श्रीरामसेतु को क्यों नहीं आस्थास्थल का महत्व?

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वाल्मीकि रामायण, महाभारत, स्कंदपुराण, विष्णुपुराण से लेकर कालिदास के रघुवंश तकहर ग्रंथ में इस सेतु की कथा अंकित है। कथा यह भी कहती है कि विभीषण के अनुरोध पर श्रीराम ने लौटते समय अपने धनुष की नोक से सेतु का एक भाग तोड़ दिया, जिससे उसका नाम धनुष्कोटिपड़ा।

सुप्रीम कोर्ट में एक बार फिर श्रीरामसेतु चर्चा के केंद्र में है। भाजपा नेता और पूर्व राज्यसभा सांसद डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका पर 29 अगस्त 2025 को सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को नोटिस भेजा है। उनकी मांग है कि रामेश्वरम से लेकर मन्नार द्वीप तक फैले इस सेतु को राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया जाए और इसके संरक्षण का पक्का इंतज़ाम हो। अदालत ने सरकार से सीधा सवाल पूछा है—इस आस्था स्थल को राष्ट्रीय महत्व का दर्जा देने में अब तक कार्रवाई क्यों नहीं हुई?

भारतीय जनमानस में रामसेतु कोई साधारण पुल नहीं, बल्कि त्रेतायुग की याद, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के पराक्रम और सीता के प्रति उनके अमिट प्रेम का प्रतीक है। लाखों श्रद्धालु इसे तीर्थ मानकर यात्रा करते हैं। यह असत्य पर सत्य की विजय का प्रत्यक्ष उदाहरण माना जाता है। ग्रंथों में वर्णन है कि लंका विजय के लिए वानर सेना ने नल–नील के नेतृत्व में पत्थरों पर ‘राम’ लिखकर उन्हें समुद्र पर रखा, और चमत्कार यह कि वे पत्थर तैर गए। समुद्र पर पुल बंधा और लंका पर चढ़ाई संभव हुई।

वाल्मीकि रामायण, महाभारत, स्कंदपुराण, विष्णुपुराण से लेकर कालिदास के रघुवंश तक—हर ग्रंथ में इस सेतु की कथा अंकित है। कथा यह भी कहती है कि विभीषण के अनुरोध पर श्रीराम ने लौटते समय अपने धनुष की नोक से सेतु का एक भाग तोड़ दिया, जिससे उसका नाम ‘धनुष्कोटि’ पड़ा। आज भी रामेश्वरम में भगवान श्रीराम की शयनमुद्रा मूर्ति और सेतुबंध रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग इस स्मृति को जीवित रखते हैं।

वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह पुल रहस्यमय है। नासा की उपग्रह तस्वीरों ने समुद्र के भीतर फैली पत्थरों की कड़ी को स्पष्ट दिखाया है। कई विद्वान इसे मानव–निर्मित मानते हैं। पुराणों में कहा गया है कि नल के निर्देशन में पांच दिनों में सौ योजन लंबा और दस योजन चौड़ा यह सेतु बना। पुराणों और लोककथाओं में गिलहरी के योगदान तक का उल्लेख है। यही कारण है कि श्रद्धालु इसे केवल भूतकाल का स्मारक नहीं, बल्कि आज भी जीवंत ऊर्जा का स्रोत मानते हैं।

स्कंदपुराण में वर्णित है—रामसेतु का दर्शन करने मात्र से यज्ञों और तीर्थों का पुण्य फल मिलता है। इसमें स्नान पापों का नाश करता है, मोक्ष का द्वार खोलता है। यही कारण है कि इसे ‘पापनाशक सेतु’ कहा गया। पुराणों में यहां तक कहा गया कि जब तक सेतु रहेगा, तब तक भगवान शिव की उपस्थिति इसमें बनी रहेगी।

यही कारण है कि आस्था का यह केंद्र किसी भी विवाद या शंका से ऊपर है। इसे नकारना या मिथक कहना भारतीय बहुसंख्यकों की भावनाओं को ठेस पहुँचाना है। श्रीरामसेतु केवल पत्थरों की कतार नहीं, बल्कि सभ्यता की स्मृति है—राम की विजय, सीता के प्रेम और भारतीय समाज की अटल श्रद्धा का प्रतीक।

अब प्रश्न यही है कि जब देश की बहुसंख्यक आस्था इसे तीर्थ मानती है, जब पुरातात्विक और वैज्ञानिक संकेत इसके अस्तित्व की पुष्टि करते हैं, तो क्या सरकार को इसमें देर करनी चाहिए? सर्वोच्च न्यायालय का नोटिस इसीलिए अहम है। यह केवल एक पुल को राष्ट्रीय स्मारक बनाने का प्रश्न नहीं, बल्कि करोड़ों भारतीयों की आस्था को मान्यता देने और सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा का प्रश्न है।

श्रीरामसेतु आज भी समुद्र पर खड़ा है—मानव–निर्मित हो या दिव्य संयोग—वह सत्य की विजय और भक्ति के अदम्य विश्वास का गवाह है। सरकार यदि इसे राष्ट्रीय महत्व का दर्जा देती है, तो यह न सिर्फ आस्था का सम्मान होगा बल्कि इतिहास और संस्कृति की उस विरासत की रक्षा भी होगी जिसे कोई लहर, कोई विवाद डुबो नहीं सकता।


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