पिछले पचास वर्षों से देसी भारतीय नेताओं के पास केवल दलीय लड़ाई, गद्दी छीन-झपट की तिकड़में भर हैं। एक-दूसरे के प्रति द्वेष, झूठे-सच्चे आरोपों की पोटली है। उसी से लोगों को उकसाना और वोट-बटोरन मंसूबे ही उन की फुलटाइम चिन्ता दिखती है।… नेताओं का परनिंदक, शेखीबाज, और अतीतजीवी होना हिन्दू समाज की असमर्थता का संकेत है।
एक तरफ आए दिन मैकॉले, कोलोनियलिज्म, आदि की निन्दा। दूसरी तरफ भारत विश्वगुरू था, वेदों में आधुनिक साइंस की बातें हैं, आदि। इस तरह की बातों का प्रचार, व्याख्यान, प्रकाशन देश में फैला हुआ है। दोनों प्रवृत्तियों में एक चीज समान है — पीछे देखना। जिस का मतलब सामने की चुनौतियों से कन्नी कटाना भी हो जाता है।
यह आधुनिक भारत का सामान्य दृश्य है। दोनों प्रवृत्तियाँ देसी नेताओं की देन हैं, जो अब राष्ट्रीय विशेषता सी बन गई है। आम हिन्दू नेता पीछे देखने वाले रहे हैं। अतीतजीवी हैं। प्रायः अप्रासंगिक, अतिरंजित बातें करते। किसी न किसी को कोसना, नीचा बताना, या डींग हाँकना। इस के लिए उदाहरण व या बहाने प्रायः सदियों, दशकों पहले के व्यक्तियों, घटनाओं, परिघटनाओं से लेना। अर्थात उन के पास भविष्य तो दूर, वर्तमान की भी दृष्टि नहीं है। ऊपर से आराम पसंद। कोसने, निन्दा करने में भी किसी वर्तमान दुष्ट या खतरनाक शत्रु पर चुप्पी। सुरक्षित निशाने चुनना: जैसे मैकॉले या नेहरू।
इसीलिए, उन्हें संसद में किसी वर्तमान समस्या, दुष्ट, या प्रत्यक्ष खतरे पर चर्चा करते नहीं पाया जाता। वे प्रायः किसी निरापद प्रतिद्वंद्वी नेता, दल, या किसी दिवंगत विदेशी को कोसते मिलते हैं।
इसी तरह, कोलोनियलिज्म को कोसना भी विचित्र है! हर साल हजारों युवा प्रतिभाओं के विदेश चले जाने, और प्रायः उधर ही बस जाने पर वे ध्यान तक नहीं देते। उन्हें योग्य और प्रतिभाशाली व्यक्तियों को देश में रखने, प्रोत्साहित करने की परवाह नहीं। उलटे ऐसे ‘भारतवंशियों’ पर गर्व करते हैं जो बाहर अमेरिकी कंपनियों में अच्छे पदों पर हैं। तब उन्हें ध्यान नहीं आता कि यह ‘उपलब्धि’ यहाँ मैकॉले नीति की देन है।
उपनिवेशवाद को कोसने वाले इस से अबोध लगते हैं कि अमेरिका, यूरोप, अरब जाकर रहने वाले लाखों भारतीय स्वेच्छा से विदेशी शासन में रहने जाते हैं! जहाँ वे बरसों, दशकों, या आजीवन बिना राजनीतिक अधिकार के दूसरे दर्जे के नागरिक जैसे रहते हैं। इसी पर भारतीय नेता गर्वित होते हैं! वरना, ‘भारतवंशी’ कर्मचारियों, शोधकर्ताओं, कारीगरों, आदि पर इतराना क्या है?
तब तो भारत में अंग्रेजी राज ही बेहतर था! जब विदेशी का शासन पसंद है, यदि अपनी सुरक्षा और उन्नति का मार्ग खुला हो — तब यह अंग्रेजी राज ने दिया ही था। बड़े-बड़े भारतीय महापुरुषों ने लिखा है कि सदियों बाद भारतीय जनगण को अंग्रेजी राज ने शान्ति, सुरक्षा, उन्नति दी। हिन्दुओं को ऊपर से सामाजिक, राजनीतिक समानता भी मिली जो उन्हें मुगल राज में नहीं थी।
परन्तु सब कुछ जोड़कर विवेकशील विचार करना — मानो देसी नेताओं की क्षमता से बाहर रहा है। वे रुटीन काम, दूसरों पर प्रतिक्रिया, और कठिन मुद्दों पर चुप रहते हैं। अपनी ओर से कोई रचनात्मक विचार या काम उन की चिन्ता नहीं रही है। सभी दलों के अधिकांश नेता ऐसे ही हैं। विचार-दुर्बल और पदलोलुप। चाहे पद राजकीय हो या दलीय।
संसद के सत्र खँगालें, या मीडिया हेडलाइनें जमा करें — दशकों से यही मिलेगा। पूरे परिदृश्य में क्रमशः गिरावट भी आती गई। देसी नेताओं द्वारा 1947 में सत्ता-ग्रहण बाद दो दशक तक स्थिति कुछ भिन्न थी। तब आर्थिक योजनाएं, विदेश नीति, अंतरराष्ट्रीय समस्याएं, आदि पर विचार में नेता लोग समय देते थे। इस का कारण ब्रिटिश राज की शिक्षा और परंपरा थी जिस के पास दृष्टि थी। जिस के अनुकरण और प्रतिद्वंद्विता में ही हमारे वे नेता बने जिन्होंने अंग्रेजों के बाद देसी राज शुरू किया। अतः 1960 के दशक के अंत तक संसदीय विमर्श में जो विविधता और गंभीरता थी भी, उस का श्रेय ब्रिटिश शिक्षण-संसर्ग को है जो हमारे नेताओं को यहाँ से लेकर इंग्लैंड तक मिलता रहा था। उदारवाद, संविधानवाद, स्थानीय प्रशासन, लोकतंत्र, वोट, समाजवाद तथा स्कूल से विश्वविद्यालय तक की संपूर्ण शिक्षा और अखबार तक — सब कुछ ब्रिटिशों से मिला था।
इसलिए, 1970 के दशक से हमारे नेताओं के विचारों और आम बौद्धिक चर्चा में जो गिरावट आई, वह विशुद्ध देसी चीज है। इस में कोई भविष्य-दृष्टि, कोई मौलिकता नहीं है। इसीलिए, गत पचास सालों से देसी दृष्टि के नाम पर कोई दस्तावेज नहीं मिलता। उस के बदले केवल बदलते नारे हैं। ‘समाजवाद’ और ‘हिन्दू राष्ट्र’ कब का भुलाया जा चुका। ‘गैर-कांग्रेसवाद’, ‘इन्दिरा हटाओ’, ‘लोकतंत्र बचाओ’, आदि भी केवल कुर्सी-कब्जे की लड़ाइयों के नाम थे। किसी में विजन नहीं था। अब तो वे नारे बनाने में भी असमर्थ हैं! जो बनते हैं, इतने खोखले कि चार साल भी नहीं टिक पाते। नेता खुद उसे चुपचाप छोड़ देते हैं। फिर जुमलों, तमाशों से काम चलाते हैं। सेल्फी, मूर्तियाँ, आदि के झुनझुने लोगों को थमाते है। यह सब वैचारिक खालीपन के ही संकेत हैं।
अब किसी नेता के पास नेहरू की तरह, उधार का भी सही, कोई विचार नहीं जिस पर उन की निष्ठा हो। इसीलिए, नेहरू, राजेन्द्र प्रसाद, राजगोपालाचारी, क.मा. मुंशी, लोहिया, आदि की तरह गंभीर पुस्तकें लिखना भी अब नेताओं द्वारा नहीं होता। उन में अब सुसंगत लेख लिखने लायक भी खोजने से मिलते हैं। जबकि ब्रिटिश राज में और उस के मोमेंटम में 1960 तक हर दूसरा-तीसरा बड़ा भारतीय नेता लेखक, संपादक भी हुआ करता था। उस के बाद से क्या हुआ?
पिछले पचास वर्षों से देसी भारतीय नेताओं के पास केवल दलीय लड़ाई, गद्दी छीन-झपट की तिकड़में भर हैं। एक-दूसरे के प्रति द्वेष, झूठे-सच्चे आरोपों की पोटली है। उसी से लोगों को उकसाना और वोट-बटोरन मंसूबे ही उन की फुलटाइम चिन्ता दिखती है।
1970 के दशक के बाद, धीरे-धीरे ‘समाजवाद’ और ‘गुटनिरपेक्षता’ बेकार हो जाने पर देसी दिमाग में, देश-विदेश के बारे में, कोई सार्थक विचार नहीं आया। केवल इन्दिरा, कांग्रेस, संघ, या ब्राह्मणों की निन्दा आ गई। इस्लामी तुष्टिकरण और जातिवाद से वोट फसल काटने पर सब कुछ केंद्रित होता गया। ‘हिन्दुत्व’ का शिगूफा छोड़ने वाले खुद ही उस से भाग कर ‘विकास’ पर आ गए। सभी नारे, शिगूफे वोट की लड़ाई रहे हैं। विदेश दौरों पर भी नेता अपने प्रतिद्वंद्वी की छीछालेदर करते हैं। उन्हें देश के प्रतिनिधि होने का बोध तक भूल जाता है। तब राष्ट्रीय दृष्टि के नाम पर क्या है?
वस्तुत: देसी राज में शिक्षा, संस्कृति, और आंतरिक सुरक्षा संबंधी बिन्दु भी असल चिन्ता से दूर होते गये। फलत:, कश्मीर, असम, पंजाब, बंगाल, बिहार, आदि की अपनी-अपनी तरह दुर्गति होती गई। उस पर चिन्ता के बदले वह भी सत्ता और विपक्ष के बीच तू-तू-मैं-मैं के हीले के सिवा कुछ खास नहीं रही। सब मिल कर किसी विषय पर रचनात्मक रूप से सोचें — ऐसा संसद में पिछली बार कब हुआ था?
अंग्रेज शासक ब्रिटिश भारत के हित की दृष्टि से चीन, रूस, और अरब तक पर नजर रखते थे। उस की व्यवस्था करते थे, अड़ते थे। देसी शासक एक ही पीढ़ी में अधिकांश ऐसे आ गये जो अपने लोकसभा क्षेत्र से आगे देखने में असमर्थ थे! अनेक मंत्री अपने लोकसभा क्षेत्र को नियामतें देकर अपना अगला चुनाव पक्का करने, तथा पार्टी आलाकमान की आरती उतारने से अधिक कुछ जरूरी नहीं समझते। देसी राज के आम नेता ऐसे हो गये, जिन्हें ‘अखिल भारतीय’ चिन्ता छू तक नहीं गई थी! यह संसद और विधानसभाओं की कार्रवाइयों का आकलन भी दिखा सकता है कि गत पचास सालों में वहाँ क्या चर्चाएं हुई, और नहीं हुई? कम्युनिज्म के विघटन, इस्लामी आतंकवाद के प्रसार, या कश्मीर से हिन्दुओं के सफाए पर कभी कोई विचार हुआ? यदि नहीं, तो इस पर किसी राष्ट्रीय नीति का अभाव रहना तय था।
यह बात कितनी भी अ-देशभक्तिपूर्ण लगे, पर संपूर्ण भारत की चिन्ता अंग्रेज शासकों ने ही की। उन्होंने ही पहले इसे राजनीतिक रूप से एक किया। जो ज्ञात इतिहास में कभी नहीं हुआ था। फिर पूरे देश के लिए समेकित आर्थिक, मौद्रिक, न्यायिक, शैक्षिक, संचार, और बाह्य-आंतरिक सुरक्षा तंत्र, प्रशासनिक अधिकारियों का प्रशिक्षण, नियमावली, आदि बनाई। यह भी ज्ञात इतिहास में कभी नहीं हुआ था। वह सारा तंत्र 1947 से देसी शासकों ने सहर्ष अपना लिया। उस से बेहतर सोचने में वे असमर्थ थे। बल्कि उस की गुणवत्ता भी बनाए न रख सके!
क्योंकि देसी शासकों में अंग्रेजों वाली ‘राष्ट्रीय’ दृष्टि, प्रजा के प्रति निष्पक्ष चिन्ता, प्रशासनिक क्षमता एवं दृढ़ता नहीं थी। राज चलाने की दृष्टि से अनाड़ी तो वे थे ही, उन में वह आत्मसम्मान भी नहीं था, जो राजपद की जिम्मेदारी को पद पर बने रहने की लालसा से ऊपर रखे। अधिकांश देसी नेता पद पर बने रहना उस की जिम्मेदारी निभाने से ऊपर समझते रहे हैं। यह ब्रिटिश शासकों से ठीक उलटा था। कोई भी ब्रिटिश शासक या प्रशासक विफल रहने या बड़ी गलती होने पर खुद हट जाता, या हटा दिया जाता था। यह चलन देसी राज में जल्द लुप्त हो गया।
इस प्रकार, शासन चलाने की दृष्टि से अयाने, अप्रशिक्षित होने के साथ-साथ नेताओं में निजी स्वार्थ की वरीयता ने देसी नीतियों को व्यवहारत: रामभरोसे कर दिया। अधिकांश देसी नेता — गाँधी, नेहरू से लेकर आज तक — प्रायः उपदेश, आदर्शवाद, आइडियोलॉजी, और आडंबर के दीवाने रहे हैं। उन में वह तटस्थ विवेक, राज्य-हित और प्रजा-हित की कटिबद्धता, उस के लिए दृढ़ता और आत्म-शिक्षण सिरे से नहीं था जो ब्रिटिश शासकों की सामान्य विशेषता थी।
किसी ब्रिटिश वायसराय या उस के मंत्री को लफ्फाजी, उपदेश, या डींग हाँकते नहीं पाया जा सकता — जैसी देसी नेताओं की विशेषता, उन की पहचान ही रही है। इसी तरह, तब और अब के भारतीय विश्वविद्यालयों की स्थिति की भी तुलना करें। हर कहीं, दृष्टि और दृष्टिहीनता की झलक मिल सकती है। मैकॉले ने भारतीयों में क्लर्क ही नहीं, विद्वान, वैज्ञानिक, कवि, और चिंतक भी बनाए। देसी राज ने प्रोफेसरों को भी क्लर्क बनाकर, और भी निचले क्लर्कों की मर्जी पर छोड़ दिया है।
देसी नेता स्वतंत्रता के आठ दशक बाद भी मैकॉले का रोना रोते हैं। दशकों पहले दिवंगत कांग्रेस नेताओं को कोसते हैं, जिन के सत्ता में रहते उन की तुलना भगवान राम और देवी दुर्गा से करते थे। यह अपने नकारेपन और भीरुता का इश्तहार है। वे न मैकॉले को हटा सके, न नेहरू के जीवित रहते उन के काम की आलोचना का साहस दिखा सके।
ऐसे लोगों द्वारा औपनिवेशिकता को कोसना और राष्ट्रवाद का दंभ खोखला है। उन की ‘राष्ट्र’ की समझ में केवल अपना दल है। यह केवल दलगत स्वार्थ और गद्दीवाद है। जिस के लिए वे धर्म, शिक्षा, संस्कृति को भी इस्तेमाल के सिवा किसी खास मतलब का नहीं मानते। वायसराय बेंटिक का सहायक मैकॉले एक बड़ा कवि और इतिहासकार था। देसी नेताओं के सलाहकार कौन रहे हैं?
ठीक है कि नेता भी समाज की ही देन हैं। पर समाज के अच्छे-बुरे गुणों को बढ़ाने या घटाने का काम नेता ही करते हैं। वे समाज की उन्नति और अवनति के जिम्मेदार हैं। सत्तर साल पहले नेहरू-पूजा से लेकर आज नेहरू-निन्दा तक नेता लोग ही करते रहे हैं। समाज उन का विवश अनुगामी है। इसीलिए नेताओं का परनिंदक, शेखीबाज, और अतीतजीवी होना हिन्दू समाज की असमर्थता का संकेत है।
