राजनीतिक दलों और नेताओं में आखिर इतनी हिम्मत कहां से आती है कि वे चुनाव से पहले कुछ भी वादा कर देते हैं? लोकतंत्र के लिए यह बहुत जरूरी सवाल है और इसका सीधा सरल जवाब यह है कि चूंकि जनता चुनाव के बाद नेताओं को जवाबदेह नहीं ठहराती है, उनसे उनके वादों के बारे में पूछताछ नहीं करती है इसलिए नेताओं में यह हिम्मत आती है। अगर चुनाव के बाद लोग घोषणापत्र लेकर नेताओं का सामना करें और उनको जवाबदेह ठहराएं तो धीरे धीरे इसमें बदलाव आ सकता है। लेकिन जैसा कि एक लेखक ने लिखा है कि अगर झूठ बोलने वाले और सुनने वाले दोनों को पता हो कि झूठ बोला जा रहा है तो फिर ऐसे झूठ से पाप नहीं लगता है।
एक और विद्वान ने कहा है कि, ‘युद्ध के दौरान, शिकार के बाद और चुनाव से पहले जितने झूठ बोले जाते हैं उतने कभी नहीं बोले जाते’। इन दोनों बातों का मतलब है कि चुनाव से पहले नेता को पता होता है कि वह झूठ बोल रहा है और जनता को भी पता होता है को नेता द्वारा झूठ बोला जा रहा है। इसलिए झूठ बोल कर नेता और झूठ सुन कर जनता दोनों अपने अपने काम में मगन हो जाते हैं। तभी चुनाव के बाद जनता पूछने नहीं जाती है कि नेता ने जो वादा किया था उस पर अमल क्यों नहीं हुआ। जनता का यह रवैया नेता के लिए रक्षा कवच की तरह है।
लेकिन अब धीरे धीरे झूठ की भी पराकाष्ठा होती जा रही है। नेता चुनाव से पहले कुछ भी बोल रहे हैं। कुछ भी वादा कर रहे हैं। आसमान से चांद, तारे तोड़ कर लाने की बात कही जा रही है। तभी अब यह जरूरी हो गया है कि इसको नियंत्रित करने के उपायों पर चर्चा शुरू हो। पहला उपाय तो यही है कि जनता सवाल पूछे। नेताओं को जवाबदेह ठहराए। चुनाव के बाद निरंतर उनको उनके वादों की याद दिलाए। जब जनता सवाल पूछना शुरू करेगी तो नेता झूठे वादे करने से बचेंगे। इस काम में मीडिया की बड़ी भूमिका हो सकती है और विपक्षी पार्टियों का भी रोल हो सकता है। हालांकि हारने वाली पार्टी ने भी बड़े बड़े वादे किए होंगे फिर भी उसे जीतने वाले को उसके वादे की याद दिला कर कठघरे में खड़ा करना चाहिए।
इसके अलावा भी कुछ उपाय हो सकते हैं। जैसे पहला उपाय तो यह है कि नेताओं को इस बात के लिए मजबूर किया जाए कि वे जो भी वादा करें उसको लागू करने का रोडमैप जनता के साथ शेयर करें। यह बताएं कि वादे को कैसे लागू करेंगे, उसे लागू करने के लिए कितने फंड की जरुरत है, उस फंड का जुगाड़ कैसे होगा और वादे को पूरा करने का क्या लाभ राज्य, देश और जनता को मिलेगा। अगर कोई पार्टी या नेता अपने वादे को लागू करने का ब्लूप्रिंट जनता के साथ शेयर नहीं करे या वह व्यावहारिक नहीं हो तो उसे झूठ मानना चाहिए और चुनाव से पहले ही खारिज कर देना चाहिए। दूसरा उपाय यह हो सकता है कि पार्टियों और नेताओं को चुनावी वादे को लागू करने के लिए कानूनी रूप से बाध्य किया जाए।
इस तरह का कोई कानून होना चाहिए कि अगर नेता या पार्टी चुनाव के समय किए गए वादे को निश्चित समय में नहीं पूरा करती है तो जनता उसे अदालत में घसीट सके। एक तीसरा उपाय यह हो सकता है कि दुनिया के कई देशों में लागू रिकॉल के सिस्टम को भारत में भी लागू किया जाए। यानी जनता चाहे तो अपने चुने हुए प्रतिनिधि को वापस बुला सके। अगर कोई पार्टी या नेता चुनाव के समय किए गए वादे को लागू नहीं कर सके तो मतदाताओं को यह अधिकार होना चाहिए कि वह उस जन प्रतिनिधि को वापस बुलाने की प्रक्रिया शुरू कर सकें। इन उपायों से नेताओं और पार्टियों को जवाबदेह ठहराया जा सकेगा। हालांकि ये सारे आदर्शवादी उपाय हैं, जिन्हें भारत में अपनाने की दिशा में शायद ही कोई आगे बढ़ेगा।
बहरहाल, चुनावी वादों के लिए पार्टियों और नेताओं को जिम्मेदार ठहराने के उपाय की जरुरत का सवाल बिहार विधानसभा चुनाव में किए जा रहे वादों की वजह से उठा है। बिहार विधानसभा चुनाव में जो वादे किए जा रहे हैं या दूसरे चुनावों में भी जो वादे होते हैं, गारंटियां दी जाती हैं उनको दो श्रेणियों में रख सकते हैँ। एक श्रेणी मुफ्त में वस्तुएं और सेवाएं और नकद पैसे देने की है। यह एक अलग पहलू है। इसका असर राज्य या देश की अर्थव्यवस्था पर बहुत भयानक होने वाला है। ऐसी योजनाओं के चलते कई राज्यों की आर्थिक हालत बिगड़ गई है। फिर भी चुनाव जीतने के लिए ऐसे वादे किए जा रहे हैं। जैसे बिहार में तेजस्वी यादव ने वादा किया है कि सरकार बनी तो महिलाओं को हर महीने ढाई हजार रुपए देंगे या दो सौ यूनिट बिजली फ्री करेंगे। यह वादों की एक श्रेणी है।
दूसरी श्रेणी वह है, जिसमें तेजस्वी यादव ने कहा कि सरकार बनी तो बिहार के हर परिवार से एक सदस्य को सरकारी नौकरी देंगे। यह ऐसा वादा है, जैसा पूरे देश में आज तक किसी ने नहीं किया है। पूरे देश में इस समय करीब साढ़े चार करोड़ सरकारी कर्मचारी हैं, जिसमें 50 लाख भारत सरकार के कर्मचारी हैं। सभी राज्यों को मिला कर चार करोड़ के करीब कर्मचारी हैं। लेकिन तेजस्वी यादव कह रहे हैं कि सरकार बनी तो बिहार में करीब पौने तीन करोड़ परिवारों के एक एक सदस्य को सरकारी नौकरी देंगे। यानी अकेले बिहार में पौने तीन करोड़ सरकारी कर्मचारी होंगे। बिहार की कुल आबादी करीब 13 करोड़ है, उसमें से करीब एक चौथाई को सरकारी नौकरी दे देंगे। एक सवाल तो यह है कि अगर इतने लोगों को 20 हजार रुपए के न्यूनतम वेतन वाली नौकरी भी देते हैं तो करीब छह लाख करोड़ रुपए की हर साल सिर्फ वेतन के लिए जरुरत होगी।
उसके अलावा बाकी स्थापना का खर्च है। कार्यालय है, बैठने की जगह है, बिजली, पानी आदि की जरुरतें हैं, जिन पर भारी भरकम खर्च होगा। ध्यान रहे बिहार का सालाना बजट तीन लाख करोड़ रुपए से थोड़ा ज्यादा है। पैसे के अलावा एक बड़ा सवाल यह भी है कि ये लोग क्या काम करेंगे? हर चार आदमी पर एक सरकारी कर्मचारी होगा तो वह क्या करेगा? तेजस्वी यादव कह रहे हैं कि उनके पास रोडमैप है। जाहिर है उनके पास आंख में धूल झोंकने वाला कोई रोडमैप होगा। लेकिन वे जितने आत्मविश्वास से यह वादा कर रहे हैं वह चमत्कृत करने वाला है।
इसी तरह जब वे नीतीश कुमार की सरकार में थे तब उनकी साझा सरकार ने जातीय गणना कराई थी, जिसके आंकड़ों से पता चला था कि बिहार में करीब एक करोड़ परिवार ऐसे हैं, जिनकी मासिक आमदनी छह हजार रुपए से कम है। यानी अगर पांच आदमी का परिवार है तो प्रति व्यक्ति मासिक आमदनी 12 सौ रुपए से कम है। नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार ने ऐसे हर परिवार को दो दो लाख रुपए नकद देने का ऐलान किया। तब भी सवाल उठा की इसके लिए दो लाख करोड़ रुपए की जरुरत होगी और वह कहां से आएगी। इस वादे के दो साल से ज्यादा हो गए और किसी के खाते में दो लाख रुपए नहीं आए। अब समय आ गया है कि ऐसे असंभव वादों को रोकने के लिए कुछ उपाय किए जाएं या उपायों पर चर्चा शुरू हो।
