हकीकत यह है कि जो राजनीतिक अधिकार मिले होते हैं, समाज की बहुसंख्यक आबादी उनके उपभोग के लिए भी सक्षम नहीं होती। उन्हें सक्षम बनाने का दायित्व राज्य नहीं लेता। ऐसे में सारे अधिकार वास्तव में प्रभु वर्ग के लिए सीमित रह जाते हैं। इसीलिए ऐसे चुनावी लोकतंत्र में बनने वाली सरकारें प्रभु वर्ग के हित में काम करती हैं। अक्सर सरकार बदलने के बाद आर्थिक नीतियां नहीं बदलतीं, तो उसकी यही वजह है।
2025 को ऐसे साल के रूप में याद रखा जाएगा, जिसने दुनिया के (आर्थिक एवं सैनिक) शक्ति संतुलन में हो रहे आमूल परिवर्तन पर से परदा हटा दिया- इस हद तक कि चीजें साफ होकर सबके सामने आ गईं। इन बदलावों के झटके आज दुनिया भर में महसूस किए जा रहे हैं। मगर गंभीरता से देखें, तो जहां एक तरफ दूसरे महायुद्ध के बाद बनी विश्व व्यवस्था के बिखरने से पैदा हुई अस्थिरता है, तो वहीं दूसरी तरफ नई बहु-ध्रुवीय विश्व व्यवस्था के उदय एवं लोकतंत्र के वैकल्पिक मॉडल नई आशा का स्रोत बन कर हमारे सामने आए हैं।
बेशक, दुनिया इस वक्त अस्थिरता और उथल-पुथल के एक ऐसे दौर में है, जैसा दूसरे विश्व युद्ध के बाद नहीं देखा गया। इसमें कई सुलगते स्थल (hot spot) उभरे हैं। इनमें से कुछ ने सीधे सैन्य युद्ध का रूप लिया है, कई अन्य जगहों पर युद्ध का साया मंडरा रहा है। पिछले सवा दो साल से हमने गज़ा में इजराइल के हाथों फिलस्तीनी आवाम का मानव संहार देखा है, जिसे पश्चिमी देशों- खासकर अमेरिका- का खुला समर्थन मिला। पौने चार साल से उन देशों ने यूक्रेन को अपना एक अन्य मोर्चा बना रखा है। प्रशांत क्षेत्र, दक्षिण चीन सागर, और ताइवान जलडमरूमध्य में हालात लगातार सुलगे हुए हैं। सूडान और कॉन्गो में यह युद्ध कुछ अलग रूप में उभरा है और फिलहाल वेनेजुएला के खिलाफ अमेरिकी मोर्चाबंदी युद्ध के साये को लैटिन अमेरिका में ले गई है। इन सबके साथ ही अमेरिका की तरफ से छेड़ा गया व्यापार युद्ध है।
ये उथल-पुथल यह बताती है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद दुनिया के संचालन की जो व्यवस्थाएं की गईं, वे आज टकराव को टालने या विश्व शक्तियों के बीच न्यूनतम आम सहमति बनाने में विफल हो चुकी हैँ। इनमें संयुक्त राष्ट्र और विश्व व्यापार संगठन जैसे मंच भी हैं, जो सैन्य या व्यापार युद्ध में कोई सार्थक हस्तक्षेप करने में विफल रहे हैँ। इन मंचों को निष्प्रभावी बनाने बनाने में मुख्य भूमिका अमेरिका और उसके साथी देशों की रही है, जिन्होंने समस्याओं का आम सहमति से हल निकालने का रुख अपनाने के बजाय अपने हित में और ताकत के जोर से दुनिया पर अपना वर्चस्व बनाए रखने को प्राथमिकता दी है।
1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका ने अपनी आर्थिक एवं सैनिक शक्ति की बदौलत खुद को विश्व व्यवस्था का केंद्र बनाया। नई विश्व आर्थिक व्यवस्था के संचालन के लिए विश्व व्यापार संगठन को गठित करने में उसकी निर्णायक भूमिका रही। यह संगठन दुनिया भर पर उन नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों को थोपने के मकसद से बनाया गया, जिन्हें ‘Washington Consensus’ नाम से जाना जाता है। अमेरिकी वित्त मंत्रालय (treasury), अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) और विश्व बैंक के बीच बनी उपरोक्त सहमति को आईएमएफ के जरिए ढांचागत समायोजन (structural adjustment) कार्यक्रम के जरिए आगे बढ़ाया गया।
इस कथित एक-ध्रुवीय दुनिया में अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र को भी मन-माफिक नीतियों पर अमल का उपकरण बनाने की कोशिश की। मगर 2003 में इराक पर हमला करने के उसके इरादे पर जब वहां प्रतिरोध हुआ, तो उसने एकतरफा कार्रवाई (unilateral action) और खतरे के अनुमान के आधार पर हमला करने (preemptive strike) के सिद्धांत पर अमल शुरू कर दिया। वहां से आगे बढ़ी इस प्रवृत्ति ने इस सदी का तीसरा दशक आते-आते संयुक्त राष्ट्र को महज टॉक-शो के एक मंच में तब्दील कर दिया है।
इतना ही नहीं बतौर राष्ट्रपति अपने दूसरे कार्यकाल में डॉनल्ड ट्रंप 1648 में वेस्टफालिया संधि से उभरे राष्ट्रीय संप्रभुता के सिद्धांत को ही चुनौती देते दिख रहे हैँ। वेनेजुएला के खिलाफ सैन्य घेराबंदी करने के क्रम में उन्होंने अंतरराष्ट्रीय संबंध में अब तक मान्य रहे सिद्धांतों को खुलेआम चुनौती दी है। दरअसल, उनके इस कार्यकाल में अमेरिका यह संदेश दे रहा है कि पूरी दुनिया में वह कहीं भी मनमाने ढंग से सैन्य दखल दे सकता है और अपने हितों के मुताबिक व्यापारिक कदम उठा सकता है। जिस तरह व्यापार समझौता करने वाले देशों को ट्रंप प्रशासन ने अमेरिका में सैकड़ों बिलियन डॉलर का निवेश करने का वादा करने के लिए मजबूर किया है, वह एक तरह के प्रोटेक्शन मनी की डिमांड की मिसाल है। इसमें यह संदेश भी छिपा है कि अमेरिकी दुनिया पर के संसाधनों पर अपना ‘स्वाभाविक अधिकार’ मानता है। ट्रंप संयुक्त राष्ट्र की विभिन्न एजेंसियों और ऐसे तमाम मंचों से औपचारिक रूप से अमेरिका को हटाना शुरू कर चुके हैं, जहां पहले बहु-पक्षीय विचार-विमर्श की गुंजाइशें होती थीँ।
यह अमेरिकी कदमों का ही नतीजा है कि विश्व व्यापार के नियम तय करने और उसे लागू करने में डब्लूटीओ की भूमिका आज अप्रासंगिक हो चुकी है। ट्रंप ने 2019 यानी राष्ट्रपति के रूप में अपने पहले कार्यकाल के समय से डब्लूटीओ में जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया रोक दी, जिससे वहां लाए गए विवादों का निपटारा असंभव हो गया है। राष्ट्रपति जो बाइडेन भी अपने चार साल के कार्यकाल में डब्लूटीओ को अप्रासंगिक बनाने की नीति पर चलते रहे। ट्रंप ने अपने दूसरे कार्यकाल में एकतरफा व्यापार एवं टैरिफ युद्ध छेड़ कर व्यापार में डब्लूटीओ की भूमिका को लगभग समाप्त ही कर दिया है। इस तरह unilateral action और preemptive strike की नीतियां व्यापार के दायरे में भी लागू कर दी गई हैं।
यह सवाल काबिल-ए-गौर है कि अमेरिका “नियम आधारित” अंतरराष्ट्रीय संबंधों का नकाब उतार कर क्यों फेंक रहा है? दरअसल, इस पूरी परिघटना पर गौर करें, तो साफ यह होता है कि सोवियत संघ के विघटन के बाद के दौर में अमेरिका ने व्यापार एवं भू-राजनीति में अपना विश्व वर्चस्व कायम करने की जो अपेक्षा की, शुरुआती सफलता के बाद उसमें रुकावटें आ गईं। इस घटनाक्रम के दो खास पहलू हैः
- 2008 में महामंदी (Great Recession) ने नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था की जड़ें हिला दीं। उससे पैदा हुए आर्थिक संकट से अमेरिका और यूरोप आज तक नहीं उबर पाए हैं। इससे उबरने के लिए नोट छपाई (Quantitative Easing) का जो उपाय वहां अपनाया गया, उससे दूसरी तरह की समस्याएं खड़ी हुई हैँ। नतीजा यह हुआ है कि अमेरिका और यूरोप में आर्थिक विषमता और सामाजिक तनाव बढ़े हैं और इन कारणों से राजनीतिक व्यवस्था उत्तरोत्तर दबाव में आती चली गई है।
- इन कारणों से वहां धुर-दक्षिणपंथी ताकतों का तेजी से उभार हुआ है, जिनके असर से वहां तमाम प्रगतिशील नीतियों एवं जलवायु परिवर्तन रोकने जैसे वैश्विक उद्देश्यों को लगभग तिलांजलि दे दी गई है। ट्रंप खुद इस परिघटना का एक प्रमुख प्रतीक हैँ।
- मगर इस घटनाक्रम का एक दूसरा पहलू भी है। इसी दौर में एक अभूतपूर्व परिघटना के रूप में चीन का उदय हुआ है। यह उदय उसके अपने विशिष्ट आर्थिक मॉडल के साथ हुआ है। हकीकत यह है कि उसकी बनी ताकत से ही आज विश्व व्यवस्था में परिवर्तन का विशिष्ट आधार तैयार हुआ है। इस घटनाक्रम ने ग्लोबल साउथ में ठोस सहयोग की जमीन तैयार की है, जिसका इजहार ब्रिक्स+, यूरेशियन इकॉनमिक यूनियन, और शंघाई सहयोग संगठन जैसे खास मंचों की स्थापना एवं विस्तार के रूप में हुआ है। विश्व व्यवस्था की नई लिखी जा रही कथा के नायक आज ये गैर-पश्चिमी मंच ही हैं।
- इस परिघटना के आगे बढ़ने से दुनिया पर उपनिवेशवाद के आरंभिक दिनों से बाकी दुनिया पर कायम हुए पश्चिम के वर्चस्व की जड़ें अब हिलने लगी हैं। आज जो अस्थिरता, उथल-पुथल और युद्ध का नजारा हमारा सामने है, उसकी पृष्ठभूमि इसी ऐतिहासिक परिवर्तन से तैयार हुई है।
- पश्चिमी नव-उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद को चुनौती नई बात नहीं है। 20वीं सदी के मध्य में तीसरी दुनिया के नए आजाद हुए देशों ने नई विश्व व्यवस्था बनाने की पहल की थी। बांगडुंग सम्मेलन में इसका घोषणापत्र भी उन्होंने जारी किया। लेकिन अब समझ यह बनी है कि तब उनके पास पश्चिमी वर्चस्व को चुनौती देने की भौतिक शक्ति नहीं थी। चीन ने अपनी समाजवादी अर्थव्यवस्था से उस शक्ति को विकसित कर आज इस परिवर्तन के लिए ठोस जमीन तैयार की है।
उपनिवेशवाद और उसके बाद के दौर में साम्राज्यवाद के प्रेरक पहलू आर्थिक एवं व्यापारिक थे। उपनिवेश कायम करने और उसे बनाए रखने की ताकत पश्चिम को वहां हुई औद्योगिक क्रांति और तकनीक आविष्कार एवं विकास में उसकी बनी पकड़ से मिली थी। इस वैश्विक परिघटना को पहली बड़ी चुनौती 1917 में रूस में बोल्शेविक क्रांति से मिली। बोल्शेविक क्रांति ने मानव विकास एवं श्रमिक वर्ग के लोकतंत्र की जो मिसाल दुनिया के सामने रखी, वह दुनिया भर के श्रमिकों के लिए प्रेरणास्रोत बना। उससे बनी परिस्थितियों में पूंजीवादी देशों के शासक वर्ग सोशल डेमोक्रेसी या डेमोक्रेटिक सोशलिज्म की नीतियां अपनाने पर मजबूर हुए। उससे वहां लोकतंत्र एवं मानव विकास की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति हुई। मगर जब सोवियत संघ के विघटन से समाजवाद के सपने को गहरा झटका लगा और पूंजीपति वर्ग श्रमिक वर्ग की चुनौती अपने को सुरक्षित मानने लगा, तो ‘Washington Consensus’ के तहत उदारीकरण, निजीकरण एवं भूमंडलीकरण की नीतियों को शासक वर्गों ने अपना लिया। उन नीतियों का परिणाम पश्चिम की उत्पादक क्षमता में ह्रास, आर्थिक संकट गैर-बराबरी में तेज इजाफा और सामाजिक उथल-पुथल के रूप में सामने आया है।
दूसरी तरफ चीन ने अपने खास ढंग से समाजवाद (Socialism with Chinese Characteristic) के साथ ना सिर्फ अपना कायाकल्प किया है, बल्कि वैश्विक स्तर पर नव-उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद को चुनौती देने वाले देशों का सहारा भी बना है। इसी घटनाक्रम का परिणाम है कि आर्थिक एवं वित्तीय प्रतिबंध जैसे पश्चिम के हथियार आज भोथरे हो गए हैँ। रूस से लेकर ईरान और वेनुजुएला तक तथा अफ्रीका में साहेल क्षेत्र में बरकीना फासो, नाइजर, माली और सेनेगल तक विभिन्न देश अपनी संप्रभुता को जताने की स्थिति में पा रहे हैं, तो उसके पीछे चीन के उदय की एक मजबूत पृष्ठभूमि मौजूद है। इस परिघटना के कारण ग्लोबल साउथ में नव-उपनिवेशवाद से मुक्त होने की एक नई चेतना का प्रसार होता दिखता है।
और कही कारण है कि अर्थव्यवस्था का चीन का मॉडल आज गहरी दिलचस्पी का विषय है। इसके खास पहलू हैः
– अर्थव्यवस्था में राज्य की मार्गदर्शक भूमिका और नियोजन।
– भूमि पर राजकीय स्वामित्व।
– वित्तीय एवं मौद्रिक नीतियों पर राजकीय नियंत्रण।
– राज्य व्यवस्था (अथवा सरकार) की वैधता (legitimacy) का अलग पैमाना- यानी जन स्तर में उत्तरोत्तर सुधार।
नव-उदारवाद के गढ़ अमेरिका में भी आज अगर औद्योगिक नीति, उद्योगों को सब्सिडी और उत्पादन में आत्म-निर्भरता की बातें फिर से होने लगी हैं, तो यह नव-उदारवाद की विफलता एवं नियोजित आर्थिक ढांचे की सफलता का ही प्रमाण है।
यह कहना अभी जल्दबाजी होगी कि दुनिया ने नव-उदारवाद को अलविदा कह दिया है। इसका तो कोई संकेत नहीं है कि 1940-50 के दशकों की तरह dirigiste आर्थिक मॉडल (जिसमें राज्य की अर्थव्यवस्था में निर्णायक भूमिका होती है) की पूंजीवादी देशों में वापसी हो रही है। उनके सोशल डेमोक्रेसी की तरफ जाने के भी फिलहाल संकेत नहीं हैं। मगर अभी जो बात साफ है, वो यह कि नव-उदारवाद के जरिए सामाजिक संपन्नता के दावे निराधार हो चुके हैं, और साथ ही इन नीतियों पर चले देश अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में भी आज पिछड़ते नजर आ रहे हैं। इससे चीन के आर्थिक मॉडल में दुनिया भर के देशों की दिलचस्पी बढ़ रही है।
और इसी के साथ लोकतंत्र के स्वरूप पर फिर से बहस खड़ी हो रही है।
- क्या पांच साल में एक बार वोट डालने का अधिकार होना, जिसमें चुनने के लिए विकल्प के तौर पर शासक/प्रभु वर्ग के हित साधने वाली पार्टियां/नेता ही मौजूद होते हैं, यही लोकतंत्र का श्रेष्ठ रूप है?
- एक ऐसी व्यवस्था, जिसमें राजनीतिक अधिकारों को आर्थिक एवं सामाजिक अधिकारों पर संवैधानिक तरजीह मिली हुई हो, क्या सचमुच सबके लिए लोकतंत्र कही जा सकती है? हकीकत यह है कि जो राजनीतिक अधिकार मिले होते हैं, समाज की बहुसंख्यक आबादी उनके उपभोग के लिए भी सक्षम नहीं होती। उन्हें सक्षम बनाने का दायित्व राज्य नहीं लेता। ऐसे में सारे अधिकार वास्तव में प्रभु वर्ग के लिए सीमित रह जाते हैं। इसीलिए ऐसे चुनावी लोकतंत्र में बनने वाली सरकारें प्रभु वर्ग के हित में काम करती हैं। अक्सर सरकार बदलने के बाद आर्थिक नीतियां नहीं बदलतीं, तो उसकी यही वजह है।
- इसके बरक्स वे व्यवस्थाएं रही हैं, जहां पहले आर्थिक एवं सामाजिक अधिकारों को तरजीह दी गई हो, उन अधिकारों को मुहैया कराने के लिए जरूरी आर्थिक नीतियों पर अमल किया गया हो, और जहां उन नीतियों के कारण लोगों के आर्थिक- सांस्कृतिक जीवन स्तर में उत्तरोत्तर सुधार हुआ हो। इन व्यवस्थाओं के तहत स्थानीय स्तर पर प्रतिनिधित्व एवं निर्णय प्रक्रिया में आम जन को भागीदारी देने के हुए प्रयोग खास अहमियत रखते हैं। ऐसे प्रयोग पूर्व सोवियत संघ से शुरू होकर अनेक समाजवादी देशों में हुए और आज भी हो रहे हैं।
- इनके बीच फिलहाल चीन की Whole Process Democracy (समग्र लोकतंत्र) का प्रयोग आज दुनिया का ध्यान खींच रहा है। यह चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में 1949 में हुई क्रांति के बाद वहां स्थापित जन लोकतंत्र (People’s Democracy) का ताजा रूप है।
साल 2025 में अर्थव्यवस्था के स्वरूप एवं लोकतंत्र की धारणा को बहस के केंद्र में ला दिया। बारीक नजर डालें, तो जाहिर होगा कि इन दोनों पहलुओं में गहरा संबंध है। ऐसी अर्थव्यवस्था के साथ ही वास्तविक लोकतंत्र साकार हो सकता है, जिसके केंद्र में इनसान हो। इसे दूसरे रूप में इस तरह कहा जा सकता है कि आम जन के जीवन स्तर में उत्तरोत्तर बेहतरी जो व्यवस्था सुनिश्चित नहीं कर सकती, उसके लोकतंत्र होने का दावा संदिग्ध बना रहेगा।
