संसद के चालू शीतकालीन सत्र में उठ रहे सवाल मामूली नहीं हैं। वे हमारे देश की मूलभूत परंपराओं की हिफ़ाज़त के लिए उपजे हैं। वे हमारे मुल्क़ के शाश्वत मूल्यों की रक्षा के लिए जन्मे हैं। वे हमारे जनतंत्र की बुनियाद को पोला बनाने की साज़िश के ख़िलाफ़ परचम लहरा रहे हैं। निर्वाचन प्रक्रिया की पवित्रता और पारदर्शिता का सवाल क्या नहीं उठना चाहिए? अमीरी-ग़रीबी की बढ़ती खाई के सुरसापन का प्रश्न क्या नहीं उठना चाहिए?
दुनिया में सब मिला कर 201 देश हैं। इन में से सिर्फ़ 89 को ही पूर्णतः लोकतांत्रिक या ठीकठाक लोकतांत्रिक माना जाता है। बाकी सब या तो दोषपूर्ण लोकतांत्रिक देशों की श्रेणी में हैं या फिर राजतंत्र और तानाशाह प्रणाली से संचालित हो रहे मुल्क़ों की श्रेणी में। अलग-अलग वैश्विक अध्ययन समूह हालांकि इस पर एकमत हैं कि भारत ख़ामियों से भरे लोकतांत्रिक देशों की श्रेणी में है और अधिनायकवाद की तरफ़ तेज़ी से क़दम बढ़ा रहा है, मगर मैं यह मानने को तैयार नहीं हूं। बावजूद इस के पिछले दस-ग्यारह साल में हमारे देश की राजनीतिक, प्रषासनिक, सामाजिक और अर्थिक व्यवस्था में स्वेच्छाचारिता के बेहद गंभीर और खतरनाक लक्षण सामने आए हैं, मैं अब भी मानता हूं कि भारत का जनतंत्र भले ही गहन देखभाल कक्ष की दहलीज़ पर पहुंच गया है, मगर उस की प्राणवायु अभी तक तो चुकी नहीं है।
हमारे यहां अभी तक एक अच्छा-ख़ासा राजनीतिक विपक्ष है। भले ही वह बिखरा-बिखरा सा है, मगर अपनी मौजूदगी दर्ज़ करा रहा है। हमारे यहां प्रशासन का एक ढांचा है। भले ही वह संवैधानिक संस्थाओं के लिजलिजेपन की वज़ह से बेतरह चरमरा गया है, मगर मौजूद है। हमारे यहां सर्वसमावेशी सामाजिक तानेबाने का एक गर्भगृह है। भले ही उस की आधारशिला को बुरी तरह लहुलुहान कर दिया गया है, मगर वह पूरी तरह चूरचूर होने से इनकार कर रही है। हमारे यहां एक स्वपोषित अर्थतंत्र है। भले ही इज़ारेदारी की राहू ने छोटी मछलियों को निगल जाने में कोई कोताही नहीं बरती है, मगर मोहराली मछलियां लुप्त होने से अपने को किसी-न-किसी तरह बचाए हुए हैं।
भारतीयपन की यह अंतर्निहित शक्ति हमारे जनतंत्र का जीवनरक्षक अमृत है। इसी ने हमारी समूची राष्ट्रीय व्यवस्था को तमाम तरह के सियासी, इतिज़ामी, मुशराती और इकि़्तसादी आक्रमणों से बचा कर रखा हुआ है। भारत अगर आज भी कुल मिला कर एक जनतांत्रिक देश है तो मौजूदा हुकूमत की फ़ैयाज़ी की वज़ह से नहीं है। वह उस की उन्मत्त सितमगिरी के बावजूद है। इस एक दशक में हमारे मसनदनशियों ने हर असहमति की रीढ़ तोड़ने के लिए किस्म-किस्म के हथोड़ों का इस्तेमाल करने में कोई कोताही नहीं बरती है। अगर फिर भी जनतंत्र का बगीचा पूरी तरह सूखा नहीं है तो इस के लिए देशवासियों की बलैयां लीजिए।
साथ-साथ एक बात पर गहराई से ग़ौर कीजिए। ये जो तक़रीबन 90 पूर्णतः लोकतांत्रिक या ठीकठाक लोकतांत्रिक देश हैं, जिन में मेरे हिसाब से भारत भी एक है, क्या उन में से किसी में भी सत्तासीन समूह की प्रतिपक्षी राजनीतिक व्यवस्था के प्रति इस तरह की हिकारत और नफ़रत का भाव है, जैसा कि हमारे देश में पिछले एक दशक से दिखाई दे रहा है? क्या किसी और जनतांत्रिक देश में किसी हुक़्मरान ने विपक्ष मुक्त सियासत की स्थापना का ऐसा हलफ़ उठा रखा है? क्या किसी और जम्हूरियत में हज़्बेइख़्तिलाफ़ के रहनुमा के कोई इस कदर हाथ धो कर पीछे पड़ा आप को दिखाई दे रहा है, जैसा हम अपने देश में देख रहे हैं? अगर मेरे इन सवालों पर आप का जवाब ‘ना’ में है तो क्या हम यह मान कर चलें कि हमारे राज-रथ को उस राह पर हांक दिया गया है, जो तबाही के खंदक तक जाती है?
जब सत्ताधीशों की सकारात्मकता का ही स्खलन होने लगे तो आख़िर उसे प्रतिपक्ष नियंत्रित नहीं करेगा तो कौन करेगा? जब किसी भी गड़बड़ी की तरफ़ इशारा करने पर प्रतिपक्ष की राष्ट्रभक्ति पर सवाल खड़े किए जाने लगें तो प्रतिपक्ष को क्या करना चाहिए? जब विपक्ष की आवाज़ को संसद तक में न सुना जाए तो विपक्ष क्या करे? जब प्रतिपक्ष के नेता को सब से बड़ा खलनायक बना कर पेश करने में पूरा सत्तापक्ष दिन दूनी रात चौगुनी उठापटक करने लगे तो नेता-प्रतिपक्ष को क्या करना चाहिए? जब भारत की अधिकारिक यात्रा पर आने वाले विदेशी राष्ट्राध्यक्षों और शासनाध्यक्षों को देश की सरकार की तरफ़ से इशारों-इशारों में यह सलाह दी जानी लगे कि वे विपक्ष के नेता से होने वाली पारंपरिक मुलाकात का आग्रह न करें तो इस का कोई इलाज़ खोजा जाना चाहिए या नहीं? या अगर विपक्ष इस का ज़िक्र भी कर दे तो उस के पीछे अपना लट्ठ ले कर पड़ जाना चाहिए?
इन प्रश्नों को हवा में उड़ा देना आसान है। मगर ये प्रश्न हवा में गायब होने वाले नहीं हैं। वे तब तक हवा में तैरते रहेंगे, जब तक कि उन का कोई समाधानकारी जवाब नहीं मिल जाता। लोकतंत्र है तो इन सवालों की इबारत तो उस के आकाश में चस्पा रहेगी। भारत के लोकतंत्र को लीलने की ललक रखने वालों के मंसूबे कामयाब हो भी गए तो यह इबारत भूगर्भ में अपना बसेरा बना लेगी और जैसे ही किसी दिन उसे मौका मिलेगा, धरती की सीना चीर कर बाहर आ कर खड़ी हो जाएगी। सत्ता की खुमारी में आज जिन्हें लग रहा है कि वे हर सवाल को दफ़्न कर सकते हैं, वे ख़ामख़्याली में हैं। वे नहीं जानते कि सवाल कभी मरते नहीं हैं। आप उन्हें कितना ही रक्तरंजित कर दें, वे फिर भी आप के घर की देहरी पर पड़े रहते हैं। इसलिए प्रश्नों के अमरत्व पर कोई प्रश्नचिह्न मत लगाइए। वे आप के ज़मींदोज़ी हथकंडों की काट करना जानते हैं।
संसद के चालू शीतकालीन सत्र में उठ रहे सवाल मामूली नहीं हैं। वे हमारे देश की मूलभूत परंपराओं की हिफ़ाज़त के लिए उपजे हैं। वे हमारे मुल्क़ के शाश्वत मूल्यों की रक्षा के लिए जन्मे हैं। वे हमारे जनतंत्र की बुनियाद को पोला बनाने की साज़िश के ख़िलाफ़ परचम लहरा रहे हैं। निर्वाचन प्रक्रिया की पवित्रता और पारदर्शिता का सवाल क्या नहीं उठना चाहिए? अमीरी-ग़रीबी की बढ़ती खाई के सुरसापन का प्रश्न क्या नहीं उठना चाहिए? समूचे कारोबार जगत को अपने चहेते चंद धन्ना सेठों के हवाले कर देने के बेहया क़दमों का जालबट्टा क्या सामने नहीं आना चाहिए? आंकड़ों की बाज़ीगरी दिखा कर देश के बहीखाते को सुनहरा दिखाने की कोशिशों की चीरफाड़ क्या नहीं होनी चाहिए? प्रधानमंत्री के अगलियों-बगलियों के कदाचार पर उंगली क्या नहीं उठनी चाहिए?
अर्थपूर्ण सरोकार के मुद्दों को उठाने को चुनावों में विपक्ष की हार से उपजी हताशा का नतीजा बताने का काइयांपन अब सभी को नंगी आखों से दिखाई देने लगा है। इस तरह के कुतर्कों से किसी राष्ट्र का निर्माण नहीं होता है। यह समझना चाहिए कि इस तरह की बदज़ुबानी हमें विध्वंस की तरफ़ ले जाएगी। मुल्क़ के रहनुमा इसलिए नहीं होते हैं कि वे अपने निजी प्रतिशोधों के लिए पूरे प्रशासनिक तंत्र का निर्लज्ज दुरुपयोग करने में जुट जाएं। ग्यारह बरस में हमारे सत्तासीन राजनेताओं ने जनतंत्र की सारे बुनियादी नियमों की धज्जियां उड़ाई हैं। दिनोंदिन उन की सत्ता-हवस द्विगुणित होती जा रही है। वे प्रतिपक्षविहीन राजनीति का अपना ख़्वाब पूरा करने में ज़ोरशोर से लगे हुए हैं। इसलिए जो अब भी आलथी-पालथी मार कर बैठे रहेंगे, वे पाप के भागी होंगे। ऐसे पाप के, जिसे धोने की क्षमता गंगा मैया में भी नहीं होगी।
