राहुल गांधी ने जर्मनी की यात्रा के दौरान एक कार्यक्रम में कहा कि बहुत से लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विचारों का समर्थन करते हैं लेकिन बहुत से लोग उनका विरोध भी करते हैं। यही बात चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने कांग्रेस के सामने अपने प्रेजेंटेशन में कही थी। उन्होंने बताया था कि देश में लगभग 60 फीसदी मतदाता भाजपा के खिलाफ वोट करते हैं। अगर उस वोट को एकजुट किया जाए तो भाजपा को रोका जा सकता है। सवाल है कि क्या राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी सभी विपक्षी पार्टियों को साथ लेकर भाजपा विरोधी वोट को एकजुट करने का प्रयास करेंगे? यह बड़ा सवाल है और कम से कम अभी जो मुद्दे कांग्रेस उठा रही है उससे इसकी संभावना कम दिख रही है।
गौरतलब है कि कांग्रेस पार्टी ने दिल्ली के रामलीला मैदान में ‘वोट चोर, गद्दी छोड़’ रैली की। रविवार, 14 दिसंबर को राजधानी में हुई इस रैली में भीड़ भी जुटी। यह कांग्रेस का संयोग है कि राजधानी दिल्ली में खत्म हो जाने के बावजूद आसपास के राज्यों में उसकी हैसियत बची है। हरियाणा में कांग्रेस इतनी मजबूत है कि वहां से लोग रैलियों के लिए आ जाते हैं। पश्चिम उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और राजस्थान में भी कांग्रेस की स्थिति ठीक ठाक है तो वहां से भी नेता भीड़ ले आते हैं।
सो, भीड़ के लिहाज से कांग्रेस की रैली कामयाब मान सकते हैं। मंच पर देश भर के नेताओं की मौजूदगी, नेताओं के बीच की केमिस्ट्री और उनकी भाव भंगिमा से उनके अंदर जोश और लड़ने का जज्बा भी जाहिर हो रहा था। लेकिन सवाल है कि क्या ‘वोट चोरी’ का अब अकेले कांग्रेस पार्टी का मुद्दा है और इसी से जुड़ा हुआ दूसरा सवाल यह है कि क्या कांग्रेस अब इस मुद्दे को लेकर बुने गए अपने ही जाल में ऐसे फंस गई है कि उसमें से निकल नहीं पा रही है?
सवाल का पहला हिस्सा ‘इंडिया’ ब्लॉक के एक घटक दल नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता और जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के बयान से उपजा है। उमर अब्दुल्ला ने कहा है कि ‘वोट चोरी’ सिर्फ कांग्रेस पार्टी का मुद्दा है और ‘इंडिया’ ब्लॉक का इससे कोई लेना देना नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि ‘हम अपना मुद्दा खुद चुनेंगे’। दूसरी सहयोगी पार्टी शरद पवार की एनसीपी है, जिसकी नेता सुप्रिया सुले ने संसद में कहा कि ‘मैं ईवीएम या वीवीपैट पर सवाल नहीं उठाऊंगी क्योंकि मैं इसी मशीन से चार बार जीत कर आई हूं’। इससे यह साफ दिखने लगा है कि भाजपा विरोधी पार्टियां कांग्रेस के इस मुद्दे से दूरी बना चुकी हैं या बना रही हैं। मुश्किल यह है कि कांग्रेस की भी उनको इससे जोड़ने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिख रही है।
अगर कांग्रेस की दिलचस्पी होती तो रामलीला मैदान की रैली में समान विचार वाली पार्टियों को आमंत्रित किया जाता। ध्यान रहे संसद के शीतकालीन सत्र के बीच में कांग्रेस ने यह रैली की है। इसी सत्र में चुनाव सुधार के बहाने मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआईआर पर विस्तार से चर्चा हुई। सभी पार्टियों ने इस चर्चा में हिस्सा लिया। लेकिन हैरानी की बात है कि एसआईआर की प्रक्रिया पर सवाल उठाने, चुनाव प्रक्रिया में सुधार की जरुरत बताते और चुनाव आयोग पर पक्षपात के आरोप लगाने के बावजूद किसी भी विपक्षी पार्टी ने कांग्रेस की ‘वोट चोरी’ रैली में शामिल होने की इच्छा नहीं जताई!
संसद में चर्चा के दौरान विपक्षी पार्टियों के नेताओं ने ‘वोट चोरी’ जैसे जुमलों से भी आमतौर पर परहेज किया। समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कांग्रेस नेताओं की ओर से दिए गए सुझावों से सहमति जताई लेकिन वह सुझाव चुनाव सुधारों से जुड़े थे। ऐसा लग रहा है कांग्रेस ने ‘वोट चोरी’ को अपनी चुनावी हार के लिए एकमात्र कारण बताना शुरू किया तो धीरे धीरे विपक्षी पार्टियां उससे दूर होती गईं। न कांग्रेस ने उन्हें रोकने का प्रयास नहीं किया और न विपक्षी पार्टियों ने अपने को इस मुद्दे से जोड़ने की कोशिश की।
यह भी लग रहा है कि ‘इंडिया’ ब्लॉक की पार्टियां कांग्रेस की हार का इकलौता कारण ‘वोट चोरी’ को नहीं मान रही हैं। उमर अब्दुल्ला के बयान को इसी संदर्भ में देखने की जरुरत है। आखिर 2024 के विधानसभा चुनाव में उमर की पार्टी 25 सीट से बढ़ कर 41 हो गई, जबकि कांग्रेस 15 से घट कर छह सीट पर आ गई। फिर कैसे उमर को ‘वोट चोरी’ के कांग्रेस के आरोप पर यकीन होगा? उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को लोकसभा चुनाव में जितनी बड़ी जीत मिली है उसमें वह ‘वोट चोरी’ के आरोप लगा ही नहीं सकती है। आखिर अखिलेश यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी ने 37 सीट जीत कर 2004 का रिकॉर्ड तोड़ा, जब मुलायम सिंह के नेतृत्व में सपा 36 सीटों पर जीती थी।
इसी तरह हेमंत सोरेन की पार्टी लगातार दो चुनावों में जीती है और लोकसभा में उनकी सीटें बढ़ी हैं तो वे कैसे राहुल गांधी के वोट चोरी के आरोप का समर्थन करेंगे? ममता बनर्जी लगातार चुनाव जीत रही हैं तो वे वोट चोरी के आरोप कैसे लगा सकती हैं? हां, वे एसआईआर की प्रक्रिया का विरोध कर रही हैं क्योंकि उनको लग रहा है कि इससे उनके समर्थकों के वोट कट सकते हैं। ऐसे ही एमके स्टालिन की पार्टी भी वोट चोरी के आरोप नहीं लगा रही है क्योंकि 2019 और 2024 का लोकसभा और 2021 के विधानसभा चुनाव में उसने शानदार जीत दर्ज की है। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव और महाराष्ट्र में शिव सेना के नेता उद्धव ठाकरे कांग्रेस का समर्थन कर सकते थे। लेकिन ऐसा लग रहा है कि वे भी कांग्रेस के इस एजेंडे से पूरी तरह से संतुष्ट नहीं हैं।
ऐसा नहीं है कि विपक्षी पार्टियां चुनाव आयोग के कामकाज से संतुष्ट हैं या चुनाव प्रक्रिया में गड़बड़ी के आरोप नहीं लगा रही हैं। लेकिन उनका आरोप संतुलित है। वे मतदाता सूची में गड़बड़ी के आरोप लगाती हैं, चुनाव आयोग के पक्षपात का सवाल उठाती हैं, चुनाव प्रक्रिया में कमियां बताती हैं, सत्तापक्ष की ओर से मनमानी किए जाने और चुनाव आयोग के खामोश रहने का मुद्दा उठाती हैं लेकिन यह कहने से बचती हैं कि भाजपा ‘वोट चोरी’ करके चुनाव जीत गई है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि ये पार्टियां विपक्ष में होकर भी करोड़ों मतदाताओं की ओर से दिए गए जनादेश का अपमान नहीं करना चाहती हैं। ध्यान रहे राहुल गांधी, जो कह रहे हैं वह करोड़ों करोड़ मतदाताओं का अपमान है। जिन मतदाताओं ने भाजपा को वोट किया है या कांग्रेस को भी जिन 20 फीसदी लोगों ने मतदान किया है उनका वे अपमान कर रहे हैं। दूसरी विपक्षी पार्टियां ऐसा नहीं कर रही हैं क्योंकि वे चुनाव जीतने हारने को स्वाभाविक प्रक्रिया मान रही हैं। तभी वोट चोरी अब अकेले कांग्रेस का मुद्दा रह गया है।
अब आते हैं सवाल के दूसरे हिस्से पर कि क्या कांग्रेस खुद इस जाल में उलझ गई है? यह संभव है क्योंकि कांग्रेस ने इसकी शुरुआत तो इस मंशा के साथ की थी कि इससे हार का ठीकरा पार्टी के शीर्ष नेतृत्व पर नहीं फूटेगा और कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को मनोबल बढ़ाने में आसानी होगी। ध्यान रहे राहुल गांधी पहले चुनाव हारने के बाद सामने आकर हार कबूल करते थे। लेकिन जब हार की संख्या बढ़ती गई तो कांग्रेस नेताओं को लगा कि इसी तरह हार कबूल करते रहे तो कांग्रेस कार्यकर्ताओं और नेताओं को यकीन हो जाएगा कि राहुल गांधी या व्यापक रूप से नेहरू गांधी परिवार अब जीत नहीं दिला सकता है। यह यकीन होने के बाद वे कांग्रेस को छोड़ने लगेंगे। कांग्रेस को सबसे ज्यादा चिंता अपने मुस्लिम वोट आधार को लेकर हुई।
उसको पता है कि अगर मुसलमान को यकीन हुआ कि कांग्रेस अब भाजपा को नहीं रोक पाएगी तो वह दूसरा विकल्प खोजेगा और तब कांग्रेस शून्य पर आ जाएगी, जैसे दिल्ली में आ गई है। मुसलमान ने जहां भी दूसरा विकल्प खोजा वहां कांग्रेस समाप्त हो गई। बिहार से लेकर उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल से लेकर दिल्ली तक इसकी मिसाल है। इसलिए भी कांग्रेस को यह प्रचारित करना था कि वह मतदाताओं के कारण नहीं हार रही है, बल्कि वोट चोरी के कारण हार रही है। तभी उन्होंने जोर शोर से मतदाताओं को इसका यकीन दिलाना शुरू किया कि कांग्रेस वोट चोरी के कारण हार रही है और भाजपा वोट चोरी करके जीत रही है।
इस आरोप को पुख्ता करने के लिए राहुल अब चुनाव आयुक्तों के नाम लेकर उनको धमकी दे रहे हैं। यह बहुत खराब परंपरा है। लेकिन ऐसा करने की मजबूरी हो गई क्योंकि राहुल को पता है कि अगर वे इस सीमा तक नहीं जाएंगे तो वोट चोरी के आरोपों पर लोग यकीन नहीं करेंगे। तभी ऐसा लग रहा है कि राहुल गांधी और कांग्रेस इस नैरेटिव के जाल में उलझते जा रहे हैं और यही कारण है कि विपक्षी पार्टियों को साथ लाने या दूसरे जरूरी मुद्दे उठा कर सरकार को जिम्मेदार ठहराने और विपक्ष की तरह लड़ने का काम नहीं हो रहा है।
