यह साफ हो चुका है कि अमेरिका और चीन के बीच होने वाली वार्ताएं महज क्षणिक राहत का जरिया हैं। दोनों देशों के हित इतने अंतर्विरोधी हो गए हैं कि इस व्यापार युद्ध का कोई फौरी समाधान संभव नहीं है। इसका हर नया दौर पिछले दौर की तुलना में अधिक गंभीर रूप में सामने आ रहा है। इसीलिए फिलहाल महसूस हो रहा है कि अप्रैल में जो हुआ, वो महज ट्रेलर था। फिल्म तो अब जाकर शुरू हुई है!
डॉनल्ड ट्रंप का TACO रूप फिर सामने आया है- TACO यानी Trump Always Chickens Out। अमेरिकी राष्ट्रपति को यह नाम अमेरिका के मशहूर वित्तीय अखबार द वॉल स्ट्रीट जर्नल ने दिया है। Chickens out अंग्रेज़ी मुहावरा है, जिसका अर्थ होता है डर के कारण किसी काम से पीछे हट जाना- खासकर जब वह काम साहस या जोखिम की मांग करता हो। राष्ट्रपति के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल में ट्रंप ने इस मुहावरे को अक्सर चरितार्थ किया है।
ताजा मामला चीन के साथ अमेरिका के फिर बिगड़े व्यापार संबंध का है। चीन की जवाबी कार्रवाई से भड़के ट्रंप ने 10 अक्टूबर को अपने सोशल मीडिया पोस्ट में लिखा- ‘चीन में बहुत अजीब चीज़ें हो रही हैं! वे बहुत शत्रुतापूर्ण हो गए हैं। विश्व भर के देशों को पत्र भेज रहे हैं कि रेयर अर्थ से जुड़ी हर उत्पादन सामग्री और लगभग अन्य सभी चीज़ों के निर्यात पर वे नियंत्रण लगाना चाहते हैं- भले वह चीज चीन में ना बनी हो। किसी ने पहले कभी ऐसा कुछ नहीं देखा।’
ट्रंप ने कहा,
- चीन का यह कदम दुनिया भर बाज़ारों को अवरुद्ध कर देगा।
- ट्रंप ने कहा- ‘मैंने हमेशा महसूस किया कि चीन छिप कर इंतज़ार कर रहा है, और अब हमेशा की तरह, मैं सही साबित हुआ हूं।… लगता है यह चीन की यह योजना काफी समय से थी। मैग्नेट से लेकर अन्य तत्वों तक पर उसने चुपचाप एकाधिकार बना लिया, जो कुछ हद तक डरावना और शत्रुतापूर्ण है।… चीन को दुनिया को ‘बंधक’ बनाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।’
- अमेरिका का भी कई तत्वों पर एकाधिकार है, जो चीन की तुलना में कहीं अधिक मजबूत और आगे तक फैला हुआ है। ट्रंप ने कहा- मैंने उन्हें इस्तेमाल नहीं किया है, क्योंकि उसकी ज़रूरत ही नहीं पड़ी- अब तक!
- ट्रंप ने कहा- ‘मैं राष्ट्रपति शी जिनपिंग से दो हफ्ते बाद दक्षिण कोरिया में होने वाले एपेक शिखर सम्मेलन में मिलने वाला था, लेकिन अब इसकी कोई वजह नहीं बची। उन्होंने कहा- अमेरिका के राष्ट्रपति के रूप में उनके ताजा कदम का जवाब देने के लिए अब मुझे मजबूर होना पड़ेगा। मुझे कभी नहीं लगा था कि यह करना पड़ेगा, लेकिन शायद अब समय आ गया है। हालांकि यह शायद थोड़ी तकलीफदेह हो, मगर अमेरिका के लिए यह बहुत अच्छी बात होगी।’
तो रुख खासा गरम और नाराजगी भरा था। चीन ने इसका जवाब दो स्तरों पर दियाः
अमेरिका में स्थित चीनी दूतावास ने कहा कि अमेरिका ने सितंबर में मैड्रिड में चीन से हुए समझौते का उल्लंघन किया, जिसके जवाब में चीन ने ताजा कदम उठाया है। अमेरिका ने चीन को लक्ष्य करके कई नए प्रतिबंध लागू किए, जिनमें तथाकथित 50 प्रतिशत नियम भी शामिल है। इस नियम के तहत हजारों नई चीनी कंपनियों पर प्रतिबंध लगाए गए हैं।
(50 प्रतिशत नियम के मुताबिक अगर किसी कंपनी में 50 फीसदी या उससे अधिक स्वामित्व या नियंत्रण प्रतिबंधित चीनी संस्थाओं के पास है, तो वह कंपनी भी प्रतिबंधों के दायरे में आ जाएगी। इससे हजारों नई चीनी कंपनियां प्रभावित हुई हैं।) (https://x.com/fengchucheng/status/1977363340298240206)
चीन के वाणिज्य मंत्रालय बीजिंग में स्पष्ट किया कि निर्यात नियंत्रण केवल उन मध्यम और भारी रेयर अर्थ तत्वों तथा संबंधित वस्तुओं पर लगेगा, जिनका सैन्य क्षेत्र में उपयोग संभव है। यानी दोहरे उपयोग (dual use) वाले रेयर अर्थ के निर्यात को नियंत्रित किया जा रहा है।
आम समझ है कि चीन इस फैसले पर कायम रहा, तो अमेरिका के रक्षा, विमानन एवं अन्य उद्योगों में काम ठप हो जाएगा। रेयर अर्थ सामग्री के बिना वैसा कोई भी आधुनिक उत्पादन संभव नहीं है। इस सामग्री का 70 फीसदी खनन चीन में होता है, जबकि उसे शुद्ध और परिशोधित करने की 90 फीसदी भी अधिक क्षमता उसी के पास है। इससे संबंधी मशीनरी के उत्पादन पर चीन का लगभग एकाधिकार है। दरअसल, रेयर अर्थ खनिज उतने दुर्लभ नहीं हैं, जितना समझा जाता है। इनके खदान दुनिया के अनेक हिस्सों में मौजूद हैं। मगर उनका शुद्धिकरण और परिशोधन बेहद कठिन और महंगी प्रक्रिया है, जिसकी क्षमता हासिल करना दुर्लभ है। अमेरिका या कोई अन्य देश यह क्षमता हासिल करना चाहे, तो इसमें उसे दशक या कई दशक लग सकते हैँ।
ट्रंप के सोशल मीडिया पोस्ट से भी ये हकीकत झलकी। और इसीलिए जल्द ही उन्हें अहसास हुआ कि चीन पर उनका वश नहीं है। यह स्वीकार करना सिर्फ ट्रंप ही नहीं, बल्कि अमेरिकी शासक वर्ग के किसी हिस्से या व्यक्ति के लिए आसान नहीं है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद से- जब अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति के रूप में स्थापित हुआ- वहां के प्रभु वर्ग ने अपने हितों को ताकत के जोर से दुनिया पर थोपा है। सोवियत खेमा जरूर उनकी पहुंच से बाहर था, लेकिन 1991 के बाद वह क्षेत्र भी उनके प्रभुत्व में आ गया।
मगर अब चीन ने कहानी बदल दी है।
वरना, अब तक अमेरिका के नौसैनिक बेड़े चीन पर घेरा डाल चुके होते। अमेरिका ने अपने साथी और पिछलग्गू देशों के साथ मिल कर वहां कुछ वैसा नजारा पैदा कर दिया होता, जैसा उसने अभी वेनेजुएला के आसपास कर रखा है। मगर चीन अब एक बड़ी सैन्य शक्ति भी है। धीरे-धीरे उसने अमेरिका पर अपनी निर्भरता काफी घटा ली है। इसलिए वह अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती देने की हैसियत में आ गया है।
उधर ग्लोबलाइजेशन के दौर में बनी आपूर्ति शृंखलाओं के तहत अमेरिका के संवेदनशील उद्योग चीनी आपूर्तियों पर निर्भर हो चुके हैं। इसी हकीकत के अहसास के कारण अप्रैल में चीन पर 145 फीसदी तक टैरिफ लगाने के बाद ट्रंप Chicken out हुए। घोषणा करते रहे कि अब शी जिनपिंग का फोन आने ही वाला है। मगर जब यह नहीं हुआ, तो तटस्थ स्थलों पर चीन से द्विपक्षीय व्यापार वार्ता करने के लिए विवश हुए।
एक बार फिर वैसा ही होता दिख रहा है। चीन के जवाबी कदम से अमेरिकी शेयर बाजारों में भारी गिरावट आई, तो 12 अक्टूबर को ट्रंप ने सोशल मीडिया पर लिखा कि चीन की चिंता करने की जरूरत नहीं है। सब ठीक हो जाएगा। उन्होंने कहा कि शी जिनपिंग ने एक दिन के खराब मूड की वजह से रेयर अर्थ संबंधी कदम उठाया, मगर शी उनका (ट्रंप का) सम्मान करते हैं। अमेरिकी उप-राष्ट्रपति जेडी वान्स और वाणिज्य मंत्री स्कॉट बेंसेट ने भी सार्वजनिक आश्वासन दिया कि चीन से संपर्क बना हुआ और दक्षिण कोरिया में ट्रंप- शी की प्रस्तावित वार्ता रद्द नहीं हुई है।
और 14 अक्टूबर आते-आते यह खबर आ गई कि अमेरिका और चीन के बीच फिर संवाद हुआ है। चीन के वाणिज्य मंत्रालय ने इसकी पुष्टि की। मगर मंत्रालय ने कहा- ‘यह नहीं हो सकता कि अमेरिका बातचीत में भी शामिल हो और साथ ही डराना तथा नए प्रतिबंधों की धमकी देना भी जारी रखे। यह चीन से पेश आने का सही तरीका नहीं है। हम अमेरिका से अनुरोध करते हैं कि वह अपने गलत आचरण को सुधारे और वार्ता के प्रति गंभीरता दिखाए।’ (China and US held ‘working-level talks’ on Monday despite trade spat | South China Morning Post)
बयान का लहजा अपने-आप में काफी कुछ कह देता है। मुद्दा यह है कि चीन आज अमेरिका की चुनौती को इस हद तक स्वीकार करने में खुद को सक्षम और सशक्त क्यों पा रहा है? 2018 जब ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल के दौरान चीन के खिलाफ व्यापार युद्ध छेड़ा, तब चीन उसके असर से बचने का रास्ता तलाशता नजर आया था। तब तक मैनुफैक्चरिंग में चीन एक बड़ी ताकत बन चुका था। उसकी रक्षा तैयारियां भी कमोबेश ठीक थीं। मगर अंतर यह था कि अनेक वस्तुओं एवं हाई टेक सामग्रियों के लिए वह लगभग पूरी तरह अमेरिकी आयात पर निर्भर था।
इसकी एक मिसाल हिलियम गैस है। जानकारों के मुताबिक 2018 में हिलियम आयात के लिए चीन की अमेरिका पर लगभग पूरी निर्भरता थी। मगर आज वह 90 से 95 प्रतिशत हिलियम रूस जैसे दूसरे स्रोतों से आयात कर रहा है। यह अमेरिका पर निर्भरता घटाने की चीन की रणनीतिक योजना का सिर्फ एक उदाहरण है। इस योजना का दूसरा उदाहरण लौह अयस्क (iron ore) के मामले में देखा जा सकता है।
हाल ही में खबर आई कि चीन सरकार ने देश के सभी इस्पात कारखानों और ट्रेडिंग फर्म्स को ऑस्ट्रेलियाई कंपनी बीएचपी से आयरन ओर की खरीद रोकने का आदेश दिया है। चीन ने कहा कि जब तक ये कंपनी डॉलर में ही लौह अयस्क की बिक्री करने और लौह अयस्क की कीमत अमेरिका के Platts average के तहत तय करने पर अड़ी हुई है, उससे खरीद ना की जाए। लौह अयस्क का निर्यात ऑस्ट्रेलियाई अर्थव्यवस्था का प्रमुख हिस्सा है। हाल तक इस खनिज के सबसे बड़े उपभोक्ता चीन को वह ये आयात अपनी शर्तों पर करता था। मगर अब बात बदल गई है।
अब चीन ब्राजील से इस पदार्थ का आयात कर रहा है और साथ ही अफ्रीका के गिनी सिमादोऊ में लौह अयस्क के खनन में उसने बड़ा निवेश कर वहां भी एक विशाल स्रोत हासिल कर लिया है। इस तरह ऑस्ट्रेलिया पर निर्भरता घटाने के बाद वह ऑस्ट्रेलियाई कंपनियों के सामने कीमत तय करने और मुद्रा भुगतान के बारे में अपनी शर्तें लगाई हैं। (China’s cargo ban gives new meaning to BHP’s ‘Broken Hill’ origin – Asia Times)
इसी तरह कच्चे तेल, गैस, अन्य खनिज पदार्थों और कृषि उत्पादों तक में चीन अपने बड़े बाजार की ताकत को जिस तरह जता रहा है, वैसा अभी कोराना काल के पहले तक सोचना भी कठिन था। ट्रंप अगर उसके आगे Chicken out हो रहे हैं, तो उसमें एक बड़ा पहलू सोयाबीन का है। दशकों से अमेरिकी सोयाबीन किसानों का सबसे बड़ा बाजार चीन रहा है। मगर इस वर्ष व्यापार युद्ध शुरू होने के बाद चीन ने अमेरिका से इस कृषि उत्पाद का आयात पूरी तरह रोक कर ब्राजील से आयात शुरू कर दिया। नतीजा अमेरिकी किसानों पर टूटी मुसीबत है, जिसका भारी दबाव ट्रंप पर है।
अमेरिका आज भी हाई टेक के कुछ क्षेत्रों और बौद्धिक संपदा में दुनिया की नंबर ताकत है। सेमीकंडक्टर, कंप्यूटर चिप आदि ऐसे क्षेत्र हैं, जिनमें निर्यात रोक कर अमेरिका चीन की प्रगति की रफ्तार धीमी करने की स्थिति में है। लेकिन चूंकि कई दूसरे क्षेत्रों में वह चीन पर निर्भर हो गया है, इसलिए ऐसा करना अब उसके लिए जोखिम भरा होता जा रहा है। दूसरी तरफ चीन ने अपनी राष्ट्रीय परियोजना के तहत इन मामलों में आत्म-निर्भर बनने के लिए विशाल पैमाने पर निवेश किया है। अपने शिक्षित एवं हाई टेक प्रशिक्षित मानव संसाधन तथा घरेलू बाजार के अंदर तीव्र प्रतिस्पर्धा की स्थिति के कारण उसने इन क्षेत्रों में बड़ी कामयाबियां हासिल की हैं।
इसी का नतीजा है कि व्यापार युद्ध में वह पलकें झपकाने को तैयार नहीं है। अमेरिका से व्यापार युद्ध का ताजा दौर आने के बाद वॉशिंगटन स्थित चीनी दूतावास ने अपना यह बयान दोहराया है कि चीन अमेरिका से व्यापार युद्ध नहीं चाहता, लेकिन अगर अमेरिका व्यापार या ‘कोई अन्य युद्ध’ चाहता है, तो चीन उसके लिए तैयार है।
ताजा दौर में अमेरिका ने चीन में बने या चीनी कंपनियों के स्वामित्व वाले जहाजों के अमेरिकी बंदरगाहों पर आने पर ऊंची फीस लगा दी है। बताया जाता है कि इससे चीनी कंपनियों को सालाना 3.2 बिलियन डॉलर की अतिरिक्त रकम चुकानी पड़ेगी। चीन ने इसका जवाब अमेरिकी स्वामित्व वाले जहाजों के चीनी बंदरगाहों पर उसी अनुपात में फीस लगा कर दिया है। दोनों देशों के इन कदमों से अंतरराष्ट्रीय व्यापार में बड़ी बाधा खड़ी होने की आशंका पैदा हो गई है। बहरहाल, इस अमेरिकी कदम से चीनी जहाज कंपनियों को भारी नुकसान जरूर होगा, मगर यह भी गौरतलब है कि अपनी बेल्ट एंड रोड परियोजना के तहत चीन ग्लोबल साउथ से लेकर यूरोप तक के अपने निर्यात की एक बड़ी मात्रा की समुद्र पर निर्भरता घटा चुका है।
ट्रंप ने यह धमकी भी दी है कि चीन के जो विमान रूस के वायु क्षेत्र से उड़ कर अमेरिका आते हैं, उन पर वे प्रतिबंध लगा सकते हैं। उनका कहना है कि रूस के वायु क्षेत्र से आने में कम समय लगता है और ऐसा करना अपेक्षाकृत सस्ता पड़ रहा है। इसका नुकसान अमेरिकी विमानन कंपनियों को उठाना पड़ रहा है। चीन ने कहा है कि अमेरिकी कंपनियों को यह नुकसान रूस पर प्रतिबंध लगाने के अमेरिकी फैसले का नतीजा है। अमेरिका ने चीन पर उसका असर डाला, तो वह भी उसका माकूल जवाब देगा।
अभी छिड़े व्यापार युद्ध की ये सब महज कुछ मिसालें हैं। इसके पहलू व्यापक दायरे में फैले हुए हैं, जिनसे विश्व व्यापार की सूरत आमूल रूप से बदलने की स्थितियां बन रही हैं। अब यह साफ हो चुका है कि अमेरिका और चीन के बीच होने वाली वार्ताएं महज क्षणिक राहत का जरिया हैं। दोनों देशों के हित इतने अंतर्विरोधी हो गए हैं कि इस व्यापार युद्ध का कोई फौरी समाधान संभव नहीं है। इसका हर नया दौर पिछले दौर की तुलना में अधिक गंभीर रूप में सामने आ रहा है। इसीलिए फिलहाल महसूस हो रहा है कि अप्रैल में जो हुआ, वो महज ट्रेलर था। फिल्म तो अब जाकर शुरू हुई है!
