बिहार में भाजपा के लिए रास्ता

Categorized as अजित द्विवेदी कालम

बिहार में पहली बार विधायकों की संख्या के लिहाज से भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनी है। यह लंबे प्रयासों और दीर्घकालिक राजनीति का परिणाम है। जिस समय भाजपा बिहार विधानसभा में अच्छे खासे अंतर से दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनती थी तब भी वह तीसरे नंबर की पार्टी के नेता नीतीश कुमार का चेहरा आगे करके राजनीति करती थी। भाजपा के उस समय के प्रदेश और देश के नेताओं को अंदाजा था कि मंडल की राजनीति साधने के लिए उनको एक ऐसे चेहरे की जरुरत है। अब वह जरुरत क्रमशः कम होती जा रही है। इसके कई कारण हैं, जिनमें से एक कारण यह है कि भाजपा का भी लगभग पूरी तरह से मंडलाइजेशन हो गया है।

बिहार में भाजपा का समूचा नेतृत्व पिछड़ी जाति का है और लंबे समय तक रहने वाला है। राष्ट्रीय स्तर पर भी भाजपा का शीर्ष नेतृत्व पिछड़ी जाति का है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अति पिछड़ी जाति से होने का प्रचार खुद भाजपा ने समूचे उत्तर भारत में किया है। मंडल या पिछड़ी जाति की राजनीति साधने के लिए किसी तीसरी शक्ति की जरुरत भाजपा को इस वजह से भी नहीं है कि क्योंकि नरेंद्र मोदी और अमित शाह की भाजपा ने मंडल और कमंडल को एकाकार कर दिया है। अब राजनीतिक, वैचारिक और सामाजिक दृष्टि से ये दोनों अलग अलग नहीं हैं।

बिहार विधानसभा का इस बार का चुनाव नतीजा बिहार में भारतीय जनता पार्टी को सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत के तौर पर स्थापित करने वाला है। भाजपा को निश्चित रूप से नीतीश कुमार के बनाए वोट आधार का लाभ मिला है और साथ ही नीतीश के सुशासन और व्यक्तिगत रूप से उनकी छवि के कारण भी भाजपा और पूरे एनडीए को फायदा हुआ है। लेकिन इस बात को ध्यान में रखने की जरुरत है कि भाजपा का अपना एक बड़ा मजबूत राजनीतिक आधार बिहार में है। उस वोट आधार के दम पर भले वह अकेले चुनाव जीत कर सरकार बना पाने में सक्षम नहीं हो लेकिन यह हकीकत तो दोनों प्रादेशिक पार्टियों यानी राजद और जदयू के बारे में भी है।

वे दोनों भी अकेले अपने वोट आधार पर के दम पर बिहार में सरकार नहीं बना सकते हैं। अगर अलग अलग तीनों पार्टियों के वोट आधार की बात करें तो 2014 के लोकसभा चुनाव को या 2015 के विधानसभा चुनाव को आधार माना जाएगा। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा, राजद और जदयू तीनों अलग गठबंधन बना कर लड़े थे। उस समय भाजपा को 29.86 फीसदी वोट मिला था। राजद को 20.46 और जनता दल यू को 16 फीसदी वोट मिले थे। 2015 के विधानसभा चुनाव में जब भाजपा अकेले छोटी पार्टियों से गठबंधन बना कर लड़ी तब भी उसे 24.40 फीसदी वोट मिले। उससे पहले 2010 में जब लोजपा से तालमेल करके राजद ने चुनाव लड़ा तो उसे 18.84 फीसदी वोट मिले। पिछले लोकसभा चुनाव में राजद को 22 फीसदी से कुछ ज्यादा वोट मिले थे।

इन पार्टियों के मत प्रतिशत में थोड़ा बहुत ऊपर नीचे का अंतर लड़ी गई सीटों की संख्या के कारण आता है। मोटे तौर पर राजद का अपना वोट आधार 18 से 22 या 23 फीसदी है तो जदयू का आधार 16 से 18 फीसदी का और भाजपा का 20 से 30 फीसदी का है। इस लिहाज से अकेले किसी पार्टी के कोर वोट आधार की बात करें तो वह सबसे बड़ा आधार भाजपा के पास है। उसके पास मोटे तौर पर 24 से 25 फीसदी वोट का आधार है, जो लगातार उसके साथ बना हुआ है। इसमें सबसे बड़ा हिस्सा अत्यंत पिछड़ी जातियों का है और उसके बाद सवर्ण हैं। 2015 के विधानसभा चुनाव में जब भाजपा अकेले लड़ी थी और नीतीश कुमार व लालू प्रसाद साथ मिल कर लड़े थे तब भी चुनाव बाद हुए सर्वेक्षणों से पता चला था कि 52 फीसदी अत्यंत पिछड़ी जातियों का वोट भाजपा को मिला था, जबकि राजद और जदयू को महज 35 फीसदी के करीब ईबीसी वोट मिला था। ईबीसी और सवर्ण के अलावा अब भाजपा ने गैर यादव पिछड़ी जातियों में से सबसे बड़ी सवा चार फीसदी आबादी वाली कोईरी जाति को अपने साथ जोड़ा है। उत्तर प्रदेश में केशव प्रसाद मौर्य और हरियाणा में नायब सिंह सैनी के साथ बिहार में सम्राट चौधरी का नेतृत्व इस मामले में भाजपा को मजबूती दे रहा है। जातीय समूहों से इतर हिंदुत्व का एक मजबूत वोट आधार भाजपा के पास है, जिसमें सभी जातियों के मतदाता शामिल हैं।

इस बार का चुनाव बिहार में भाजपा की राजनीति के लिहाज से वाटरशेड मोमेंट है। नतीजों के बाद भाजपा का मुख्यमंत्री बनना महज वक्त की बात है। इस विधानसभा में किसी समय भाजपा का मुख्यमंत्री बनेगा, जो गैर यादव पिछड़ा चेहरा होगा। सम्राट चौधरी के होने की ज्यादा संभावना इस वजह से है क्योंकि उनके चेहरे से कोईरी, कुर्मी और धानुक का एक करीब 10 फीसदी का मजबूत वोट आधार बनता है, जिस पर नीतीश कुमार ने इतने लंबे समय तक राजनीति की है। एक बार नीतीश कुमार बिहार के राजनीतिक परिदृश्य से हट जाएं तो भाजपा उनके सामाजिक समीकरण को अपने हिंदुत्व व राष्ट्रवाद के साथ मिल कर बिहार की स्थायी रूप से सबसे बड़ी पार्टी बन सकती है, जैसे वह उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश या गुजरात में है। बिहार इसके लिए आदर्श जगह बनती दिख रही है। ध्यान रहे बिहार में लगातार मुस्लिम विधायकों की संख्या घट रही है। लेकिन उसी अनुपात में मुस्लिम वोट का पोलराइजेशन और उसका काउंटर पोलराइजेशन हो रहा है। नीतीश कुमार इसमें बफर का काम करते रहे हैं। उनके रहने से भाजपा का स्पेस कम होता है। मुस्लिम आबादी का भी एक बड़ा हिस्सा इसलिए नीतीश कुमार को वोट करता है क्योंकि उनके रहने से भाजपा को बिहार में उत्तर प्रदेश जैसा खुला मैदान नहीं मिल पाता है। आने वाले दिनों में यह स्थिति बदलेगी। बिहार में 18 फीसदी मुस्लिम आबादी है और असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी के लिए जिस तरह से स्पेस बन रहा है वह भी भाजपा के फलने फूलने का आधार बनेगा।

भाजपा ने उत्तर प्रदेश में हार्डकोर हिंदुत्व की राजनीति करके एक सवर्ण चेहरे पर सामाजिक समीकऱण को साधा है क्योंकि वहां सवर्ण आबादी एक चौथाई के करीब है। लेकिन बिहार का मामला अलग है। बिहार में उसे पिछड़े चेहरों से सामाजिक समीकरण साधना है और साथ ही योगी आदित्यनाथ म़ॉडल की हिंदुत्व की राजनीति भी करनी है। यह काम भी नीतीश कुमार के रहते नहीं हो पाता था। लेकिन अब नीतीश की गौरवशाली राजनीतिक पारी के अंत के शुरुआत हो गई है। उम्र और सेहत के कारण नीतीश धीरे धीरे हाशिए में जाएंगे और चूंकि उनकी पार्टी में न तो उनका कोई स्वाभाविक उत्तराधिकारी सामने आया है और न उनके परिवार से कोई व्यक्ति उनकी विरासत संभालने वाला दिख रहा है। इसका लाभ भारतीय जनता पार्टी ले सकती है।


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