फ़िल्म का सबसे बड़ा जोखिम उसका 214 मिनट का रनटाइम है। यह धैर्य मांगती है, और सामान्य दर्शक के लिए यह चुनौती है। कुछ सबप्लॉट्स, विशेषकर दूसरे हिस्से में, कहानी को भारपूर्ण बनाते हैं। कुछ दर्शकों को यह फिल्म अपने राजनीतिक स्वर में अत्यधिक स्पष्ट और कभी-कभी जिद्दी भी प्रतीत हो सकती है।
आज के सिने-सोहबत में एक ऐसी फ़िल्म पर बात करते हैं, जिसके इर्द-गिर्द देश भर में चर्चा छिड़ गई है। फ़िल्म का नाम है ‘धुरंधर’। इसके निर्देशक आदित्य धर हैं, जिन्होंने अपनी पहली ही फ़िल्म ‘उरी’ से ये सिद्ध कर दिया था कि हिंदी सिनेमा उद्योग में एक धुरंधर फ़िल्मकार का आगमन हो चुका है।
भारतीय सिनेमा में जासूसी आधारित फिल्मों की अपनी सीमाएं और अपनी विरासत रही है। कभी अत्यधिक स्टाइलाइज़्ड, कभी अत्यधिक राष्ट्रवादी, और कभी-कभी केवल बाहरी रोमांच तक सीमित। ऐसे परिदृश्य में, आदित्य धर की ‘धुरंधर’ एक असामान्य हस्तक्षेप की तरह उभरती है। एक ऐसी फ़िल्म जो जासूसी की राजनीतिक, भावनात्मक और वैचारिक परतों को एक साथ पकड़ने का प्रयत्न करती है। लगभग 214 मिनट लंबी यह फ़िल्म केवल एक मनोरंजक थ्रिलर नहीं, बल्कि भारतीय खुफिया व्यवस्था, सीमा-पार तनाव और वैयक्तिक नैतिकता के अंतर्संबंधों पर एक व्यापक सिनेमाई टिप्पणी भी है।
इस फ़िल्म की मूल संरचना जासूसी, अपराध और राजनीतिक रणनीति के त्रिकोण से निर्मित है। लेकिन इसका वास्तविक आकर्षण इसकी आंतरिक बेचैनी, उसके किरदारों के नैतिक द्वंद्व, और उसके भीतर छिपे हुए नैरेटिव माइंड-गेम्स हैं।
‘धुरंधर’ की कहानी कई भूगोलों, कई एजेंसियों और कई व्यक्तिगत एजेंडों के बीच फैलती है। यह वही विस्तार है जो फ़िल्म को विशिष्ट भी बनाता है और चुनौतीपूर्ण भी। भारत की खुफिया एजेंसी के भीतर कार्यरत एक एजेंट (रणवीर सिंह), एक जटिल अंडरवर्ल्ड नेटवर्क, पाकिस्तान की राजनीतिक-अपराधिक गठजोड़ और दक्षिण एशियाई सुरक्षा प्रतिद्वंद्विता, ये सभी मिलकर फ़िल्म की वैचारिक रीढ़ तैयार करते हैं।
जासूसी फ़िल्मों में अक्सर राष्ट्र एक रोमांटिक प्रतीक बनकर उभरता है, पर ‘धुरंधर’ राष्ट्र को एक नैतिक इकाई की बजाय एक रणनीतिक मशीन के रूप में देखता है। यह दृष्टि फ़िल्म को परिपक्वता देती है। आदित्य धर यहां यह प्रश्न उठाते प्रतीत होते हैं कि “क्या एक एजेंट की वफ़ादारी केवल राष्ट्र की होती है, या उसके अपने अनुभव, उसके अपने घाव और उसके अपने सत्य भी उसकी वफ़ादारी को आकार देते हैं”?
‘धुरंधर’ की ख़ास बात ये कि इस फ़िल्म में राष्ट्रवाद केवल नारा नहीं, बल्कि संघर्ष का विषय है। फ़िल्म का सबसे बड़ी बौद्धिक संपत्ति उसका किरदार-लेखन है। जासूस, अपराधी, राजनेता, सबके भीतर एक अदृश्य दरार है, जिसे फिल्म बहुत धैर्य से उजागर करती है।
रणवीर सिंह का एजेंट वाला चरित्र अपनी ऊर्जा और हिंसक सटीकता के कारण रोचक तो है, पर वास्तविक गहराई उसे उसके आंतरिक खोखलेपन से मिलती है। वह सिर्फ एक मिशन का हिस्सा नहीं, बल्कि एक अनसुलझा, आधा टूटा हुआ मनुष्य है जो दुश्मनों से कम और अपने विवेक से अधिक लड़ता है। एक दृश्य में उसकी चुप्पी, कैमरे का उसके चेहरे पर ठहरना, और पीछे चलती हल्की थरथराती सांसें साफतौर पर यह दिखाती हैं कि जासूसी काम सिर्फ राष्ट्र-रक्षक का आवरण नहीं, बल्कि लगातार आत्म-क्षय का अनुभव भी है।
अक्षय खन्ना का चरित्र फ़िल्म की सबसे सूक्ष्म उपलब्धियों में से है। यहां खलनायकी शोर या अति-नाटकीयता में नहीं, बल्कि बौद्धिक ठंडक में स्थित है। उनकी निगाहें, उनकी धीमी आवाज़, और उनका तिरछा सत्य, सब मिलकर यह दर्शाते हैं कि आतंक और अपराध कभी-कभी वक्तृता की बजाय दार्शनिकता से भी जन्म ले सकते हैं।
अन्य कलाकारों की बात करें तो आर माधवन और संजय दत्त जैसे कलाकार कथा में एक परिपक्वता और स्थायित्व जोड़ते हैं। उनके किरदार भारत-पाक राजनीति के बीच मौजूद भूरे क्षेत्रों की तरह हैं, न पूरी तरह नैतिक, न पूरी तरह अलोकतांत्रिक। ताउम्र कॉमेडी से अपनी पहचान बनाने वाले कलाकार राकेश बेदी का काम इस फ़िल्म में इतना शानदार है कि ये किरदार उनकी अभिनय यात्रा में एक मील का पत्थर साबित होने में कोई कसर नहीं छोड़ता है।
कहानी और परफॉर्मन्स के अलावा ‘धुरंधर’ अपने सिनेमाई डिजाइन और प्रभाव के लिए भी देखी जानी चाहिए। आदित्य धर पहले से ही बड़े पैमाने के अनुभवों के निर्देशक रहे हैं, पर ‘धुरंधर’ में वे अपने सिनेमाई दृष्टिकोण को और अधिक विस्तृत करते हैं। इस फ़िल्म की सिनेमैटोग्राफी की बात करें तो यहां कैमरा सिर्फ दृश्य नहीं पकड़ता, बल्कि यह मनोविज्ञान पकड़ता है। क्लोज़-अप्स में एक अजीब-सी शांति है, और वाइड शॉट्स में एक गहरी बेचैनी। शहरों की सांस, सीमाओं की खामोशी, अंधेरों की किरकिराहट, सब दृश्यात्मक रूप से कहानी की भाषा बन जाते हैं।
‘धुरंधर’ की एक्शन कोरियोग्राफी भी लाजवाब है। फिल्म के एक्शन सीक्वेंस ‘स्पेक्टेकल’ होने के साथ-साथ ‘नैरेटिव’ भी हैं। हर गोली, हर धमाका, हर पीछा, किरदारों के निर्णय, डर और आत्मधारणा का विस्तार है। यहां हिंसा अर्थहीन नहीं, बल्कि कहानी का दार्शनिक तनाव है।
फ़िल्म का संगीत, साउंड डिजाइन और बैकग्राउंड स्कोर कहानी को सिर्फ सहयोग नहीं करता बल्कि इसे व्याख्यायित भी करता है। ऊंचे सुरों और खामोशी के बीच लगातार होता उतार-चढ़ाव फिल्म के भाव-परिदृश्य को और भी जटिल बनाता है।
इस फ़िल्म का सबसे बड़ा जोखिम उसका 214 मिनट का रनटाइम है। यह धैर्य मांगती है, और सामान्य दर्शक के लिए यह चुनौती है। कुछ सबप्लॉट्स, विशेषकर दूसरे हिस्से में, कहानी को भारपूर्ण बनाते हैं। कुछ दर्शकों को यह फिल्म अपने राजनीतिक स्वर में अत्यधिक स्पष्ट और कभी-कभी जिद्दी भी प्रतीत हो सकती है।
साफ़ तौर पर ये कहा जा सकता है कि यह फिल्म धीमी नहीं, बल्कि विस्तृत है। यह एक ऐसी कथा है जिसे निर्देशक ने त्वरित मनोरंजन के लिए नहीं, बल्कि दीर्घकालिक प्रभाव के लिए रचा है।
इस फ़िल्म के कथ्य की बात करें तो इसकी थीमेटिक गहराइयां भी बहुत कुछ कहती है। इस फ़िल्म में राष्ट्र और व्यक्ति का द्वंद्व हमेशा चलता रहता है। ये फिल्म यह प्रश्न निरंतर उठाती रहती है कि “क्या राष्ट्र-हित हमेशा व्यक्ति-हित से ऊपर होता है”? और यदि हां, तो उस व्यक्ति का भावनात्मक मुआवज़ा कौन देगा?
फ़िल्म में हिंसा की दार्शनिकता भी है है। यहां हिंसा सिर्फ हथियारों में नहीं, बल्कि निर्णयों में भी है। किसे बचाना है? किसे छोड़ना है? किसे मारना आवश्यक है और क्यों?
‘धुरंधर’ के लेखन में राजनीति की अदृश्य मशीनरी पर भी काफ़ी सूक्ष्म है। फिल्म दिखाती है कि राजनीति और खुफिया दुनिया में नायक और खलनायक स्थिर पहचानें नहीं हैं, बल्कि परिस्थितियों से निर्मित, टूटती-बनती भूमिकाएं हैं।
कई मायनों में ‘धुरंधर’ एक महत्वपूर्ण फ़िल्म है और इस पर जितनी चर्चा की जाए, कम है। ‘धुरंधर’ भारतीय सिनेमा में एक दुर्लभ उदाहरण है। एक ऐसी फिल्म जो मनोरंजन और बौद्धिकता के बीच पुल बनाती है। यह दर्शकों को केवल रोमांचित नहीं करती, बल्कि उन्हें सोचने, विचारने, और कई मामलों में असहज होने के लिए भी मजबूर करती है।
यह फिल्म इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह जासूसी और राजनीति को सिर्फ नारा नहीं, बल्कि अध्ययन का विषय बनाती है। यह दिखाती है कि राष्ट्रवाद और मानवता हमेशा सरल समीकरण नहीं होते और सबसे महत्त्वपूर्ण बात कि ‘धुरंधर’ यह दर्शाती है कि जासूस भी मनुष्य होते हैं, दुःख, स्मृति और पछतावों से बने हुए मनुष्य।
‘धुरंधर’ सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि एक वैचारिक बहस है जो हमें अपने समय, अपनी राजनीति और अपने नैतिक निर्णयों पर पुनर्विचार करने के लिए प्रेरित करती है।
आपके नज़दीकी सिनेमाघर में है। देख लीजियेगा। (पंकज दुबे मशहूर बाइलिंगुअल उपन्यासकार और चर्चित यूट्यूब चैट शो ‘स्मॉल टाउन्स बिग स्टोरीज़” के होस्ट हैं।)
