गणित में शून्य, अनंत, स्वतंत्र नौ अंकों एवं दशमलव स्थान मान पद्धति की खोज प्राचीन भारत में ही हुई थी। प्राचीन भारतीय ग्रंथों में दस गुणोत्तरी संख्या यथा लक्षांश, सहस्त्रांश, शतांश आदि शब्दावली भी प्रयोग में लाई गई है, जिससे दशमलव की परिकल्पना वैदिक युग से ही परिलक्षित होती है। दस गुणोत्तरी संख्या प्रणाली भारतीय मनीषियों की इस जगत को अद्भुत देन है।.. रामानुजन ने अपने 32 वर्ष के अल्प जीवनकाल में लगभग 3,900 परिणामों (समीकरणों और सर्वसमिकाओं) का संकलन किया। उनके सबसे महत्त्वपूर्ण कार्यों में पाई की अनंत श्रेणी शामिल है।
भारतीय परम्परानुसार मयूर पंख पर चांदोवे तथा नाग के सिर पर नागमणि के शोभित होने की भांति ही सभी वेदांग शास्त्रों में गणित की शोभा है, जो समस्त प्रकार के विज्ञानों के शीर्ष पर है। गणित की इस महत्ता से परिचित होने और जीवन में इसकी आवश्यकता की समझ विकसित होने के कारण ही प्राचीन भारत में परमाणु पदार्थ संरचना के मुख्य घटक के साथ ही गणित में शून्य, अनंत, स्वतंत्र नौ अंकों, ज्यामिति, त्रिकोणमिति, सममिति, बीजगणित संबंधी संख्या सिद्धांत, अनंत श्रृंखला, गणितीय विश्लेषण, गणितीय सूत्र निर्माण, गति के नियमों, गुरुत्वाकर्षण व ग्रहगति एवं अति सूक्ष्म वस्तुओं के मापन से संबंधित पर्याप्त वर्णन और उनका इतिहास प्राचीन भारतीय ग्रंथों में वृहतायत से अंकित प्राप्य हैं।
स्वायम्भुव मन्वंतर के प्रारंभ में 1,96,08,53,125 वर्ष पूर्व तिब्बत के मानसरोवर में मनुष्योत्पत्ति के बाद परमात्मा के द्वारा ऋषियों के हृदयों में समाधि अवस्था में प्रकाशित विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ वेद में इस ब्रह्मांड में मौजूद सभी सत्य विद्याओं का मूल रूप विद्यमान है। दाशमिक पद्धति में 10 संख्याएं 0, 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9 होती हैं। इनके मिश्रण से अनंत संख्याएं बन सकती हैं। इन संख्याओं का क्रम से विवेचन यजुर्वेद अध्याय 39 मंत्र 6 में अंकित है-
सविता प्रथमेऽहन् अग्निर्द्वितीये वायुस्तृतीयऽआदिचतुर्थे चन्द्रमा: पञ्चमऽऋतु:षष्ठे मरूत: सप्तमे बृहस्पतिरष्टमे। मित्रो नवमे वरुणो दशमंऽइन्द्र एकादशे विश्वेदेवा द्वादशे। -यजुर्वेद 39/6।
इस मंत्र में एक से लेकर बारह दिनों का उल्लेख है। इसमें कहा गया है कि मृत्यु के पश्चात पुनर्जन्म न्यूनतम 12 दिनों बाद होता है। इसकी विशेषता यह है कि अंक एक से बारह तक क्रम से दिए हैं। वेद के अन्य कई मंत्रों में भी संख्याओं का वर्णन है। यजुर्वेद 40/17, 17/30, अथर्ववेद 10/8/29 में शून्य का उल्लेख स्पष्ट रूप से किया गया है। कहा गया है- ॐ खम ब्रह्म।
ॐ व खम दोनों परमात्मा को अंकित करते हैं। वेदांग ज्योतिष में खम को शून्य के रूप में परिभाषित किया है, जिसके बिना परमात्मा अनंत को नहीं जाना जा सकता है। परमात्मा को जानने के लिए चेतना में शून्य उत्पन्न करना अनिवार्य होता है। शून्य का विलोम अनंत होता है। अनंत अनंत से ही उत्पन्न होता है तथा इसके कुछ भी जोडऩे पर अथवा इसमें से कुछ भी घटाने पर यह अनंत ही रहता है। वाल्मिकी रामायण के अष्टावीन सर्ग 33/37/39 में 1 के बाद 62 शून्य रखकर अति दीर्घ संख्या शत महौध का उल्लेख है। अन्य प्राचीन ग्रंथों में भी शून्य व अनंत के संबंध वृहत वर्णन उपलब्ध हैं। आर्यभट, बौधायन, पिंगल कात्यायन आदि प्राचीन गणितज्ञों ने भी शून्य का उपयोग संख्याओं में किया है।
स्पष्ट है कि गणित में शून्य, अनंत, स्वतंत्र नौ अंकों एवं दशमलव स्थान मान पद्धति की खोज प्राचीन भारत में ही हुई थी। प्राचीन भारतीय ग्रंथों में दस गुणोत्तरी संख्या यथा लक्षांश, सहस्त्रांश, शतांश आदि शब्दावली भी प्रयोग में लाई गई है, जिससे दशमलव की परिकल्पना वैदिक युग से ही परिलक्षित होती है। दस गुणोत्तरी संख्या प्रणाली भारतीय मनीषियों की इस जगत को अद्भुत देन है। प्रथम दशगुणोत्तर संख्या अर्थात बाद वाली संख्या पहले से दस गुना अधिक। इसका वर्णन यजुर्वेद के 17वें अध्याय के दूसरे मंत्र में अंकित है। इस मंत्र में ईट का उदाहरण देते हुए परमात्मा द्वारा गणित-विद्या का उपदेश दिया गया है, जिसमें संख्या का क्रम निम्नानुसार है- एक, दश, शत, सहरुा, अयुत, नियुत, प्रयुत, अर्बुद्, न्यर्बुद्, समुद्र, मध्य, अन्त और परार्द्ध। इस प्रकार परार्द्ध का मान हुआ10^12 अर्थात दस खरब।
द्वितीय शतगुणोत्तर संख्या अर्थात बाद वाली संख्या पहले वाली संख्या से सौ गुना अधिक। इस संदर्भ में ईसा पूर्व पहली शताब्दी के ललित विस्तर नामक बौद्ध ग्रंथ में गणितज्ञ अर्जुन और बोधिसत्व का वार्तालाप है। अर्जुन के द्वारा एक कोटि के बाद की संख्या पूछे जाने पर बोधिसत्व कोटि अर्थात 100 के आगे की शतगुणोत्तर संख्या का वर्णन करते हैं-
100 कोटि, अयुत, नियुत, कंकर, विवर, क्षोम्य, निवाह, उत्संग, बहुल, नागबल, तितिलम्ब, व्यवस्थान प्रज्ञप्ति, हेतुशील, करहू, हेत्विन्द्रिय, समाप्तलम्भ, गणनागति, निखध, मुद्राबाल, सर्वबल, विषज्ञागति, सर्वज्ञ, विभुतंगमा, और तल्लक्षणा। इस प्रकार तल्लक्षणा का मान हुआ- 10^53 अर्थात एक के ऊपर 53 शून्य के बराबर का अंक।
तृतीय कोटि गुणोत्तर संख्या अर्थात बाद वाली संख्या पहले वाली संख्या से करोड़ गुना अधिक। कात्यायन के पाली व्याकरण के सूत्र 51, 52 में कोटि गुणोत्तर संख्या का उल्लेख है। इस संदर्भ में जैन ग्रंथ अनुयोगद्वार में भी वर्णन है। यह संख्या निम्न प्रकार है-कोटि-कोटि, पकोटी, कोट्यपकोटि, नहुत, निन्नहुत,अक्खोभिनि, बिन्दु, अब्बुद, निरष्बुद, अहह, अबब, अतत, सोगन्धिक, उप्पल कुमुद, पुण्डरीक, पदुम, कथान, महाकथान और असंख्येय। असंख्येय का मान है- 10^140 यानी एक के ऊपर 140 शून्य वाली संख्या।
भारतीय ग्रंथों में उपलब्ध इन साक्ष्यों और भारत के आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त, भास्कराचार्य प्रथम और द्वितीय, श्रीधर आदि अनेक गणितज्ञों के गणितीय गणना गतिविधियों के अध्ययन से भारत में प्राचीन काल में अंक विद्या के अति विकसित अवस्था का पता चलता है, जबकि शेष विश्व 10,000 से अधिक संख्या नहीं जानता था। गणना की दृष्टि से प्राचीन ग्रीकों को ज्ञात सबसे बड़ी संख्या मीरीयड (10,000) था। और रोमनों को ज्ञात सबसे बड़ी संख्या 1000 थी। जबकि भारत में कई प्रकार की गणनाएं प्रचलित थीं। गणना की ये पद्धतियां स्वतंत्र थीं, तथा वैदिक, जैन, बौद्ध ग्रंथों में वर्णित इन पद्धतियों के कुछ अंकों में नाम की समानता थी, परंतु उनकी संख्या राशि में अंतर आता था।
इस प्रकार सिद्धप्राय है कि भारत ने न केवल विश्व को शून्य, अनंत, स्वतंत्र नौ संख्याएं, अति दीर्घ संख्याएं तथा अति लघु संख्याएं ही नहीं दी, बल्कि उन्हें नाम भी दिए, जो कालांतर में यूरोपियन देशों में जाकर प्रसिद्ध हुए। ऐतिहासिक विवरणियों के अनुसार सन 770 में उज्जैन निवासी कनक नामक विद्वान ने खलीफा अब्बास सयीयद अलमनसूर के निमंत्रण पर बगदाद जाकर भारतीय संख्याओं का ज्ञान दिया, जो मिश्र होकर पश्चिम देशों में अरेबिक संख्याओं के रूप में पहुंचा और जहां उसे इल्मे हिंदसा के नाम से जाना गया। यही कारण है कि कारण विश्व के अनेक गणितज्ञ तथा वैज्ञानिक भारत के प्रति समय- समय पर अत्यंत आभार व्यक्त करते रहे हैं, जिन्होंने शून्य, अनंत तथा दशमलव स्थान मान की अद्भुत खोज की, जिसकी कल्पना आर्किमिडीज एवं अपॉलोनियस भी नही कर पाए थे।
संसार के सर्वप्राचीन ग्रंथ वेद में उपलब्ध गणित विद्या के आधार पर ही गणित के अन्य ग्रंथों की रचना प्राचीन भारत में की गई। भाषा विज्ञानियों के अनुसार संस्कृत का उन शब्द अरबी व ग्रीक में बदल कर वन हुआ। संस्कृत का शून्य शब्द अरबी में सिफर हुआ, ग्रीक में जीफर और अंग्रेजी में जीरो हो गया। इस प्रकार भारतीय अंक दुनिया में छा गए। संस्कृत का जीवा अरबी में ज़ेबा बना, जेब अर्थात पॉकेट यूरोपियन लोग छाती पर बनाते थे, इसलिए ग्रीक लोगों ने इसे सिनुस कहा, जो अंग्रेजी में साईन बन गया।
प्राचीन भारत में ही किसी वृत्त की परिधि और उसके व्यास के अनुपात के बराबर संख्यात्मक मान गणितीय नियतांक की खोज की गई थी, जिस गणितीय नियतांक को वर्तमान में पाई (π) कहा जाता है। इसके अनुसार यदि किसी वृत्त का व्यास एक हो तो उसकी परिधि पाई के बराबर होगी। इस पाई की कहानी एक गणितीय रहस्य की वह यात्रा है, जो पहिए के आविष्कार से शुरू होकर भारत, चीन, मिस्र, बेबीलोन आदि प्राचीन सभ्यताओं में इसके अनुमानित मानों और फिर आर्यभट्ट, आर्किमिडीज, श्रीनिवास रामानुजन जैसे गणितज्ञों द्वारा इसे अधिक सटीकता से परिभाषित करने तक जाती है, और अंततः इसे एक अपरिमेय संख्या (जिसके अंक कभी खत्म नहीं होते) के रूप में स्थापित किया गया, जिसे 1706 में विलियम जोन्स ने ग्रीक अक्षर π से दर्शाया और फिर यह गणित के कई क्षेत्रों और पॉप संस्कृति का हिस्सा बन गया। लेकिन भारत में तो चौंथी- पांचवीं सदी में ही भारतीय विद्वान आर्यभट्ट ने पाई के मान को दशमलव के चार अंकों (3.1416) तक बता दिया था, जब यूरोप में दशमलव प्रणाली का विकास हो रहा था। पाई के क्षेत्र में महान भारतीय गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन (22 दिसम्बर 1887- 26 अप्रैल 1920) के योगदान को भी भुलाया नहीं जा सकता, जिन्होंने पाई के मान को निकालने के लिए अत्यंत सटीक सूत्र दिए, जो कुछ ही पदों में बहुत अधिक दशमलव स्थानों तक मान देते थे।
गणित के क्षेत्र में श्रीनिवास रामानुजन के असाधारण योगदान को सम्मान देने और गणित के महत्व को समझाने, प्रगति व विकास के प्रति लोगों में जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से भारत सरकार के द्वारा 26 फरवरी 2012 को मद्रास विश्वविद्यालय में महान भारतीय गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन के जन्म की 125 वीं वर्षगांठ के समारोह के उद्घाटन समारोह के अवसर पर 22 दिसम्बर को राष्ट्रीय गणित दिवस के रूप में मनाए जाने की घोषणा की गई। तब से हर वर्ष 22 दिसम्बर को भारत में राष्ट्रीय गणित दिवस विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में गणितीय गतिविधियां, कार्यशालाएं, प्रतियोगिताएं, व्याख्यान, क्विज़, नाटक आदि अनेक शैक्षिक कार्यक्रमों के साथ मनाया जाता है, और उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है।
उल्लेखनीय है कि ट्रिनिटी कॉलेज कैम्ब्रिज़ में अध्ययन के लिए वर्ष 1913 से ही ब्रिटेन में निवासरत श्रीनिवास रामानुजन वर्ष 1918 में लंदन की रॉयल सोसाइटी के सदस्य चुने गए थे, जो ब्रिटेन की रॉयल सोसाइटी के सबसे कम उम्र के सदस्यों में से एक थे। रामानुजन ने अपने 32 वर्ष के अल्प जीवनकाल में लगभग 3,900 परिणामों (समीकरणों और सर्वसमिकाओं) का संकलन किया। उनके सबसे महत्त्वपूर्ण कार्यों में पाई की अनंत श्रेणी शामिल है। उन्होंने पाई के अंकों की गणना करने के लिए परंपरागत तरीकों से अलग कई सूत्र प्रदान किये। अनेक चुनौतीपूर्ण गणितीय समस्याओं को हल करने के लिए नवीन विचार प्रस्तुत किये। और खेल सिद्धांत के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
विशुद्ध रूप से अंतर्ज्ञान पर आधारित खेल सिद्धांत में उनके योगदान को गणित के क्षेत्र में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। गणित में रामानुजन संख्या अर्थात 1729 को रामानुजन का सबसे बड़ा योगदान माना जाता है। यह ऐसी सबसे छोटी संख्या है, जिसको दो अलग-अलग तरीके से दो घनों के योग के रूप में लिखा जा सकता है। हाइपर जियोमेट्रिक सीरीज़, रीमान सीरीज़, एलिप्टिक इंटीग्रल, मॉक थीटा फंक्शन, डाइवर्जेंट सीरीज़ का सिद्धांत आदि रामानुजन के अन्य उल्लेखनीय योगदानों में शामिल हैं, जिनका गणित क्षेत्र सदैव ही कृतज्ञ रहेगा। लेकिन दुखद है कि ऐसे महान गणितज्ञ की सरकारी- प्रशासकीय उपेक्षा के कारण लंबी बीमारी के बाद भारत लौटने के पश्चात 26 अप्रैल 1920 को मात्र 32 वर्ष की आयु में ही निधन हो गया।
