विकसित भारत गारंटी फॉर रोजगार एंड आजीविका मिशन ग्रामीण यानी वीबी जी राम जी बिल पक्ष और विपक्ष में जोर आजमाइश का अखाड़ा बनने जा रहा है। केंद्र सरकार ने 72 घंटे के अंदर बिल पेश करके संसद के दोनों सदनों से पास कराया तो अब विपक्ष इसके विरोध में सड़क पर उतरने और आंदोलन करने के लिए कमर कस रहा है। पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार ने अपनी रोजगार की योजना कर्मश्री का नाम बदल कर महात्मा गांधी के नाम पर कर दिया। उधर पंजाब की सरकार ने विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया है, जिसमें केंद्र सरकार के इस नए बिल के खिलाफ प्रस्ताव पास किया जाएगा। कांग्रेस पार्टी ने 27 दिसंबर को कार्यसमिति की बैठक बुलाई है और 28 दिसंबर को पूरे देश में इस मुद्दे पर आंदोलन करेगी। दिल्ली से लेकर प्रदेश और जिला मुख्यालय तक कांग्रेस के नेता सड़क पर उतरेंगे।
उससे पहले सोनिया गांधी ने एक वीडियो संदेश जारी किया, जिसमें उन्होंने मनरेगा की खूबियां और जी राम जी बिल की कमियां बताईं। राहुल गांधी ने विदेश से ही बयान जारी किया कि यह बिल कृषि कानूनों की गति को प्राप्त होगा। उन्होंने कहा कि सरकार ने जैसे कृषि कानूनों को वापस लिया था उसी तरह जी राम जी बिल को भी वापस लेना होगा। अब सवाल है कि ऐसा कैसे होगा? ध्यान रहे केंद्र सरकार के तीन विवादित कृषि कानून इसलिए वापस हुए थे क्योंकि पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों ने लगातार एक साल तक दिल्ली की सीमा को घेर कर कर धरना दिया था। वह एक मौका था जब किसान संगठित हुए थे। उसके बाद तो किसान भी संगठित नहीं हो पाए और उनका संगठन कई हिस्सों में बंट गया। तभी तीनों कानूनों की वापसी और आंदोलन की समाप्ति के समय स्वंय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से किए गए वादे को भी चार साल बाद तक पूरा नहीं किया जा सका है और किसान दोबारा वैसा आंदोलन नहीं कर पाए हैं।
किसानों की तुलना में मजदूरों और खेत मजदूरों का तो कोई संगठन भी नहीं है, जो इस नए कानून के खिलाफ आंदोलन करने के लिए सड़क पर उतरे। यह सही है कि सात करोड़ से ज्यादा परिवारों को इस योजना का लाभ मिला और अब भी करोडों लोग इस योजना के साथ जुड़े हुए हैं। लेकिन क्या किसी तरह से उनको इसके खिलाफ मोबिलाइज करके सड़क पर उतारा जा सकता है? यह लाख टके का सवाल है। ऐसा तभी हो सकता है, जब कांग्रेस पार्टी इसे अपने एकमात्र मुद्दे के तौर पर उठाए और जिस तरह से राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा की थी वैसी तैयारी के साथ इसके खिलाफ आंदोलन शुरू हो। राहुल गांधी खुद सड़क पर उतरें और आंदोलन करें। जरुरत पड़े तो महात्मा गांधी के तरीके से अनशन और उपवास करें। ध्यान रहे संसद में इस बिल का वैसा विरोध नहीं हुआ, जिसकी तैयारी अभी होती दिख रही है। जिस दिन संसद में बिल पेश किया गया उसी दिन राहुल गांधी जर्मनी की यात्रा पर गए। वे इसका विरोध करने के लिए संसद में नहीं थे। जाहिर है उनको बिल का मसौदा मिल गया था और उसे देखने के बाद वे विदेश गए।
सभी विपक्षी पार्टियों के 90 से ज्यादा सांसदों ने इस बिल पर अपनी राय रखी। लेकिन सदन में भाषण देने के अलावा इसका विरोध सिर्फ तृणमूल कांग्रेस ने किया। उसके सांसदों ने संसद की नई इमारत के मकर द्वार के सामने 12 घंटे का धरना दिया। पूरी रात उसके सांसद धरने पर रहे। हालांकि उनका विरोध महात्मा गांधी के अपमान के मामले तक सीमित था। उन्होंने बिल के कंटेंट को बहुत तवज्जो नहीं दी। सीपीएम के लोग बिल का विरोध कर रहे हैं लेकिन उनका विरोध राजनीतिक है। वे इस बात को मुद्दा बना रहे हैं कि जब सरकार ने मजदूरों के हितों पर इतना बड़ा हमला किया तो प्रियंका गांधी वाड्रा क्यों स्पीकर की औपचारिक चाय पार्टी में गईं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ बैठीं। उनका विरोध राहुल की विदेश यात्रा को मुद्दा बनाने तक सीमित है। अगर कांग्रेस के साथ तृणमूल कांग्रेस, लेफ्ट, सपा, डीएमके, राजद, जेएमएम, एनसीपी जैसी तमाम विपक्षी पार्टियां एक होकर इसके खिलाफ सड़क पर नहीं उतरेंगी तो कोई भी विरोध कामयाब नहीं हो पाएगा।
यह हैरानी की बात है कि दोनों सदनों से पास होने और राष्ट्रपति की मंजूरी के साथ कानून बन जाने के बाद अब इसके प्रावधानों पर विस्तार से चर्चा हो रही है और जिस तरह से बिल को लाकर पास कराया गया उस तरीके पर चर्चा हो रही है। पुराना बिल तैयार करने वाली सोनिया गांधी की नेशनल एडवाइजरी कौंसिल के सदस्य रहे ज्यां द्रेज ने कहा है कि सरकार ने बिना किसी विचार विमर्श के और बिना सहमति के बिल को बुलडोजर के अंदाज में स्वीकार कराया है। यह जुमला सोनिया गांधी ने भी बोला है। उनकी एनएसी की सदस्य रहीं अरुणा रॉय और निखिल डे ने भी इसका विरोध किया है। सो, सिविल सोसायटी मनरेगा को समाप्त करके नया बिल लाने के खिलाफ खड़ी है तो सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी भी कमर कस रही है। राहुल गांधी दावा कर रहे हैं कि सरकार को बिल वापस लेने के लिए मजबूर करेंगे।
लेकिन सवाल है कि ऐसा कैसे होगा? सरकार एक ही शर्त पर बिल वापस ले सकती है, जब उसको लगे कि इसका राजनीतिक नुकसान हो सकता है। ध्यान रहे तीनों कृषि बिल भी तभी वापस लिए थे, जब उत्तर प्रदेश का चुनाव बहुत नजदीक आ गया था। किसान नवंबर 2020 से धरने पर थे लेकिन नवंबर 2021 में बिल तब वापस हुआ, जब फरवरी में होने वाली उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब के चुनाव नजदीक आ गए। इसके बावजूद उत्तर प्रदेश में भाजपा को नुकसान हुआ। उसकी सरकार बनी लेकिन उसकी सीटें घट कर 255 पर आ गईं। पंजाब में भाजपा और उसकी पुरानी सहयोगी अकाली दल का बुरा हस्र हुआ। तभी सवाल है कि क्या कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, वामपंथी पार्टियां, डीएमके, समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी आदि मिल कर ऐसा माहौल बना सकते हैं या मजदूरों, किसानों, खेत मजदूरों को एकजुट कर सकते हैं, जिससे भाजपा को लगे कि उसको राजनीतिक नुकसान हो सकता है? इसकी संभावना कम दिख रही है। इसकी संभावना इसलिए भी कम दिख रही है क्योंकि इस बार भाजपा ने जी राम जी बिल के जरिए रामजी को दांव पर लगाया है। अगर रामजी के नाम का कानून वापस हुआ तो भाजपा के कोर नैरेटिव को चोट पहुंचेगी। महात्मा गांधी बनाम रामजी का विवाद भाजपा ने सोच समझ कर बनाया है। इसमें उसका पीछे हटना मुश्किल है। फिर भी अगले कुछ दिन में जो जोर आजमाइश होगी वह देखने वाली होगी।
