दीपावली के अवसर पर पूजी जाने वाली लक्ष्मी भी मूलतः वेदकालीन देवी हैं, पर समय ने उनके स्वरूप को इतना बदल दिया कि उनका वैदिक रूप लगभग भुला दिया गया।….जब दीपावली की रात्रि में हम लक्ष्मी-पूजन करते हैं, तो वस्तुतः हम पृथ्वी को प्रणाम कर रहे होते हैं। मिट्टी के कुल्हड़ों में खील-लाई रखकर, दीप जलाकर हम उस भूमि का आभार मानते हैं जिसने हमें जन्म दिया और जो हर बार हमें अन्न देती है। यही हमारी आस्था का वैदिक और वैज्ञानिक संगम है — जहाँ धरती देवी है, लक्ष्मी उसका रूप, और प्रकाश उसकी कृपा। यही सनातन परंपरा है — जो बदलती जरूर है, पर कभी समाप्त नहीं होती।
वेद एकेश्वरवाद की महिमा गाते हैं। प्रारंभ में निराकार, एकमात्र परमेश्वर की ही उपासना होती थी। पर साथ ही इन्द्र, वरुण, अग्नि, सूर्य और प्रजापति जैसे देवताओं की पूजा भी हर धार्मिक कृत्य में अनिवार्य मानी जाती थी। कालांतर में भक्ति आन्दोलन ने आराधना का यह स्वरूप मानवीय बना दिया — श्रीराम-सीता, श्रीकृष्ण-राधा, हनुमान, भैरव जैसे देव रूप जन-जन के हृदय में बस गए। ये सभी वेदकालीन देवता नहीं थे, किंतु भक्ति ने उन्हें लोकदेव बना दिया। आज उनके बिना पूजा अधूरी मानी जाती है। दीपावली के अवसर पर पूजी जाने वाली लक्ष्मी भी मूलतः वेदकालीन देवी हैं, पर समय ने उनके स्वरूप को इतना बदल दिया कि उनका वैदिक रूप लगभग भुला दिया गया।
लक्ष्मी धन-ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री मानी जाती हैं और दीपावली उनका प्रमुख पर्व है। पर वेद उन्हें केवल धन की देवी नहीं मानते। वेदों में वे विष्णु की अर्द्धांगिनी हैं — नारायण की पत्नी। लक्ष्मीनारायण की आराधना भारत में व्यापक है, किंतु वैदिक दृष्टि लक्ष्मी को पृथ्वी की प्रतिमा के रूप में देखती है। विष्णु सृष्टि के पालक हैं, त्रिविक्रम हैं, सूर्यरूप हैं। वे आकाश का रंग धारण किए हैं, मेघवर्ण हैं, गगन-सदृश हैं। उनके तीन चरण समय के तीन आयामों को नापते हैं — एक चरण दिन-रात का चक्र बनाता है, दूसरा महीनों-वर्षों का संवत्सर, और तीसरा युग-कल्प का चक्र। इस त्रैलोक्य-पालक विष्णु की सेविका है पृथ्वी — वही जो जीवन देती है, अन्न देती है, जल देती है, और सहस्त्राब्दियों से सबको पालती आई है। यह ब्रह्मांड का सबसे सुंदर ग्रह है — जीवन का स्रोत, उपकारिणी देवी। अतः वेदों में पृथ्वी का आदर सर्वोपरि है।
अथर्ववेद के पृथ्वीसूक्त में कुल त्रेसठ मंत्र हैं जो इस भूदेवी की महिमा गाते हैं। आराधना का स्वरूप बदल गया, पर पृथ्वी की पूजा आज भी जीवित है। मूर्ति-रूप में यही पृथ्वी लक्ष्मी कही गई है — जिसके हाथ में कमल है, जिसका रंग स्वर्णवत् है, जिसे चारों दिशाओं के बादल हाथी बनकर जल से अभिषेक करते हैं। विष्णु सूर्य हैं; नारायण आकाश का रंग धारण किए हुए हैं; और लक्ष्मी, पृथ्वी के रूप में उनके चरण दबाती हैं। आज भी प्रातःकाल हम पृथ्वी से क्षमा मांगते हुए कहते हैं —
“विष्णुपत्नी नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे।”
यह वही पृथ्वी है जो सूर्य के सुनहरे प्रकाश में हिरण्यवर्ण दिखाई देती है — उसी से सोना निकलता है, उसी से जीवन उपजता है। इसलिए वैदिक मंत्रों में कहा गया — “यस्यां हिरण्यं विन्देयम्।” इस प्रकार सूर्य और भूदेवी की संयुक्त आराधना ही आगे चलकर लक्ष्मी-नारायण की पूजा में रूपांतरित हो गई।
विज्ञान और भक्ति का यह सुंदर संयोग अद्भुत है — जहाँ ब्रह्मांड के प्राकृतिक तत्व देवत्व धारण कर लेते हैं। इस दृष्टि से लक्ष्मी पूर्णतः पृथ्वी का मानवीकृत रूप हैं। श्रीसूक्त इसका स्पष्ट प्रमाण है। आज यही सूक्त लक्ष्मी की पूजा का प्रमुख आधार है, जिसके मंत्रों का उच्चारण कर पंडित यजमानों से धन-संपन्नता की प्रार्थना कराते हैं। पर इन मंत्रों का वास्तविक आशय धन नहीं, धरती की महिमा का गान है। श्री और लक्ष्मी एक ही देवी के दो रूप हैं — एक प्रकाशमान, दूसरी स्थिर। श्रीसूक्त के नौवें मंत्र में कहा गया है —
“गन्धद्वारा दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्, ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम्।”
अर्थ यह कि “हे अग्ने, उस देवी को आमंत्रित करो जो सुगंध का स्रोत है, जिसे जीतना कठिन है, जो सदा पुष्ट और प्राणियों का पालन करती है — वही श्री है।” यहाँ स्पष्ट रूप से धरती माता का ही वर्णन है, जो सुगंध देती है, अन्न देती है, और सभी जीवों की पालनकर्ता है।
श्रीसूक्त में श्री को चन्द्रा और सूर्या कहा गया है। कहा गया — “आर्द्रां ज्वलन्तीं।” अर्थात वह नमी भी है और ऊष्मा भी। उसके दो पुत्र हैं — कर्दम और चिक्लीत — जो दलदल और नमी के प्रतीक हैं; यही पृथ्वी की उपजाऊ शक्ति है। आनन्द, कर्दम और चिक्लीत इस सूक्त के ऋषि भी कहे गए हैं। सूक्त में कहा गया — “तव वृक्षोऽध बिल्वः।” अर्थात “तेरे वृक्ष हमारे हितकारी हैं।” यह सब कुछ पृथ्वी से संबंधित है। इस प्रकार वर्तमान लक्ष्मी-मूर्ति का प्रतीक-अर्थ भी यही है — धरती की उपजाऊ, जीवनदायिनी शक्ति।
वेदकालीन प्रतीकों का यह रूपांतरण भारतीय चिंतन की सबसे अद्भुत यात्रा है। सूर्य, पृथ्वी, जल, वायु — सबने कालांतर में मानवीकृत रूप ले लिया। विष्णु-लक्ष्मी की आराधना उसी प्रतीक यात्रा की परिणति है। विष्णु विश्व के स्वामी हैं और लक्ष्मी उस विश्व की धारण-शक्ति। दोनों साथ-साथ ही पूजे जाते हैं। पौराणिक ग्रंथों में विष्णु के आयुध, उनके वाहन और अंग-प्रत्यंग सभी में विज्ञान और आस्था का गहरा मेल दिखता है। कहा गया —
“श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ।”
यानी श्री और लक्ष्मी, विष्णु के दिन-रात समान दो आयाम हैं — एक प्रकाश, एक विश्राम।
भारतीय परंपरा इसी सहअस्तित्व पर आधारित है। यहाँ बुद्धि और भावना, तर्क और श्रद्धा, विज्ञान और अध्यात्म, सब एक ही धारा में प्रवाहित हैं। यही सनातनता का रहस्य है — परिवर्तन के साथ निरंतरता। इसलिए जब कोई रूप बदलता है, तो वह नष्ट नहीं होता, बल्कि नए अर्थ में जीवित रहता है। यही कारण है कि वेदकालीन परंपराओं की गूँज आज भी भारतीय जीवन में सुनाई देती है।
अथर्ववेद की भूदेवी आज भी श्रीसूक्त की श्रीदेवी के रूप में पूजी जाती है। बाद में यक्ष संस्कृति में वह कुबेर-लक्ष्मी बनीं, और आज धनलक्ष्मी के रूप में प्रतिष्ठित हैं। किंतु उनका धरती से जुड़ाव नहीं टूटा। दीपावली के दिन गाँव-गाँव में मिट्टी के बर्तनों — हटड़ी, कुल्हड़, पात्र — में नए धान्य रखकर लक्ष्मी पूजी जाती हैं। मिट्टी और अन्न का यह संगम दर्शाता है कि लक्ष्मी का वास्तविक निवास धन में नहीं, धरती में है।
लक्ष्मी के अनेक रूप आज भी लोकजीवन में पूजे जाते हैं — धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, सौभाग्यलक्ष्मी, सौन्दर्यलक्ष्मी। तिरुपति बालाजी के मंदिर में श्रीपति के साथ भूदेवी आज भी विराजमान हैं। यह परंपरा सदियों से चली आ रही है — नए प्रयोग होते रहे, नई आस्थाएँ जुड़ती रहीं, कुछ रूढ़ियाँ समय के साथ मिट गईं, पर मूल भावना अटल रही।
यह सतत रूपांतरण ही भारतीयता का सार है। यहाँ पुराना और नया विरोधी नहीं, बल्कि एक ही प्रवाह के दो तट हैं। पृथ्वीसूक्त की भूदेवी समय के साथ श्रीसूक्त की लक्ष्मी बनी, और फिर लोकदेवी के असंख्य रूपों में विकसित हुई। पर उनका आधार अब भी वही है — धरती, जो जीवन देती है, जो अन्न उपजाती है, जो सुगंध, सौंदर्य और संपन्नता की जननी है।
इसलिए जब दीपावली की रात्रि में हम लक्ष्मी-पूजन करते हैं, तो वस्तुतः हम पृथ्वी को प्रणाम कर रहे होते हैं। मिट्टी के कुल्हड़ों में खील-लाई रखकर, दीप जलाकर हम उस भूमि का आभार मानते हैं जिसने हमें जन्म दिया और जो हर बार हमें अन्न देती है। यही हमारी आस्था का वैदिक और वैज्ञानिक संगम है — जहाँ धरती देवी है, लक्ष्मी उसका रूप, और प्रकाश उसकी कृपा। यही सनातन परंपरा है — जो बदलती जरूर है, पर कभी समाप्त नहीं होती। यही भारत की भारतीयता है।– अशोक “प्रवृद्ध”
