मानव सृष्टि के बाद में वेद

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वेद शब्द का अर्थ है ज्ञान। आदि काल में मानव सृष्टि के साथ ही आविर्भूत होने के कारण इसे आदि ज्ञान कहते हैं, तथा  सभी काल में नित्य होने अर्थात सदा बने रहने के कारण इसे शाश्वत्त ज्ञान भी कहा जाता है। आदि ज्ञान का भंडार चार वेद ग्रंथ हैं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। ऋग्वेद में 10482 मंत्र, यजुर्वेद में 1975, सामवेद में 1873 और अथर्ववेद में 5977 मंत्र हैं। इस तरह चारों वेद में कुल 20307 मंत्र हैं। वैदिक मतानुसार वेद परमात्मा का ज्ञान है, जो परमात्मा ने इस संसार में मनुष्य के कल्याण के लिए दिया है। जिन-जिन विधाओं से मनुष्य का इस संसार में रहते हुए वास्ता पड़ता है, उन सब का ज्ञान इन 20307 मंत्रों में परमात्मा ने मनुष्य को दे दिया है। इन मंत्रों में ही ईश्वर ने संसार की सब विद्याओं का मूल मनुष्य को दे दिया है और व्याख्या स्वयं मनुष्य के करने के लिए छोड़ दी है।

वृक्ष का मूल वृक्ष की अनेकानेक शाखाओं और असंख्य पत्तों का पोषण करता है, उसी प्रकार वेद ज्ञान भी असंख्य विषयों और उपविषयों के ज्ञान का स्रोत हैं। मनुस्मृति 2/6 के अनुसार पूर्ण धर्म का मूल वेद में है- वेदोSखिलो धर्ममूलं। वेद अपौरुषेय हैं। अर्थात वेद का ज्ञान किसी ने भी अविष्कार नहीं किया है। परमात्मा भी इसका निर्माता नहीं। यह ऐसे ही अनादि है, जैसा परमात्मा स्वयं तथा जीवात्मा और प्रकृति अनादि हैं। वेद ज्ञान सदा रहता है। केवल यह प्रकट होता है, जब इसे ग्रहण करने योग्य मनुष्य जैसा प्राणी उत्पन्न होता है।

मनुष्य पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ। इस कारण मनुष्य के उत्पन्न होते ही यह ज्ञान उसे मिल गया। यह भारतीय परंपरा है कि वेद अनादि हैं। इसी कारण इसे ब्रह्म कहते हैं। परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति भी ब्रह्म माने जाते हैं। और उनके साथ ही वेद भी ब्रह्म हैं। यह चारों अनादि पदार्थ हैं। केवल इनका आविर्भाव इस पृथ्वी पर तब हुआ, जब यहां पर मनुष्य उत्पन्न हुआ। इनका आविर्भाव किस प्रकार हुआ? यह वेद में ही वर्णित है। यजुर्वेद कहता है –

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतऽऋचः सामानि जज्ञिरे।

छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत।। -यजुर्वेद 31/ 7।

स्वामी दयानन्द सरस्वती इस मंत्र का अर्थ प्रकट करते हुए कहते हैं- हे मनुष्यो ! तुमको चाहिए कि उस पूर्ण अत्यंत पूजनीय जिसके अर्थ सब लोग समस्त पदार्थों को देते वा समर्पण करते उस परमात्मा से ऋग्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, यजुर्वेद उत्पन्न होता है, उसको जानो। उसको पढ़ो और उसकी आज्ञा के अनुकूल वर्त्त के सुखी होओ ।

अभिप्राय है कि उस सर्वभुत अर्थात सबसे ग्रहण करने योग्य यज्ञ स्वरूप परमात्मा से ऋग, साम, अथर्व और यजुर्वेद प्रकट हुए। अथर्ववेद में भी ऐसा ही कहा गया है। इससे यह स्पष्ट हुआ कि वेद प्रमाण और वेद भूमंडल की सबसे प्राचीन पुस्तक है। यह भी कहा जाता है कि सृष्टि पर प्रथम मानव को परमात्मा ने वेद ज्ञान दिया। परमात्मा है और वेद उस सर्वज्ञ परमात्मा के ही ज्ञान का रूप है। सृष्टि रचना महान ज्ञानवान और शक्तिशाली आत्म तत्वों के बिना नहीं हो सकता। इससे यह सिद्ध है कि ऐसा तत्व परमात्मा है। मनुष्य को यदि कोई सिखाने वाला न होता तो वह सर्वथा अज्ञ और कोई भी मानव योग्य कर्म करने में अशक्त रहता। इस कारण आदि मनुष्य को ज्ञान किसी ने दिया है और वह देने वाला परमात्मा है। उसका दिया ज्ञान वेद है।

यह मनुष्य के बनने के समय की घटना है। वैदिक परंपरा के अनुसार मनुष्य जैसा आज है, वैसा ही आदि सृष्टि के समय बना था। इस कारण यदि उसे यह ज्ञान न दिया जाता, तो मनुष्य चलना -फिरना भी ना सीख सकता। आज भी मनुष्य के शिशु को समाज से पृथक कर दिए जाने से वह पशु समान ही रहेगा। कुछ भी नहीं सीख सकेगा। यह एक वस्तु स्थिति है कि सृष्टि में मनुष्य, मनुष्य के रूप में ही पैदा हुआ था। यह नहीं कि कोई इतर जीव- जंतु जाति परिवर्तन से मानव  बना हो। वैदिक मतानुसार जाति परिवर्तन का सिद्धांत गलत है। इस कारण आदि मनुष्य को प्रारंभिक ज्ञान देना आवश्यक था। वेद सब कालों में सब विषयों का मूल ज्ञान देता है। जो कुछ मनुष्य ने आज तक का आविष्कार किया है, वह उसे प्रारंभिक ज्ञान के आधार पर ही किया है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि वेद सत्य ज्ञान और विज्ञान के ग्रंथ हैं। ऋक नाम है स्तुति का। स्तुति का अभिप्राय है किसी के गुण कर्म और स्वभाव का वर्णन। इसलिए ऋचाएं पृथ्वी से लेकर परमात्मा तक के सब पदार्थ के गुण, कर्म और स्वभाव का वर्णन करती है। ज्ञान से अभिप्राय है- अनादि मूल तत्वों का वर्णन और उनका परस्पर संबंध और विज्ञान है इस कार्य जगत के विभिन्न पदार्थों का वर्णन। यह दोनों ही बातें वेद में हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार वेद विद्या अर्थात त्रयी विद्या की उत्पत्ति नहीं हुई। इन शब्दों का निर्वचन आविर्भाव ही है। वेद को अपौरुषेय कहा गया है। सृष्टि रचना तब आरंभ हुई जब सांख्य दर्शन और ऋग्वेद 1/163/1 के अनुसार परमाणुओं पर परमात्मा के तेज अर्वण का प्रभाव आरंभ हुआ।

सृष्टि रचना आरंभ होने के कम से कम एक संवत्सर उपरांत छंदोच्चारण आरंभ हुआ और उसके बाद में जब पृथ्वी ठंडी होकर उस पर वनस्पतियां, पशु इत्यादि बन चुके थे, तब मनुष्य उत्पन्न हुए। और उस समय उच्चारित छंदों को ऋषियों ने सुना और मनुष्यों को मनुष्यों की भाषा में उसको बताया। महाभारत और पुराण में भी वेदों के अनुसार ही वर्णन करते हुए कहा गया है कि प्रत्येक मन्वंतर के आरंभ में नए ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है और वेद उच्चारण करने वाले ब्रह्मा विवस्वत सुत मन्वंतर के आरंभ में हुए। वैदिक मत के अनुसार वेद का उच्चारण तो छंदों के रूप में तब आरंभ हुआ, जब ब्रह्मांड फटा। -मनुस्मृति 1/13 और सूर्य, पृथ्वी इत्यादि बन गए। परंतु ऋषियों ने वर्तमान भाषा में उनका स्वरूप मनुष्यों को ज्ञान देते समय दिया।

यह तब हुआ या पृथ्वी पर मनुष्य उत्पन्न हुए। सृष्टि बनते ही वेदों का आविर्भाव नहीं हुआ वरन तब हुआ जब पृथ्वी पर मनुष्य उत्पन्न हुआ। इस प्रकार स्पष्ट है कि सृष्टि बनते ही वेदों का आविर्भाव नहीं हुआ, वरन तब हुआ, जब पृथ्वी पर मनुष्य उत्पन्न हुआ। यह भी स्पष्ट है कि वह मन जिसने उन विचारों को जो उन वैदिक ऋचाओं में उचित भाषा में प्रकट किये गये हैं, जन्म दिया है, वह अल्पज्ञ अर्थात मनुष्य कदापि नहीं हो सकता, बल्कि वह सर्वज्ञ, ज्ञानी और सर्वोत्तम ही हो सकता है, क्योंकि ईश्वर ही सर्वज्ञ हो सकता है, कोई मनुष्य नहीं।


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