‘एक दीवाने की दीवानियत’ पर सबसे बड़ा प्रश्न इसका ‘संदेश’ है। क्या यह फिल्म प्यार की ताकत दिखाती है या प्यार के नाम पर नियंत्रण की संस्कृति को बढ़ावा देती है? विक्रम का किरदार अपने प्रेम को इतनी तीव्रता से जीता है कि वह दूसरे की स्वतंत्रता का अतिक्रमण कर देता है। यह वही समस्या है जो हमारे समाज में ‘टॉक्सिक रोमांस’ की कहानियों के साथ बार-बार दोहराई जाती है — “अगर वो ना कहे तो और प्यार दिखाओ, पीछा करो, तब तक जब तक हां न कह दे।”
सिने-सोहबत
आज के सिने-सोहबत में हालिया रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘एक दीवाने की दीवानीयत’ जिसके निर्देशक हैं मिलाप मिलन झावेरी।कभी हिंदी सिनेमा में प्रेम कहानियाँ ‘काजल और पलक के बीच’ लिखी जाती थीं, जहां प्यार एक भाव था, एक प्रतीक्षा थी। परंतु आज की कुछ फिल्मों में प्यार अक्सर जुनून, ताबड़तोड़ पीछा और ‘इंटेंस रोमांस’ के नाम पर एक अस्वस्थ आसक्ति का रूप ले चुका है। ‘एक दीवाने की दीवानियत’ इसी बदलते सिनेमाई परिदृश्य का एक नया उदाहरण है, एक ऐसा रोमांटिक ड्रामा जो जितना दिल को छूने की कोशिश करता है, उतना ही असहज भी कर देता है।
कहानी है विक्रम आदित्य भोसलें (हर्षवर्धन राणे) की, जो एक प्रभावशाली राजनेता का बेटा है। ज़िंदगी उसके लिए किसी विलासिता से कम नहीं, परंतु दिल के किसी कोने में एक खालीपन है। यह खालीपन उसे भरता है जब वह सुपरस्टार अदा रंधावा (सोनम बाजवा) से मिलता है। अदा एक चमकती, आत्मविश्वासी अभिनेत्री है जो अपने करियर की ऊंचाइयों पर है। विक्रम का आकर्षण जल्दी ही जुनून में बदल जाता है, और वहीं से शुरू होती है इस फिल्म की ‘दीवानियत’।
पहले आधे घंटे में फ़िल्म बड़ी शानोशौकत से एक क्लासिक प्रेम कहानी का माहौल रचती है — संगीत, लोकेशन, और कैमरे का रोमांटिक स्पर्श आपको पुराने ज़माने के ‘दिलवाले’ युग में ले जाता है। पर जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, यह ‘रोमांस’ एक अस्थिर दीवानगी में बदल जाता है, जहां प्यार और अधिकार की रेखा धुंधली पड़ जाती है।
मिलाप झावेरी की फ़िल्मों में ‘ड्रामा’ कभी कम नहीं होता। इस फ़िल्म में भी हर संवाद, हर दृश्य में अतिनाटकीयता झलकती है। समस्या यह नहीं कि फिल्म नाटकीय है, बल्कि यह है कि वह प्रेम की बजाय ‘पोस्सेस्सिवनेस्स’ यानी स्वामित्व की कहानी कहती है।
हर्षवर्धन राणे इस फ़िल्म की रीढ़ हैं। उनकी आंखों में बेचैनी, गुस्सा और चाहत का तूफान एक साथ दिखता है। वे अपने किरदार को जीते हैं और यही वजह है कि उनकी मौजूदगी कई बार कमज़ोर पटकथा को भी संभाल लेती है। सोनम बाजवा अपने किरदार में संयमित हैं, पर स्क्रिप्ट उन्हें सीमित अवसर देती है। उनकी अदा का संघर्ष असली लगता है, लेकिन उनके किरदार को पर्याप्त गहराई नहीं दी गई।
मिलाप झावेरी का निर्देशन तकनीकी रूप से सशक्त है। भव्य लोकेशंस, स्लो-मोशन शॉट्स, और क्लोज़-अप्स में वे पुराने बॉलीवुड की याद दिलाते हैं। पर उनकी कहानी आज के समाज की संवेदनशीलता से कटती हुई लगती है। जिस दौर में हम ‘कंसेंट’ (सहमति) और ‘पर्सनल बाउंड्री’ पर बात कर रहे हैं, उस दौर में विक्रम का प्यार, दरअसल, एक खतरनाक आसक्ति जैसा लगता है।
फ़िल्म का संगीत निस्संदेह इसका सबसे बड़ा आकर्षण है। अरिजीत सिंह, जुबिन नौटियाल और श्रेया घोषाल जैसे गायक अपनी आवाज़ों से फिल्म को भावनात्मक ऊंचाई देते हैं। खासकर गीत ‘तेरी यादों की रातें’ दर्शकों के दिल में उतर जाता है। बैकग्राउंड स्कोर में जुनून और त्रासदी का मिश्रण है, जो कहानी के मूड को जीवंत रखता है।
सिनेमेटोग्राफी में भव्यता है, चाहे मुंबई की राजनीतिक चमक हो या मनाली की पहाड़ियों का एकांत, कैमरा हर भावना को चित्र में ढाल देता है। लेकिन, यह सुंदरता कभी-कभी कहानी के सतहीपन को ढकने का काम ठीक उसी तरह करती है जैसे किसी टूटे आईने पर सोने की परत चढ़ा दी जाए।
‘एक दीवाने की दीवानियत’ पर सबसे बड़ा प्रश्न इसका ‘संदेश’ है। क्या यह फिल्म प्यार की ताकत दिखाती है या प्यार के नाम पर नियंत्रण की संस्कृति को बढ़ावा देती है?विक्रम का किरदार अपने प्रेम को इतनी तीव्रता से जीता है कि वह दूसरे की स्वतंत्रता का अतिक्रमण कर देता है। यह वही समस्या है जो हमारे समाज में ‘टॉक्सिक रोमांस’ की कहानियों के साथ बार-बार दोहराई जाती है — “अगर वो ना कहे तो और प्यार दिखाओ, पीछा करो, तब तक जब तक हां न कह दे।”
फ़िल्में समाज का आईना होती हैं, और जब सिनेमा बार-बार ऐसे पात्रों को ‘हीरो’ बना देता है, तो वह अनजाने में उस असमानता को सामान्य बना देता है जो असल ज़िंदगी में महिलाओं को असुरक्षित करती है।
‘एक दीवाने की दीवानियत’ में झावेरी ने शायद ‘दिवाना’ के 90 के दशक वाले रोमांस की छाया दोहराने की कोशिश की है, पर समय बदल चुका है। आज का दर्शक प्रेम को बराबरी, सहमति और मानसिक स्थिरता के साथ देखना चाहता है। यह फिल्म इन मूल्यों से दूर जाती है — और यही इसकी सबसे बड़ी कमी है।
दिलचस्प बात यह है कि फिल्म के नैरेटिव डिफेक्ट्स के बावजूद यह बॉक्स ऑफिस पर धमाल मचा रही है खासकर सिंगल स्क्रीन थियेटरों में । बिजनेस और मार्केटिंग के नजरिए से देखें तो रिलीज़ के पहले दस दिनों में इसने करीब ₹50 करोड़ का कारोबार कर लिया है, जो एक मिड-बजट रोमांटिक ड्रामा के लिए एक शानदार आँकड़ा है।
अगर इस फ़िल्म की मार्केटिंग को क़रीब से देखें तो इसमें दो रणनीतियाँ काफ़ी असरदार रहीं। पहली सोशल मीडिया पर हाइप का बनना और समाज में रील कल्चर का बढ़ता प्रभाव। फिल्म के गाने ‘तू मेरी आदत बन गई’ और ‘तेरा नाम ज़ुबां पे है’ इंस्टाग्राम पर वायरल हुए, जिससे युवा दर्शक थिएटर की ओर खिंचे। दूसरी ज़रुरी बात लगी स्टार इमेज ब्रांडिंग। हर्षवर्धन राणे की ‘इंटेंस लवर’ इमेज और सोनम बाजवा की ग्लैमरस लोकप्रियता ने इस फिल्म को ओपनिंग दिलाई।
यह फ़िल्म यह भी दिखाती है कि आज के हिंदी सिनेमा में “टॉक्सिक रोमांस” एक बिज़नेस मॉडल की तरह काम कर रहा है — जहां कहानी से ज़्यादा ‘इमोशनल एक्सट्रीम’ बेचा जाता है। दर्शक भावनात्मक झूले पर झूलना पसंद करता है, चाहे वह कहानी कितनी भी पुरानी या विवादास्पद क्यों न हो।
‘एक दीवाने की दीवानियत’ में राजनीति केवल पृष्ठभूमि नहीं, बल्कि प्रतीक है एक ऐसे समाज की जहां शक्ति, प्रतिष्ठा और प्यार सब कुछ अधिकार के खेल में बदल जाते हैं। विक्रम का किरदार उस पितृसत्तात्मक सोच का प्रतीक है जो मानती है कि ‘जो चाहो, पा लो’। ये एक तरह का जन्मजात ‘एंटाइटलमेंट’ की भावना ही है।
सिनेमा में इस सोच का पुनरुत्थान खतरनाक संकेत है, क्योंकि यह ‘पुरुष श्रेष्ठता’ को फिर से रोमांटिक आवरण में पेश करता है। सोशल मीडिया पर कई युवाओं ने फिल्म को ‘इंटेंस लव स्टोरी’ कहा, लेकिन यही इंटेंसिटी अगर असल जीवन में दोहराई जाए, तो यह उत्पीड़न बन जाती है।
झावेरी का सिनेमा अक्सर ‘भावना के विस्फोट’ पर टिका होता है लेकिन अगर वह विस्फोट सामाजिक असंतुलन को बढ़ाए, तो सिनेमा को आत्ममंथन करना चाहिए।
फ़िल्म का संपादन ठीक-ठाक है, लेकिन दूसरे हिस्से में गति गिर जाती है। क्लाइमेक्स में कहानी जिस मोड़ पर पहुँचती है, वह नाटकीय तो है, पर विश्वसनीय नहीं। संवाद कई जगहों पर पुराने फ़ॉर्मूले जैसे लगते हैं — “प्यार किया है, अब दुनिया से लड़ूंगा” — जो अब सिनेमाई नॉस्टेल्जिया से ज़्यादा एक ट्रोप बन चुका है।
‘एक दीवाने की दीवानियत’ को एक पंक्ति में परिभाषित किया जाए तो यह “एक खूबसूरत पागलपन की कहानी है, जो खुद अपनी आग में जल जाती है।”
फ़िल्म में जुनून है, ग्लैमर है, संगीत है लेकिन संवेदनशीलता की कमी है। यह एक ऐसी प्रेम कथा है जो अपने ‘दीवानेपन’ को महिमा मंडित करती है, पर दर्शक से यह नहीं पूछती कि उस दीवानगी की कीमत क्या है।
समाज के लिए यह जरूरी है कि सिनेमा ‘दीवानेपन’ की नहीं, ‘समझदारी’ की कहानियाँ गढ़े क्योंकि आने वाली पीढ़ियाँ सिर्फ कहानी नहीं, उस कहानी का संदेश भी जीती हैं।
ये समझना बहुत ज़रूरी है कि हम सिर्फ़ इस बहाने से टॉक्सिक फिल्में नहीं परोस सकते कि फिल्ममेकिंग एक व्यवसायिक उद्यम है और इसमें निवेश किये गए पैसे और मुनाफ़ा कमा पाना बहुत ज़रूरी है। साथ ही ये कि रियलिज़्म और सामाजिक परिवर्तन के नाम पर हम सिर्फ़ फ़ेस्टिवल फ़िल्में नहीं बना सकते जिन्हें देखने वालों की तादाद बहुत कम है।अगर इस ट्रेंड का संतुलित विश्लेषण करें तो बिज़नेस के लिहाज़ से यह फिल्म मुनाफ़ा ज़रूर कमा रही है लेकिन सांस्कृतिक रूप से यह हमें एक कदम पीछे ले जाती है। जब प्रेम की परिभाषा ‘किसी को पाने’ से आगे बढ़कर ‘किसी को समझने’ की हो जाएगी, तभी हम सच में कह पाएंगे कि सिनेमा बदला है।
नज़दीकी सिनेमाघरों में है। बहुत मन हो तो देख लीजिएगा। (पंकज दुबे पॉप कल्चर स्टोरीटेलर, उपन्यासकार और यू ट्यूब पर चर्चित शो ‘स्मॉल टाउन्स बिग स्टोरीज़’ के होस्ट हैं। )
