उजड्ड विमर्श की इंतिहा के दौर में

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उपराष्ट्रपति चुनाव के दौरान नरेंद्र भाई मोदी की पलटन ने विपक्ष के प्रत्याशी रेड्डी पर नक्सलवादियों का पक्षधर होने की तोहमत भी ज़ोरशोर से लगाई। कहा कि जब वे सुप्रीम कोर्ट के जज थे तो उन्होंने सलवा जुडूम के बारे में एक फ़ैसला दिया था।…. तो शुरू से ही हारे हुए प्रतिपक्षी प्रत्याशी को हराने के लिए सत्तापक्ष ने दुष्प्रचार का हर तरह का हथकंडा अपनाने से कोई गुरेज़ नहीं किया।

नए उपराष्ट्रपति चंद्रपुरम पोन्नूसामी राधाकृष्णन ने शुक्रवार को अपने पद की शपथ ले ली। उन का चुना जाना पहले दिन से ही तय था। विपक्ष से बी. सुदर्शन रेड्डी की उम्मीदवारी प्रतीकात्मक ही ज़्यादा थी। उपराष्ट्रपति के इस चुनाव में सिर्फ़ यही देखना बाक़ी था कि किस को कितने वोट मिलते हैं। राधाकृष्णन को सत्ता पक्ष के सांसदों की संख्या से 12 वोट अधिक मिले। ज़ाहिर है कि इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी की उपलब्धि की तरह देखा जा रहा है। अब भले ही यह मालूम नहीं है कि किस-किस ने रेड्डी का पल्लू झटक कर राधाकृष्णन का दामन थामा, मगर यह सब के सामने हैं कि विपक्ष तो ख़ुद के सांसदों को अपने पाले में पूरी तरह नहीं रख पाया।

अगर यह एकतरफ़ा पाला-बदल का खेल था तो भी और अगर दोतरफ़ा अदला-बदली का खेल था तो भी, इस से न तो नरेंद्र भाई की छाती छप्पन के बजाय छियासठ इंच की हो जानी चाहिए और न ही विपक्ष की आंखों से आंसू छलकने चाहिए। यह न सत्तापक्ष के लिए गर्व का विषय है और न विपक्ष के लिए शर्म का। सेंधमारी करने में क़ामयाबी पर काहे का गर्व? सेंधमारी का शिकार हो जाने में काहे की शर्म? गर्व करें तो वे करें, जिन्होंने यह जानते हुए भी कि वे हारेंगे-ही-हारेंगे, सेंधमारी करने की कोशिशें नहीं कीं और शर्म करें तो वे करें, जो अपनी जीत का लंबा-चौड़ा फ़ासला होते हुए भी सेंधमारी की पुरानी लत से निज़ात नहीं पा सके। इस लिहाज़ से देखें तो पक्ष-विपक्ष के बुनियादी चरित्र को उपराष्ट्रपति चुनाव के दौरान सामने आई इस मिसाल ने पूरी तरह साफ़ कर दिया।

इस चुनाव में कुछ और भी ऐसे प्रसंग सामने आए, जिन से मौजूदा सत्तापक्ष और प्रतिपक्ष के मूल स्वभाव की गहराई में, आप चाहें तो, झांक सकते हैं। चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र भाई के लष्करी जमकर हल्ला मचाते रहे कि रेड्डी को उपराश्ट्रपति पद का उम्मीदवार बना कर कांग्रेस और समूचे विपक्ष ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता और स्वायत्तता पर हमला किया है। क्या ग़ज़ब का कुतर्क था? रेड्डी तो सुप्रीम कोर्ट के जज की ज़िम्मेदारी से 14 साल पहले रिटायर हो चुके थे। तब भी उन की उम्मीदवारी को न्यायपालिका की पवित्रता से नत्थी कर दिया गया। मगर यह पूछने वाला कोई नहीं था कि जब नरेंद्र भाई की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई को उन के सेवा निवृत्त होने के महज़ चार महीने के भीतर राज्यसभा में नामज़द कर दिया था, तब क्या न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुदृढ़ बनाने के लिए ऐसा किया गया था?

यह सवाल भी किसी ने किसी से नहीं पूछा कि महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी की प्रवक्ता रहीं आरती साठे ने एक दोपहर इस ज़िम्मेदारी से ख़ुद को मुक्त किया और उस के चंद ही महीने बाद बॉम्बे हाई कोर्ट की जज कैसे बना दी गईं? 28 जुलाई 2025 को हुई उन की इस नियुक्ति से क्या न्यायपालिका के नैतिक मूल्य मजबूत हुए हैं?

और सुनिए। कोलकाता हाई कोर्ट के एक जज थे अभिजित गंगोपाध्याय। कोलकाता हाई कोर्ट में ही वकालत करते थे। 2018 में उसी हाई कोर्ट में जज बना दिए गए। पष्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार के ख़िलाफ़ उन्होंने क्या-क्या फ़ैसले नहीं सुनाए। 2024 के लोकसभा चुनाव के दो महीने पहले मार्च में 5 तारीख़ को उन्होंने हाई कोर्ट जज के पद से इस्तीफ़ा दिया। दो दिन के भीतर 7 मार्च को भाजपा में भर्ती हो गए। दो दिन बाद 9 मार्च को नरेंद्र भाई की सिलीगुड़ी में जनसभा थी। वहां मंच पर बुला कर प्रधानमंत्री जी ने उन का अभिनंदन किया। उन्हें तमलुक से लोकसभा का टिकट दे दिया गया। चार दिनों में उन की ज़िंदगी में चार चांद लग गए। 15 मई को अपनी जनसभा में गंगोपाध्याय ने ममता के बारे में इतनी भद्दी टिप्पणी की कि निर्वाचन आयोग को स्वयमेव उस का नोटिस लेना पड़ा और 24 घंटे के लिए चुनाव प्रचार नहीं कर सकने की पाबंदी पूर्व जज साहब पर लगाई गई। जज साहब अब सांसद हैं। मोषा-भाजपा की राजनीतिक जीवन में षुचिता के इन नमूनों पर तो कभी कोई बात नहीं करता।

उपराष्ट्रपति चुनाव के दौरान नरेंद्र भाई मोदी की पलटन ने विपक्ष के प्रत्याशी रेड्डी पर नक्सलवादियों का पक्षधर होने की तोहमत भी ज़ोरशोर से लगाई। कहा कि जब वे सुप्रीम कोर्ट के जज थे तो उन्होंने सलवा जुडूम के बारे में एक फ़ैसला दिया था। मैं आप को बताता हूं कि वह फ़ैसला क्या था? 2005 में जब छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार थी तो मुख्यमंत्री रमन सिंह ने नक्सलवादियों से निपटने के लिए सलवा जुडूम समूहों की स्थापना की थी। इन समूहों को हथियारबंद किया गया था। गोंडी बोली के शब्द ‘सलवा जुडूम’ का मतलब तो होता है ‘शांति अभियान’, मगर हुआ यह कि एक तरफ़ नक्सलियों के आतंक से जूझ रहे छत्तीसगढ़ के आदिवासी ग्रामवासियों पर दूसरी तरफ़ से सलवा जुडूम के सशस्त्र हुड़दंगियों का कहर भी टूटने लगा। वे दो पाटन के बीच ऐसे फंसे कि उन का साबुत बचना मुश्क़िल हो गया।

सलवा जुडूम पर मानवाधिकार उल्लंघन के गंभीर आरोप थे। वे निर्दोष ग्रामीणों पर अत्याचार, उन के जबरन विस्थापन, गांवों को जला डालने और सि़्त्रयों पर अत्याचार जैसे मामलों में लिप्त होने लगे थे। यह मामला सुप्रीम कोर्ट में आया तो अदालत ने कहा कि राज्य द्वारा प्रायोजित सशस्त्र समूहों का गठन संवैधानिक शासन के खिलाफ है। रेड्डी का मत था कि नागरिकों की जान और माल की रक्षा की ज़िम्मेदारी राज्य की है और निजी सशस्त्र समूहों को प्रायोजित करना ग़ैरक़ानूनी है। सुप्रीम कोर्ट की दो-सदस्यीय पीठ ने यह भी कहा कि सलवा जुडूम जैसे अभियान ने नक्सलियों का प्रभाव कम करने के बजाय उल्टा नक्सलियों को समर्थन बढ़ाने में मदद की, क्योंकि यह अभियान आदिवासियों के लिए उत्पीड़न का कारण बन गया था। 18 पूर्व न्यायमूर्तियों ने इस फैसले का समर्थन करते हुए तब इसे संवैधानिक माना था।

तो शुरू से ही हारे हुए प्रतिपक्षी प्रत्याशी को हराने के लिए सत्तापक्ष ने दुष्प्रचार का हर तरह का हथकंडा अपनाने से कोई गुरेज़ नहीं किया। क्या आप को नहीं लगता है कि उपराष्ट्रपति के चुनाव में हमारे सत्तासीन ज़रा गरिमा से काम ले सकते थे? अगर रेड्डी की उम्मीदवारी को न्यायपालिका की आज़ादी की अवहेलना और नक्सलवाद के समर्थन जैसे उजड्ड विमर्श से न जोड़ा गया होता तो क्या ज़्यादा बेहतर नहीं होता? अधिकतम मतों के अंतर से हर चुनाव जीतने की हवस-पूर्ति ज़्यादा ज़रूरी है या लोकतंत्र की आचरण संहिता की हर हाल में रक्षा करना ज़्यादा अहमियत रखता है? मगर पिछले एक-सवा दशक में, लगता है, हम सियासी अंतःपुर की पतनगाथाएं सुनने को पूरी तरह अभिशप्त हो गए हैं। इस झंझावात से मुक्ति का रास्ता दूर-दूर तक नज़र भी नहीं आता है।

प्रसंगवशः रातोंरात अगोचर हो गए भारत के 14 वें उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ अब 53 दिन बाद चूंकि 15 वें उपराष्ट्रपति के षपथ ग्रहण समारोह में प्रकट हो गए हैं, क्या हम उम्मीद करें कि उन के एकाएक इस्तीफ़े के रहस्यलोक से आने वाले दिनों में पर्दा उठेगा? समूचा देश जानना चाहता है कि आख़िर ऐसा क्या भेद है, जो इस पर्दें के उठने से खुल जाएगा?


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