सत्ता न हो तो कैसे लड़ेंगी पार्टियां?

Categorized as अजित द्विवेदी कालम

यह लाख टके का सवाल है कि अगर किसी पार्टी के पास सत्ता नहीं है तो वह कैसे राजनीति करेगी और कैसे चुनाव लड़ेगी? सोचें, एक समय सत्ता में होना चुनाव में असफल होने का आधार बनता था लेकिन अब सत्ता में होना चुनाव जीतने की गारंटी बनता जा रहा है। एंटी इन्कम्बैंसी से प्रो इन्कम्बैंसी का यह सफर एक अलग व्यापक विश्लेषण की मांग करता है। लेकिन अभी तात्कालिक विचार का मसला पार्टियों के लिए राजनीति और चुनाव मैदान के लगातार असमान होते जाने का है। हाल में कई मीडिया समूहों ने पार्टियों को मिलने वाले चंदे का ब्योरा प्रकाशित किया है। इससे जो तस्वीर बनती है वह देश की मुख्य विपक्षी पार्टी यानी कांग्रेस के लिए बहुत चिंताजनक है। कांग्रेस के अलावा ऐसी पार्टियां, ज्यादा मुश्किल में दिख रही हैं, जिनकी किसी राज्य में सरकार नहीं है या जिनकी राजनीति अभी तक सत्ता हासिल करने वाली नहीं रही है। इसमें कम्युनिस्ट पार्टियां भी शामिल हैं।

राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे की कहानी बहुत दिलचस्प है। अगर यह कहा जाए कि ज्यादातर चंदा सत्तारूढ़ दल को मिलता है और विपक्षी पार्टियां इससे वंचित रहती हैं तो उससे आधी तस्वीर बनती है। इससे ऐसा लगता है कि जैसे सिर्फ भाजपा लाभ की स्थिति में है और बाकी सभी पार्टियां बुरी दशा में हैं। लेकिन असल में ऐसा नहीं है क्योंकि केंद्र की राजनीति में जो पार्टियां भाजपा के खिलाफ लड़ती हैं उनमें से ज्यादातर बड़ी पार्टियां किसी न किसी प्रदेश की सत्ता में हैं या सत्ता में रही हैं या फिर से सत्ता में वापसी की संभावना प्रकट करती हैं। वे किसी न किसी रूप से प्रदेश की राजनीति और समाज व्यवस्था को प्रभावित करने की शक्ति रखती हैं। ऐसी पार्टियों को भी पर्याप्त चंदा मिलता है। अगर प्रतिशत में देखेंगे तो भाजपा के मुकाबले उनका चंदा बहुत कम दिखाई देगा लेकिन उनके असर वाले राज्य की तुलना में अंतर ज्यादा नहीं होगा। कहने का अर्थ यह है कि अगर डीएमके को सिर्फ तमिलनाडु की राजनीति करनी है तो उसको उसी अनुपात में राजनीतिक चंदे की जरुरत है। उसे अखिल भारतीय राजनीति नहीं करनी है इसलिए चंदे के मामले में उसकी प्रतिस्पर्धा भाजपा से नहीं हो सकती है।

यह स्थिति कमोबेश सभी प्रादेशिक पार्टियों की है। इसलिए उनको मिलने वाले चंदे की रकम भाजपा के मुकाबले कम दिखती है लेकिन वह असल में आनुपातिक रूप से कम नहीं होती है। मिसाल के तौर पर अगर वित्त वर्ष 2024-25 में भारतीय जनता पार्टी को 6,088 करोड़ रुपए मिले हैं तो डीएमके को 365 करोड़ रुपए मिले हैं। भाजपा को सभी 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में राजनीति करनी है, जबकि डीएमके को सिर्फ एक राज्य और एक केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी में राजनीति करनी है। इस लिहाज से उसका चंदा ठीक है। तृणमूल कांग्रेस को 184 करोड़ तो वाईएसआर कांग्रेस को 140 करोड़ रुपए का चंदा मिला है। तेलुगू देशम पार्टी को 83 करोड़, बीजू जनता दल को 60 करोड़, आम आदमी पार्टी को 38 करोड़ रुपए मिले हैं। बहुत सी पार्टियां ऐसी हैं, जिनको इलेक्टोरल बॉन्ड या इलेक्टोरल ट्रस्ट के मुकाबले ज्यादा चंदा निजी दानदाताओं से और नकद के रूप में मिलता है।

बहरहाल, कुछ साल तक राजनीतिक चंदे का मुख्य स्रोत इलेक्टोरल बॉन्ड था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने अवैध बता कर रद्द कर दिया है। इसके बाद इलेक्टोरल ट्रस्ट के जरिए पार्टियों को चंदा दिया जा रहा है। कंपनियां सीधे भी पार्टियों को चंदा देती हैं। इनके अलावा निजी तौर पर भी लोग पार्टियों को चंदा दे सकते हैं। इसका नियम है कि दो हजार रुपए से ज्यादा की रकम चेक के जरिए दी जाएगी। दो हजार से कम नकद चंदा दिया जा सकता है। अनेक प्रादेशिक पार्टियों के फंड में इस रास्ते मिलने वाला चंदा सबसे ज्यादा होता है। देश की अनेक पार्टियां इस रास्ते से काले धन को सफेद करती हैं। कंपनियों के चंदे में भी यह धंधा होता है। चुनाव आयोग ने अनेक ऐसी पार्टियों की पहचान की है, जो चुनाव नहीं लड़ती हैं या लड़ती हैं तो बहुत मामूली वोट पाती हैं लेकिन उनको चंदा भरपूर मिलता है। यह राजनीतिक दल और चंदे का अलग खेल है।

सो, राजनीतिक दलों को इलेक्टोरल ट्रस्ट, कॉरपोरेट और निजी तौर पर मिले चंदे का जो लेखा जोखा सामने आया है उसका लब्बोलुआब यह है कि सबसे ज्यादा मुश्किल कांग्रेस के सामने है। कांग्रेस को वित्त वर्ष 2024-25 में 522 करोड़ रुपए का चंदा मिला है। सोचें, भाजपा के 6,088 करोड़ के मुकाबले 522 करोड़ का चंदा! यह स्थिति तब है, जब तीन राज्यों में उसकी सरकार है। अगर राज्यों में सरकार न रहे तो देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी पाई पाई के लिए मोहताज हो जाए। इसका सीधा अर्थ है कि राजनीतिक चंदे का मामला किसी पहलू से लोकतांत्रिक नहीं है। चंदा देने वालों को लोकतंत्र से कोई मतलब नहीं है। उनको सत्ता से मतलब है। जो सरकार में है उसे कंपनियां या कंपनियों का बनाया हुआ ट्रस्ट ज्यादा चंदा देता है। अमेरिका में एक दिलचस्प विभाजन है। वहां हथियार बनाने वाली कंपनियां रिपब्लिकन पार्टी को ज्यादा चंदा देती हैं और दवा बनाने वाली कंपनियां डेमोक्रेटिक पार्टी को ज्यादा चंदा देती हैं। लेकिन भारत में ऐसा नहीं है। भारत में कोई भी उत्पाद बनाने वाली या कोई भी सेवा देने वाली कंपनी सत्तारूढ़ पार्टी को ज्यादा चंदा देती है।

जो सरकार में होता है उसको ज्यादा चंदा मिलता है। लेकिन क्यों? चंदा देने वाले को सरकार से क्या अपेक्षा होती है? क्या सत्ता का संरक्षण हासिल करना इसका मकसद होता है या सरकारी दल को ज्यादा चंदा देकर कंपनियां अपने मनमाफिक नीतियां बनवाती हैं और मनमानी कमाई करती हैं? यह लोकतंत्र और उदार अर्थव्यवस्था दोनों पर गंभीर सवाल है। किसी उदार अर्थव्यवस्था में किसी भी उद्यमी को सत्ता के संरक्षण की जरुरत नहीं होनी चाहिए। लेकिन चूंकि भारत में सब कुछ अब भी सरकार की इच्छा से संचालित होता है इसलिए बड़े कॉरपोरेट समूह भी सरकार के आगे झुके होते हैं। सबसे ज्यादा चंदा देने वाले दो ट्रस्टों, प्रूडेंस और प्रोग्रेसिव की संरचना देखें तो समझ में आ जाता है कि इनमें वो सारी कंपनियां हैं, जिनके ऊपर अपने कारोबार में एकाधिकार बनाने का आरोप लगता रहा है। कांग्रेस ही ये आरोप लगाती है फिर ये कंपनियां उसे क्यों चंदा देंगी?

ध्यान रहे चुनाव लड़ने के लिए दो प्राथमिक जरुरतों में एक धन है और दूसरा नैरेटिव की ताकत है। नैरेटिव की ताकत मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए आती है और इस पर भी चुनिंदा कॉरपोरेट घरानों का कब्जा है, जो खुले दिल से भाजपा को और राज्यों में चुनिंदा प्रादेशिक पार्टियों को चंदा देती हैं। कहने की जरुरत नहीं है कि जो कॉरपोरेट घराना किसी पार्टी पर पैसा लगाएगा वह उसके नैरेटिव को भी सपोर्ट करेगा। तभी कांग्रेस के लिए चुनावी लड़ाई का मैदान बहुत ज्यादा गैर बराबरी का हो गया है। उसे न तो चंदा मिलता है और न उसके उठाए मुद्दों को मीडिया का समर्थन मिलता है। यानी वह धन और नैरेटिव दोनों की ताकत में कमजोर होती जा रही है। अगर कॉरपोरेट और कॉरपोरेट संचालित मीडिया में इसी तरह लोकतांत्रिक स्पेस सिकुड़ता गया तो आने वाले दिनों में विपक्षी पार्टियों के लिए और मुश्किल होगी।


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