज़ और पारदर्शी बनाने में मदद की है। लेकिन डिजिटल सिस्टम की असली परीक्षा इसमें नहीं है कि वह कितनी कुशलता से डेटा ट्रांसफर करता है, बल्कि इसमें है कि वह किसे केंद्र में रखता है—राज्य को या नागरिक को?
भारत में डिजिटल परिवर्तन अक्सर “सक्षम राज्य” के विचार के इर्द-गिर्द बुना जाता है—एक ऐसा राज्य जो तकनीक के ज़रिए अपने नियंत्रण, निगरानी और निष्पादन की क्षमता बढ़ा सके। लेकिन यह कल्पना कभी-कभी नागरिक को सिस्टम में एक नंबर मात्र बना देती है।
समस्या यह नहीं कि सरकार तकनीक का इस्तेमाल कर रही है, समस्या यह है कि उस तकनीक का उद्देश्य क्या है? क्या वह व्यक्ति की गरिमा, सुविधा और सुरक्षा बढ़ाने के लिए है? या केवल डेटा संग्रहण, निगरानी और टारगेटिंग के लिए?
अगर डिजिटल भविष्य को सच में समावेशी और मानव-केंद्रित बनाना है, तो हमें फिर से वही बुनियादी सवाल पूछना होगा—क्या हमारी तकनीकी व्यवस्था एक ऐसे समाज को जन्म दे रही है जो बच्चों को बेहतर अवसर दे, युवाओं को सही कौशल दे, और बुजुर्गों को गरिमा दे सके?
नीति की भाषा बदलें—मनुष्य को केंद्र में लाएं
भारत की विकास गाथा को नया मोड़ देने के लिए यह ज़रूरी है कि हम नीति निर्माण की भाषा को ही दोबारा गढ़ें—उस भाषा को जिसमें नागरिक केवल ‘लाभार्थी’ या ‘उपभोक्ता’ नहीं, बल्कि एक गरिमा-युक्त सहभागी हो। यह बदलाव मात्र शब्दों का नहीं, सोच का है।
आज शिक्षा और तकनीक को लेकर जो चर्चाएं हैं, वे अक्सर ‘प्रतिस्पर्धा’ और ‘नौकरी’ के चश्मे से देखी जाती हैं। पर सवाल यह है—क्या शिक्षा केवल बाज़ार की ज़रूरतें पूरी करने का माध्यम है? या वह एक नागरिक को अपने अधिकार, अपने कर्तव्य, और अपने समाज के प्रति संवेदनशील बनाने का ज़रिया भी है?
नीतियों की जड़ में अगर केवल आर्थिक वृद्धि या वैश्विक प्रतिस्पर्धा है, तो हम एक ऐसा समाज बना सकते हैं जो तेज़ तो होगा, पर खोखला। हमें चाहिए ऐसा विकास जो संविधान के मूल्यों—न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुता—को केंद्र में रखे।
भारत को ऐसी सोच चाहिए जो व्यक्ति को केवल डेटा बिंदु नहीं, एक स्वायत्त, समझदार, गरिमामय नागरिक माने। एक ऐसी लोकतांत्रिक सोच जो यह माने कि प्रगति केवल आंकड़ों से नहीं, आशाओं और अवसरों से भी मापी जाती है।
