संसद अमेरिका की और भारत की, इतना फर्क!

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किसी भी लोकतंत्र में, सत्ता में कोई भी पार्टी क्यों न हो, ऐसे अधिकारियों को बुलाने, उन्हे जवाबदेह बनाने के कई लाभ हैं। सबसे पहले, यह जवाबदेही सुनिश्चित करता है। चुने हुए प्रतिनिधि कार्यकारी अधिकारियों से सवाल कर सकते हैं, जो जनता की ओर से होता है। इससे भ्रष्टाचार, दुरुपयोग या नीतिगत असफलताओं पर रोशनी पड़ती है। उदाहरण के लिए, अमेरिका में पटेल की सुनवाई से एपस्टीन फाइलों पर जनता को जानकारी मिली, जो अन्यथा छिपी रह सकती थी।

अमेरिका की व्यवस्था और राजनीति में हाल फिर एक ऐसी घटना घटी जब एफबीआई निदेशक काश पटेल को कांग्रेस की हाउस ज्यूडिशियरी कमिटी ने तलब किया। दिसंबर 2025 में ही उनसे जवाब तलब हुआ।  पटेल को जेफरी एपस्टीन फाइलों, एफबीआई की पारदर्शिता और अन्य विवादास्पद मुद्दों पर अमेरिकी सांसदों ने कड़े सवाल किए। सुनवाई के दौरान एक एपस्टीन वीडियो चलाया गया, जिससे सदन में हंगामा हुआ। पटेल ने दावा किया कि एपस्टीन की फाइलों में इस बात का कोई विश्वसनीय सबूत नहीं है कि उन्होंने अन्य लोगों को ट्रैफिकिंग की गई पीड़िता महिलाएं प्रदान की थी।  और जांच पुराने गैर-अभियोजन समझौतों से बंधी हुई है।

उन्होंने कहा कि ट्रंप प्रशासन ने ही एपस्टीन के खिलाफ मामले को खोला था जबकि पहले के प्रशासन (ओबामा और बाइडेन) ने फाइलें जारी नही कीं। डेमोक्रेट सांसदों ने पटेल पर ट्रंप को बचाने का आरोप लगाया, जबकि पटेल ने इनकार किया। उन्होने कहा कि सभी कानूनी रूप से जारी करने योग्य जानकारी साझा की जा रही है। सुनवाई में एजेंटों की पुनर्नियुक्ति, चार्ली किर्क की हत्या की जांच और एफबीआई के राजनीतिकरण जैसे मुद्दे भी उठे, जहां पटेल ने अपराध दर में कमी और गिरफ्तारियों में वृद्धि का हवाला दिया।

यह सुनवाई अमेरिकी लोकतंत्र की एक प्रमुख विशेषता को दर्शाती है। कांग्रेस याकि संसद द्वारा कार्यकारी अधिकारियों को सार्वजनिक रूप से जवाबदेह ठहराना वहां परंपरा है। काश पटेल, जो ट्रंप के करीबी सहयोगी हैं और एफबीआई निदेशक के रूप में नियुक्त हुए, को सितंबर 2025 में भी सीनेट और हाउस कमिटियों के समक्ष भी पेश होना पड़ा था। लेकिन दिसंबर की सुनवाई अधिक विवादास्पद रही क्योंकि इसमें एपस्टीन स्कैंडल पर फोकस था। सुनवाई के दौरान सांसदों ने पटेल से सीधे सवाल किए, जैसे एपस्टीन फाइलों में ट्रंप का नाम कितनी बार आया और क्यों रेडैक्शन (संशोधन) के लिए लगभग 1,000 एजेंटों को लगाया गया।

पटेल ने इनकार किया कि संसाधनों का दुरुपयोग हुआ और कहा कि जांच चल रही है, लेकिन अदालती आदेशों से बंधे हैं। इस तरह की सुनवाई लाइव प्रसारित होती हैं, जो जनता को सीधे देखने का अवसर देती हैं और यह अमेरिकी संविधान की जांच और संतुलन की व्यवस्था का हिस्सा है।

यदि तुलना की जाए तो भारत में भी यों संसद द्वारा किसी अधिकारी को बुलाने की प्रक्रिया है। लेकिन यह अमेरिकी कांग्रेस की तरह सार्वजनिक और जवाबदेही में सख्त नहीं होती। भारतीय संसद की स्थायी समितियां, जैसे लोक लेखा समिति (पीएसी), अनुमान समिति या संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी), अधिकारियों को बुला सकती हैं और पूछताछ कर सकती हैं। उदाहरण के लिए, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में जेपीसी ने अधिकारियों को समन किया था, लेकिन ये कार्यवाहियां बंद दरवाजों के पीछे होती हैं, मीडिया को अनुमति नहीं होती और कोई लाइव ब्रॉडकास्ट भी नहीं होता।

अमेरिका में जहां सुनवाई टीवी पर लाइव होती है और सांसद अधिकारियों को कड़े सवाल भी कर सकते हैं, भारत में यह गोपनीय रहती है ताकि जांच प्रभावित न हो। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 105 और 118 के तहत समितियां स्वतंत्र हैं, लेकिन सार्वजनिक सुनवाई की परंपरा नहीं है।

क्या भारत में कभी ऐसी सुनवाई हो सकती है? यह संभव है, लेकिन राजनीतिक घोटालों के बावजूद राष्ट्रपति प्रणाली में व्यवस्था का चैक-बैलेंस है। जबकि यहां प्रधानमंत्री और मंत्री संसद के सदस्य होते हैं, इसलिए अधिकारी को बुलाना मंत्री की जिम्मेदारी पर सवाल उठा सकता है, जो राजनीतिक अस्थिरता पैदा कर सकता है। यदि कोई बड़ा घोटाला हो, जैसे राफेल डील या कोयला घोटाला आदि, तो जेपीसी तो अवश्य बन सकती है, लेकिन सार्वजनिक सुनवाई से राजनीतिक पार्टियां डरती हैं क्योंकि इससे संसद में हंगामा, इस्तीफे या सरकार गिरने का खतरा होता है।

हालांकि, डिजिटल युग में पारदर्शिता की मांग बढ़ रही है। यदि संसद नियमों में संशोधन करे, जैसे सुनवाई को लाइव प्रसारित करने का प्रावधान, तो यह संभव हो सकता है। लेकिन वर्तमान राजनीतिक संस्कृति में, जहां विपक्ष और सत्ता पक्ष एक-दूसरे पर आरोप लगाते हैं, ऐसी सुनवाई से घोटाला ही फूट सकता है, जैसे संसद में अवरोध या मीडिया ट्रायल। फिर भी, लोकतंत्र की मजबूती के लिए यह विचारणीय है।

किसी भी लोकतंत्र में, सत्ता में कोई भी पार्टी क्यों न हो, ऐसे अधिकारियों को बुलाने, उन्हे जवाबदेह बनाने के कई लाभ हैं। सबसे पहले, यह जवाबदेही सुनिश्चित करता है। चुने हुए प्रतिनिधि कार्यकारी अधिकारियों से सवाल कर सकते हैं, जो जनता की ओर से होता है। इससे भ्रष्टाचार, दुरुपयोग या नीतिगत असफलताओं पर रोशनी पड़ती है। उदाहरण के लिए, अमेरिका में पटेल की सुनवाई से एपस्टीन फाइलों पर जनता को जानकारी मिली, जो अन्यथा छिपी रह सकती थी। भारत में यदि ऐसा हो, तो सरकारी योजनाओं या जांचों की पारदर्शिता अवश्य बढ़ेगी।

दूसरा, यह जांच और संतुलन की व्यवस्था को मजबूत करता है। लोकतंत्र में कोई भी शाखा निरंकुश नहीं होनी चाहिए। विधायिका द्वारा कार्यकारी को बुलाना सत्ता के दुरुपयोग को रोकता है। सत्ता में चाहे भाजपा हो या कांग्रेस, यह प्रक्रिया नीतियों को जनहित में रखती है। तीसरा, जनता की भागीदारी बढ़ती है। सार्वजनिक सुनवाई से लोग सूचित होते हैं, जो मतदान और सक्रिय नागरिकता को प्रोत्साहित करता है। चौथा, यह राजनीतिक पार्टियों को पारदर्शी बनाता है, क्योंकि सत्ता पक्ष को अपनी नीतियों का बचाव करना पड़ता है, जबकि विपक्ष को रचनात्मक सवाल करने पड़ते हैं। इससे लोकतंत्र की गुणवत्ता सुधरती है।

हालांकि, इस सब के नुकसान भी हो सकते हैं, जैसे राजनीतिकरण या मीडिया ट्रायल, लेकिन देखा जाए तो लाभ अधिक हैं। पटेल की सुनवाई से अमेरिका में एफबीआई की विश्वसनीयता पर बहस हुई, जो स्वस्थ लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है। भारत में यदि ऐसी व्यवस्था आए, तो घोटालों के बावजूद, यह देश को मजबूत बनाएगा और जवाबदेही व पारदर्शिता को बढ़ावा मिलेगा।


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