वंदे मातरम्- विरोध के मजहबी कारण झूठे

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भारतीय उपमहाद्वीप में जो मुस्लिम समूह वंदे मातरम् के विरोध के पीछे मजहबी कारणों का हवाला देता है, वह वास्तव में भ्रामक और झूठा है। विश्व के इस क्षेत्र में मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान को इस्लामी पहचान का प्रतीक मानता है। परंतु पाकिस्तान न तो इस्लाम का रक्षक है, न ही उम्माह के प्रति वफादार।

भारत के राष्ट्रीय गीत ‘वंदे मातरम्’ के विरोध का कारण क्या है? तथाकथित ‘सेकुलर’ खेमा— जोकि वामपंथियों, स्वयंभू उदारवादियों और मुस्लिम नेतृत्व के एक वर्ग को मिलाकर बना है— उसका दावा है कि वंदे मातरम् ‘गैर-इस्लामी’ है। सच क्या है? दरअसल, इस आपत्ति की जड़े इस्लामी अवधारणाओं के बजाय भारतीय उपमहाद्वीप के मुस्लिम अभिजात वर्ग में व्याप्त गैर-इस्लामी सनातन सभ्यता के प्रति गहरे द्वेष में अधिक मिलती है। इसी अंतर्निहित वैमनस्य की कोख से पाकिस्तान का जन्म हुआ था, जो आज भी विश्व के इस भूखंड में सांप्रदायिक विभाजनकारी मानसिकता को जिंदा रखे हुए है।

जिस तरह संस्थाएं-व्यक्ति समय के साथ बदलते हैं, वैसे ही विचार भी विकसित होते हैं। ‘वंदे मातरम्’ बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित गीत है, जिसे पहले 1875 में स्वतंत्र कविता के रूप में लिखा गया, फिर यह 1882 में ‘आनंदमठ’ उपन्यास में शामिल हुआ। यह साहित्य 1773 के ‘संन्यासी विद्रोह’ पर आधारित है, जो ब्रितानी शासन और तत्कालीन इस्लामी-व्यवस्था के विरुद्ध था। बीसवीं सदी की शुरूआत से यह गीत स्वतंत्रता आंदोलन का सबसे शक्तिशाली नाद बन गया।

कांग्रेस स्वयं भी इस वैचारिक रूपांतरण का एक बड़ा उदाहरण है। 1885 में अंग्रेज अधिकारी एलन ऑक्टेवियन ह्यूम द्वारा स्थापित कांग्रेस पहले ब्रिटिश-राज की स्थिरता और 1857 जैसे विद्रोह को रोकने का कुटिल उपक्रम था। परंतु एक पीढ़ी के भीतर— विशेषकर वर्ष 1920 के बाद गांधीजी के नेतृत्व में, वही दल जन-आधारित राष्ट्रवाद की सबसे बड़ी धुरी बन गया। क्या केवल इस कारण कांग्रेस को खारिज किया जा सकता है कि उसकी स्थापना एक अंग्रेज ने ब्रितानी हितों की रक्षा हेतु की थी? यदि नहीं, तो फिर ‘वंदे मातरम्’ का विरोध उसके मूल साहित्यिक संदर्भ के नाम पर कैसे जायज ठहराया जा सकता है?

वर्ष 1896 में कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर ने इस गीत को पहली बार गाया। 1905 के वाराणसी अधिवेशन में कांग्रेस ने इसे राष्ट्रीय अवसरों पर गाने का औपचारिक निर्णय लिया। वर्ष 1907 में मैडम भीकाजी कामा ने देश के बाहर जर्मनी में पहली बार भारतीय तिरंगा फहराया, जिस पर ‘वंदे मातरम्’ लिखा था। 1909 में वीर क्रांतिकारी मदनलाल ढींगरा 1909 में ‘वंदे मातरम्’ बोलते हुए फांसी पर चढ़ गए। खिलाफत आंदोलन (1919-24) के बाद कुछ मुस्लिम नेताओं ने मजहबी आधार पर इसके खिलाफ आपत्ति उठानी शुरू कर दी। यह वही दौर था, जब ब्रिटिश संरक्षण में देश में अलगाववादी शक्तियां (द्रविड़ आंदोलन सहित) तेजी से बढ़ रही थीं।

तब मुस्लिम नेतृत्व का कांग्रेस-विरोध केवल वंदे मातरम् तक सीमित नहीं था। उन्होंने लगभग हर उसका विरोध किया, जो भारत की सभ्यतागत विविधता और सांस्कृतिक आत्मा का प्रतीक रहा। इसमें वे ब्रितानियों और वामपंथियों के साथ खड़े दिखाई दिए। अपने पिछले लेख में मैंने पीरपुर समिति रिपोर्ट का उल्लेख किया था। मार्च 1938 में प्रकाशित इस दस्तावेज का औपचारिक नाम— “ए रिपोर्ट ऑफ द इन्क्वारी कमेटी अप्वाइंटेड बाय द काउंसिल ऑफ द ऑल इंडिया मुस्लिम लीग” था। यह पीरपुर रिपोर्ट के नाम से इसलिए प्रसिद्ध हुई, क्योंकि इसके रचनाकार मुस्लिम लीग नेता राजा मोहम्मद मेहदी ऑफ पीरपुर थे। इस रिपोर्ट में हिंदू, हिंदू सांप्रदायिकता और कांग्रेस— तीनों का अर्थ एक ही था। इसमें हिंदी भाषा के प्रयोग, वंदे मातरम् और गौसंरक्षण जैसे मुद्दों को उठाया गया।

तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व ने मुस्लिम लीग के अधिकांश आरोपों को निराधार बताया। परंतु उसने विरोध करने के बजाय जिहादी शक्तियों के सामने घुटने टेक दिए और अक्टूबर 1937 में कांग्रेस कार्यसमिति ने वंदे मातरम् का संक्षिप्त संस्करण अपनाकर देवी दुर्गा से जुड़े अंश हटा दिए। यह निर्णय देश पर भारी पड़ा। तब पीरपुर रिपोर्ट को आधार बताकर नैरेटिव गढ़ा गया कि स्वतंत्र भारत में मुसलमानों को न्याय नहीं मिलेगा, इसलिए पाकिस्तान जरूरी है। इसी आत्मसमर्पण वाली मानसिकता से ग्रस्त होकर दस वर्ष बाद जून 1947 में कांग्रेस ने विभाजन भी स्वीकार कर लिया। पीरपुर रिपोर्ट में जो आरोप तब कांग्रेस पर लगाए गए थे, वह आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आरएसएस पर मढ़े जाते हैं।

क्या विभाजन के बाद खंडित भारत में बसे मुस्लिम समुदाय का दिल बदल गया? बार-बार नैरेटिव गढ़ जाता है कि वर्तमान भारतीय मुसलमानों ने ‘दो-राष्ट्र सिद्धांत’ को ठुकराकर पाकिस्तान के बजाय खंडित भारत को चुना। यदि यह सच है, तो फिर भारतीय सभ्यता का प्रतीक वंदे मातरम् आज भी उसी समुदाय के कुछ हिस्सों को क्यों खटकता है? यह कटु सत्य है कि पाकिस्तान की मांग तब बिहार, उत्तरप्रदेश और बंगाल के मुस्लिम अभिजात वर्ग ने की थी, उनमें से अधिकांश पाकिस्तान नहीं गए। उन्होंने यहीं रहकर जिहादी नकाब उतारकर खादी पहन ली और उसी कांग्रेस में शामिल हो गए, जिसे वे कभी ‘गैर-इस्लामी’ कहते थे। पीरपुर रिपोर्ट के लेखक राजा मेहदी के बेटे सैयद अहमद मेहदी भी बाद में कांग्रेस के सांसद और केंद्रीय मंत्री भी बने। ऐसे कई उदाहरण है। कितनी बड़ी विडंबना है कि आजादी से पहले जो मुस्लिम नेता ‘दो राष्ट्र सिद्धांत’ के झंडाबरदार थे, वे आज सेकुलरवाद के ‘पैरोकार’ है।

भारतीय उपमहाद्वीप में जो मुस्लिम समूह ‘वंदे मातरम्’ के विरोध के पीछे मजहबी कारणों का हवाला देता है, वह वास्तव में भ्रामक और झूठा है। विश्व के इस क्षेत्र में मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान को इस्लामी पहचान का प्रतीक मानता है। परंतु पाकिस्तान न तो इस्लाम का रक्षक है, न ही ‘उम्माह’ के प्रति वफादार। वैश्विक मुस्लिम एकजुटता के बजाय अमेरिका-इजराइल का प्रत्यक्ष-परोक्ष साथ देते हुए ईरान पर हमले का सहभागी बनना, गाजा पर अमेरिकी प्रस्ताव को स्वीकार और अपने देश में मुसलमानों की पहचान मिटाने वाले चीन के साथ रणनीतिक गठजोड़ करना— पाकिस्तान और उससे सहानुभूति रखने वाले वर्ग के दोहरे चरित्र को उजागर करता है।

यह विडंबना है कि जो मुस्लिम समूह ‘भारत माता’ को नमन करने वाले ‘वंदे मातरम्’ का विरोध करता है, लगभग वह ही मंदिर तोड़ने और असंख्य हिंदुओं-सिखों का संहार करने वाले मुस्लिम आक्रांताओं— बाबर और औरंगजेब, टीपू सुल्तान आदि का महिमामंडन करता है। क्या इस चिंतन की जड़े भारतीय सनातन संस्कृति के प्रति घृणा में नहीं छिपी? इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह का यह कथन कि 1937 में कांग्रेस ने विभाजन के बीज बोए— कोई राजनीति से प्रेरित वक्तव्य नहीं, बल्कि ऐतिहासिक तथ्य है।


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