उन वादियों से: ‘बारामूला’

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बारामूला’ केवल एक हॉरर फ़िल्म नहीं है, यह ऐतिहासिक भूल-चूक, सामूहिक ज़ख्म और पहचान की स्थिति पर टिप्पणी भी है। फ़िल्म बताती है कि कैसे राजनीतिक हिंसा केवल भौतिक नहीं रहती; वह स्मृति, पहचान और पीढ़ियों के रिश्तों में दर्ज हो जाती है। यहां भूत-प्रेत का रूप वास्तव में उन अनसुलझी चोटों का प्रतीक है जो समाज में छिपी रहती हैं।

सिने-सोहबत

आज के सिने-सोहबत में हाल ही में रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘बारामूला’ पर चर्चा करते हैं। वादियों को कथानक का हिस्सा बनाकर वैसे तो कई फिल्में बानी हैं लेकिन ‘बारामूला’ एक ऐसा फ़िल्मी अनुभव है जो पारंपरिक हॉरर-थ्रिलर की सीमाओं को पार कर, कश्मीर के ऐतिहासिक और सामाजिक घावों पर एक अलंकारिक और भावनात्मक हमला करती है। फ़िल्म के केंद्र में है एक पुलिस अफ़सर की अंतरात्मा, एक रहस्यमयी हवेली, और उस भूमि की खोई हुई यादें जो आत्माओं के रूप में लौट आती हैं। ये सब कुछ एक ऐसा मिश्रण बनाता है जो दर्शकों को बहुत देर तक छू कर रख देता है। इस फ़िल्म का कथानक एक जांच से शुरू होकर धीरे-धीरे अलौकिक और राजनीतिक प्रतीकों की ओर बढ़ता है।

फ़िल्म की कथा एक छोटे कस्बे बारामूला में बच्चों के रहस्यमयी तरीके से गायब होने के एक मामले के इर्द-गिर्द घूमती है। डीएसपी रिवदां (मानव कौल) को इस केस के लिए तैनात किया जाता है और वह अपने परिवार के साथ एक पुरानी हवेली में रहने आता है। जैसे-जैसे जांच गहराती है, पता चलता है कि ये गायब होने का केवल आम अपराध नहीं हैं, बल्कि इनके पीछे ऐतिहासिक त्रासदियों, षड़यंत्र और अलौकिक हस्तक्षेप का मेल है। फ़िल्म में जिस तरह से मानसिक आघात, आत्मीयता का टूटना और सामूहिक स्मृति को हॉरर के रूप में प्रस्तुत किया गया है, वह इस फ़िल्म को सादे डराने-छकाने वाले हॉरर से अलग बनाता है।

मानव कौल ने डीएसपी रिवदां की भूमिका में खुद को पूरी तरह डुबो दिया है। उनकी चुप्पी, भीतर की पीड़ा और पिता के रूप में ग़लतियों का बोझ, सब कुछ बहुत सूक्ष्मता से स्क्रीन पर आता है। मानव कौल का अभिनय कौशल फ़िल्म की दूसरी कमज़ोरियों को छुपा देता है और दर्शक जब भी परदे पर उनकी आंखों में झांकता है तो उसे किरदार की असल पीड़ा दिखती है। भाषा सुमब्ली (गुलनार) की मौजूदगी भी फ़िल्म के भावनात्मक पक्ष को मजबूती देती है। उनकी भूमिका में एक तरह की चुप्पी और दबा हुआ ग़ुस्सा है जो अंत तक प्रभावशाली रहता है।

निर्देशक आदित्य सुहास जांभले ने एक साहसिक कोशिश की है। उन्होंने कश्मीर के संवेदनशील ऐतिहासिक प्रसंगों को सुपरनेचुरल कहानियों के साथ जोड़ा है। यह जोड़ी कभी-कभी सफल रहती है और कई मौकों पर फ़िल्म बेहद गंभीर संवेदनाओं को समेटे रहती है मसलन विस्थापन की पीड़ा, सांस्कृतिक सफ़ाया और निजी व सामाजिक ग़लतियों से उपजी शर्म। बावजूद इसके, पटकथा के कुछ हिस्से हिलते डुलते और अविश्वसनीय से लगते हैं, खासकर दूसरी कड़ी, जहां राजनीतिक बयानबाज़ी और अलौकिक तत्वों के बीच तालमेल कुछ जगह ढीला पड़ जाता है। निर्देशक ने फ़िल्म की दुनिया में जो माहौल और सिनेमैटिक लैंग्वेज बनाई है वो क़ाबिल ए ग़ौर है। बर्फ़ीली वादियां, हवेली की शैडो-प्ले और साउंड डिज़ाइन मिलकर एक भारी, दबी हुई साज़-सज्जा पैदा करते हैं जो कई दृश्यों में कामयाब भी रहती है लेकिन कहानी के आख़िरी खुलासों में कुछ सीक्वेंसेस इतने ढीले पड़ जाते हैं कि फ़िल्म ने जो इम्पैक्ट टारगेट किया था उस पर ख़ासा असर पड़ जाता है।

अर्नोल्ड फ़र्नान्डिस की सिनेमैटोग्राफी उल्लेखनीय है। कश्मीर के ठंडे और सुनसान वातावरण का चित्रण कभी-कभी लयबद्ध और पेंटिंग जैसा लगता है, फ्रेम्स में दबी हुई उदासी और बरबादी का भाव बखूबी आता है। संगीत, विशेषकर शोर पुलिस और क्लिन्टन सेरेजो के योगदान, फ़िल्म के माहौल को आगे बढ़ाते हैं; साउंड डिज़ाइन उन क्षणों में जहां विस्मृति और भूतिया अनुभूति एक साथ आती है, बेहद काम आता है। संपादन कुछ जगहों पर गति बनाए रखता है पर कभी-कभी कथानक के तर्कसंगत विस्फोटों में पंच की कमी भी दिखती है। कुल मिला कर तकनीकी विभाग फ़िल्म को उस आत्मीयता और भय के मिश्रण में सफलता से ले जाता है जो इसकी रीढ़ है।

‘बारामूला’ केवल एक हॉरर फ़िल्म नहीं है, यह ऐतिहासिक भूल-चूक, सामूहिक ज़ख्म और पहचान की स्थिति पर टिप्पणी भी है। फ़िल्म बताती है कि कैसे राजनीतिक हिंसा केवल भौतिक नहीं रहती; वह स्मृति, पहचान और पीढ़ियों के रिश्तों में दर्ज हो जाती है। यहां भूत-प्रेत का रूप वास्तव में उन अनसुलझी चोटों का प्रतीक है जो समाज में छिपी रहती हैं। यह दृष्टिकोण फिल्म को सामान्य डराने वाली कहानियों से ऊपर उठाता है, परंतु यह भी सच है कि राजनीतिक परतों को इतने संवेदनशील तरीके से संभालना बेहद कठिन काम है और हर जगह यह काम पूरी तरह सफल नहीं होता। ‘बारामूला’ फ़िल्म की कहानी की एक बड़ी समस्या ‘हम बनाम वो’ का नैरेटिव है जो काफ़ी भड़काऊ है और फ़िल्म के कथानक को कठघरे में ला खड़ा कर देता है।

फ़िल्म की सबसे बड़ी कमज़ोरी इसकी स्क्रिप्टिंग में है, जिसमें कई किरदारों को लिखने के क्रम में ही कच्चा छोड़ दिया गया सा आभास देता है। कुछ मोड़ों पर फ़िल्म दर्शक को अच्छे से पकड़े रखती है, पर जब राजनीतिक और ऐतिहासिक संदर्भ खुलते हैं तो कथ्य की जटिलताएं कई बार बोझिल लगती हैं। इसके अलावा फ़िल्म कई जगहों पर दर्शकों में इमोशंस निकालने में कमज़ोर पड़ गई है। फ़िल्म ने संवेदनशील विषयों को इतनी छिन्न-भिन्न शैली में पेश किया कि आख़िर तक बहुत सी कमियां खलने लगती हैं ।

अगर आप ऐसी फिल्में पसंद करते हैं जो सीधे-सीधे डराने के बजाय सोचने पर मजबूर करें, जहां डर के साथ सामाजिक इतिहास और व्यक्तिगत अनुभव भी जुड़ा हो, तो ;बारामूला’ आपके लिए देखने लायक है। मानव कौल का अभिनय, शानदार सिनेमैटोग्राफी और प्रभावी साउंड-स्केप इसे एक यादगार अनुभव बनाते हैं। यह फ़िल्म उन दर्शकों को भी खींचेगी जो भारतीय सिनेमा में नए प्रयोग देखना पसंद करते हैं, ख़ासकर तब जब फ़िल्म का विषय भोगे हुए यथार्थ और उनकी स्मृति से जुड़ा हो।

‘बारामूला’ एक साहसिक और घोषित रूप से संवेदनशील कोशिश है, एक ऐसी कोशिश जिसमें बहुत कुछ काम करती है और कुछ चीज़ें अधर में रह जाती हैं। कहानी के कुछ हिस्से बिखरे हुए और असंगठित महसूस होते हैं और राजनीतिक आयामों का संतुलन हर जगह सही नहीं बैठता, पर फ़िल्म की आबो-हवा, अभिनय और भावनात्मक बोझ इसे देखने के क़ाबिल बनाते हैं। अपने हिस्से की तमाम कमियों के बावजूद यह फ़िल्म उन फिल्मों में शामिल हो सकती है जो देखने पर लंबे समय तक मन में घर कर जाती हैं, चाहे आप इसकी स्टोरीटेलिंग के तरीके से सहमत हों या न हों।

नेटफ्लिक्स पर है। देख लीजिएगा। (पंकज दुबे मशहूर बाइलिंग्वल उपन्यासकार और चर्चित यूट्यूब चैट शो, “स्मॉल टाउन्स बिग स्टोरीज़” के होस्ट हैं।)


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